सोचो तुमने और मैंने क्या पाया इंसा होके ?

शनिवार, सितंबर 25 By मनवा , In

जावेद अख्तर की इन सुन्दर पंक्तियों से आज बात शुरू करती हूँ , कितनी सार्थक और उतनी ही गहरी बात कही है वाकई कभी कभी सोचती हूँ की हमने क्या पाया अबतक ? जीवों में सबसे अधिक बुध्दिमान और ज्ञानवान होकर भी हम क्या पंछी , पवन और नदियों की तरह पवित्र निच्छल और जीवंत रह पाए है ?




मैंने किसी मित्र से कहा की अगले जनम में मैं नदी बनना चाहती हूँ तो उनका जबाव था वो नदी जो इन दिनों सभी जगह बस्तियां उजाड़ रही है ?


मैंने कहा , नदियों ने कभी बस्तियां नहीं उजाड़ी , नदियों ने हमेशा अपने किनारों पर बस्तियां बसाई है , पत्थर में फूल खिलाये है , हमेशा लोगों की प्यास बुझाने वाली नदी क्या किसी को उजाड़ सकती है? कतई नहीं नारी और नदी को समाज ने कभी समझा ही नहीं जबकि हमारी संस्कृति हमारे पुराण और वेद , आख्यान नारी और नदियों की महानता से भरे पड़े है और कहा भी गया है की इन्हें सम्मान दिया जाना चाहिए दोनों ही जीवन पर्यन्त अपनी गति से बहती है लोगो को संतुष्ट करती है बदले में कुछ नहीं मांगती लेकिन जब जब भी इन्हें इनकी धारा के विपरीत मोड़ने की कोशिश की गयी ये उग्र रूप धारण करती है फिर जो पूर नदी में आता है उसमे बस्ती , ही नहीं देश ही नहीं सभ्यता भी डूब जाती हैं


पत्थर के जड़ किनारे भला नदियों का दर्द क्या समझेगे वो क्या कभी जान सकेगें की "वो नदिया फिर वो प्यासी भेद ये गहरा बात ज़रा सी ---- पत्थर के किनारे उसकी मंजिल नहीं उसे तो सागर में ही जा मिलना है वो सागर जिसका ह्रदय विशाल हो जो उसे अपने में समाहित कर ले ये गहरी बात क्या पत्थर के किनारे जान सकते हैं की सबके पाप अपने सर पर उठाये गंगा फिर भी पवित्र क्यों बनी हुई है ? क्योकिं बह बहती है


जो बहता है वो जिन्दा है जो रुक गया वो मर गया अपने अंहकार से अकड़े किनारे क्या कभी ये जान पायेगे की , अपने स्वार्थ अपने लोभ ने उन्हें पत्थर बना दिया जो कभी किसी के दुःख से हिलते नहीं किसी के दर्द से पिघलते नहीं बस बेजान पड़े है सदियों से इक जगह पर बहते ही नहीं


दोस्तों हम भी तो जड़ हो गए है ना किनारों की तरह , हम पंछियों की तरह चहकते नहीं , पवन की तरह उन्मुक्त नहीं और नदियों की तरह बहते नहीं हम संवेदन शून्य हो गए हम प्लास्टिक की हंसी हसते है कोई क्या कहेगा इसलिए चाहते हुए भी हंसते नहीं कोई देख ना ले कोई जान ना ले इसी में हम उलझ गए है हमने खुद ही नियम बनाए खुद ही जंजीरे गढ़ी और व्यवस्थाएं बनायी और खुद ही पत्थरों की बस्ती बना कर उसमे कैद हो गए क्या हम जिन्दा है ? या जीने का ढोंग करते हैं ?हम खुद को अभिव्यक्त नहीं करते हम ऐसे क्यों हो गए ?


हमारी बुध्दी ,हमारा ज्ञान ही हमें मार डाले जा रहा है हम खुद से ही दूर हो गए रिश्तों से दूर हो गए अब हमें कोई हँसता दिखता है तो हम उस पर हँसने लगते है की पागल है कोई किसी से प्रेम करता तो भी हम उस पर हंसते है की मनो रोगी है क्योंकि हम खुद को बहुत ही समझदार और होशियार मानते है क्या हम वास्तव में समझदार हैं ? हम से अच्छे तो पंछी हैं जो किसी पर हंसते नहीं , किसी से नाराज नहीं होते किसी को छलते नहीं किसी को दुःख नहीं देते बस प्रेम से रहते हैं उनके लिए कोई सीमा नहीं सरहद नहीं वे जहां चाहे जाए . , हम क्यों नहीं नदी बन जाते और क्यों नहीं हम किसी के अहसासों में बह जाते सारी सरहदे तोड़ के , क्यों ना हम हवा बन जाते हमारा कोई वतन ना हो कोई देश न हो हम चाहे जहां बहे सेहरा में भी और चमन में भी कोई हमें बांध ना सके


क्या आपका मन भी कभी आकाश में उड़ते पंछी और बहती नदी को देख ये नहीं कहता की " पंछी नदियाँ , पवन के झोकें कोई सरहद ना इन्हें रोके , सरहद इंसानों के लिए है सोचो तुमने और मैंने क्या पाया इंसा होके ?

2 comments:

संजय कुमार चौरसिया ने कहा…

kaash hum bhi panchhi hote

http://sanjaykuamr.blogspot.com/

25 सितंबर 2010 को 6:29 pm बजे
sushil ने कहा…

ek astitwa doosre astitwa ke sath juda hua hai. soche nadi kya bina badal, parwat aur hawa ke ho sakati hai. soche kya dharti ke bina use koi dharan kar sakta hai. in sabke sath uski sangati hi to nadi ko woh uddam gati aur swatantrata deti hai bahane ki kinaron ki paridhi men.ye kinare jab toot jate hain tab kaun use nadi kah patat hai.bah bhi kahan pati hai wah. k DIXIT

30 सितंबर 2010 को 12:40 pm बजे

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