ए अजनबी तू भी कभी आवाज दे कहीं से -----------------

बुधवार, दिसंबर 15 By मनवा , In

कल इक अहसास ने नींद से जगा दिया मैंने आखें खोली तो देखा बहुत से अजनबी साये चारों और मुझे घेरे हुए खड़े हैं ,पूछा कौन हो भाई ? और इस समय मेरे पास आप क्या कर रहे हैं ? जबकि सारी दुनियाँ नींद के आगोश में सतरंगी सपनों में खोई हुई है वे मुस्कुरा कर बोले हम अहसास हैं जो पहाड़ों के उस पार समन्दर के पीछे बसते हैं और आज तुम्हे खोजते हुए यहाँ आ पहुंचे हैं दोस्तों उनमे से कुछ अहसास मुझे बिलकुल अपने जैसे लगे जिन्हें मैंने अपने पास सहेज लिया और बाकियों को विदा कहा ये अहसास फूलों से भी हलके और नाजुक थे ओस की बूंदों से पवित्र बादलों से स्वच्छ और निर्मल मैंने उनसे फिर कहा ओ अजनबी तुम कैसे मुझे ढूंढ़ते हुए चले आये ? जबकि मुझे गुम     हुए तो बरसों हो गए हैं मेरा" पता "           मुझसे ही खो गया है फिर तुम्हे किसने बताया ? वे कहने लगे हमें अजनबी कह कर ना पुकारों हम तुम्हारा"" पता ""भी जानते हैं और तुम्हे भी तभी तो पहाड़ों के देश से बादलों के पार से हम चले आये हम तुम्हारा ही हिस्सा है तुम्हारे मन का हिस्सा आत्मा का हिस्सा तुम्हारी साँसों का हिस्सा जिस तरह टुकड़ो में तुम इस पार रहती हो हमभी तुम्हारे बिना टुकड़ो में जीते हैं दिन के उजालों में तुम हमें महसूस नहीं कर सकी तो रात के सन्नाटों में चुपके से चले आये हम सदियों से तुमसे मिलना चाहते थे तुम ही सोचो हम अजनबी होते तो क्या इस तरह से नींद से तुम्हें  जगाते ? मैंने पूछा ओ ,अहसासों तुम कहाँ रहोगे वे बोले हम हमेशा से ही मनके आसपास आत्मा के करीब और साँसों की गलियों में ही रहते आये हैं इसलिए वहीँ रहेगे दोस्तों --अनजान देश अनजान मोड़ से आने वाले इन अजनबियों ने मेरी जिंदगी ही बदल दी मेरे चारोंओर इन अहसासों ने इक घेरा बना लिया जो मुझे दिन रात छूता था मैं कहीं भी जाऊं ये हर जगह मेरे साथ होते थे मुझे अब गुलाब ज्यादा सुर्ख लगते थे और सारी दुनिया अपनी सी लगती थी पतझड भी सावन सा लगता था क्योकिं ये कोमल अहसास मुझे सदा भिगोये रखते थे दुनिया कितनी सुन्दर और अपनी सी जान पड़ती थी लगता था की इश्वर की सभी रचनाएं कितनी सुन्दर हैं




लेकिन दोस्तों इक दिन वो अहसास मुझे छोड़ कर चले गए हमेशा हमेशा के लिए अब ये दुनिया उतनी सुहानी नहीं रही न  अब  फूलों  में वो खुशबु ही रही ना हवा में वो सुगंध-- अब भीड़ में जी नहीं लगता दिन के उजालों से रात के स्याह अँधेरे भाते हैं उन अहसासों ने मुझे फिर से टुकड़ा- टुकड़ा कर दिया आधा हिस्सा फिर पहाड़ों के उसपार चला गया और आधा हिस्सा यहाँ यादों के वियाबानों में भटकता सा फिरता है ओ ,अहसासों तुम भी अपने इस हिस्से के बिना अधूरे हो ना ? फिर तुम कैसे जीते हो ? कभी इक बार वहीँ से आवाज तो दो या बादलों से सन्देश ही भेजो क्या कभी मेरे देश की मिट्टी की सोंधी खुशबु तुम्हे यहाँ आने को बेबस नहीं करती मुझे तो आसमान में भटकते बादल और  रात के सन्नाटों में चमकते  जुगनू  बता ही जाते हैं की तुम भी उस पार उदास हो भला तुमभी कब तक अपने आधे हिस्से से दूर जी सकोगे माना  की लोग कहते हैंकि  सिर्फ अहसास  है ये रूह से महसूस  करो लेकिन  मेरा मन कहता  हैकि  ए अजनबी  तू कभी  आवाज   दे कहीं से ---------------------

3 comments:

रोशन जसवाल ने कहा…

सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति है । आपके शब्‍दों में संवेदना है कशिश है और पाठक को बाधने की शक्ति है। सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति के लिए आपकों साधुवाद।

15 दिसंबर 2010 को 6:07 pm बजे
sangeeta indore ने कहा…

jab tumase pahali baar mili thi to tumhaari baaton ne mujh par jaadu sa kar diyaa tha lekin aaj pataa chalaa ki tum sirf bolati nahi likhati bhi bahut khub ho kisi ki najar naa lage tumhaari dost sangeeta

15 दिसंबर 2010 को 7:09 pm बजे
मंजुला ने कहा…

बहुत ही सुन्दर लिखा है दोस्त .....मुझे ख़ुशी है की तुम मेरी दोस्त हो ....जिस दौर का ज़िक्र तुम कर रही हो मेरे ख्याल से हर कोई कभी न कभी जीवन मे इन पालो से गुजरता ही है ......पर अपनी भावनायो को हुबहू उतार देना सबके बस की बात नही ...बहुत खूब ऐसे ही लिखती रहो .....और खुश रहो हमेशा .....

20 दिसंबर 2010 को 10:52 am बजे

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