बस इतनी सी गुजारिश है -----

मंगलवार, मार्च 8 By मनवा , In


आज  सभी समाचार पत्र  महिलाओं की गौरव  गाथाओं से  भरे हुए हैं  अपने- अपने क्षेत्रों  में सफल चुनिन्दा  सफल महिलाओं  का सम्मान   किया जाएगा  और  कुछेक {तथाकथित } बुध्दिजीवी   महिलायें  अपनी बड़ी- बड़ी गाड़ियों  में  बैठ कर आएगी  सिल्क की साड़ियों  , गहनों.  और मेकअप से लिपि पुती  ये महिलायें  आज  कई स्थानों  पर  गोष्टियाँ  करेगी  नारी सशक्तिकरण   और नारी उत्पीडन  पर  बात  करके  महिला दिवस का  समापन  करेगी लेकिन क्या  आज कोई  अरुणा शानबाग  की बात करेगा ?
पिछले 37 सालों से मुंबई  के इक अस्पताल में बेसुध पड़ी नर्स अरुणा रामचन्द्र शानबाग  को इच्छा -मृत्युदेने की याचिका सुप्रीम कोर्ट ने खारिज  कर दी. इस खबर से अस्पताल  की नर्सों  में खासा उत्साह था वे महिला दिवस पर इसे महिलाओं  की जीत मान रही  हैं लेकिन  मैं सोचती हूँ  किसकी जीत  ? और किसकी हार ? अरुणा की  बेजान देह पर किसका  हक़ है ? अस्पताल  का या पिंकी वीरानी का ? मनवा   इस तरह की तमाम  बहस से हमेशा  दूर रहा  है लेकिन  लेकिन लेकिन   कुछ  सवाल  जरुर है  मन  में  जिसके उत्तर  सुप्रीम  कोर्ट नहीं  सिर्फ  अरुणा  ही दे सकती है  तो  आज सिर्फ अरुणा  से बात  ----अरुणा  सच बतलाना  ? क्या तुम वास्तव में ज़िंदा  हो ? जो ये नादान  लोग तुम्हे  मरने नहीं देना  चाहते , अरुणा तुमतो  उसी दिन उसी पल मर गयी थी ना  उस 27 नवम्बर 1973 को जब इक वहशी ने तुमपर हमला  बोला और तुम्हारे मन , आत्मा और देह को  तार-तार  कर दिया था लोहे की जंजीरों से गले को कस दिया था अरुणा  तुम तो उसी पल मर गयी थी { तुम्ही क्या  हर वो स्त्री   उसी पल  मर जाती है  जब उसकी  मर्जी के बिना  उसे छुआ जाता है }
अरुणा  अस्पताल  के डाक्टर  कहते हैं  तुम देख  नहीं सकती  सुन नहीं सकती  बोल नहीं सकती हिल  डुल नहीं सकती  ----कितने  ना समझ  हैं ये सभी , ये नहीं जानते  अरुणा  रात के सन्नाटों में  जब पूरा अस्पताल  नींद के आगोश में  होता है तुम चुपके से आती  हो तुम्हारी बड़ी -बड़ी खूबसूरत आखें उस वहशी  को तलाशती  हैं , अंधा  तो उस अस्पताल का स्टाफ  था  जो  इस दर्दनाक हादसे  को होने से बचा  नहीं पाया  , अरुणा  तुम उस बेसमेंट  में गूंजती अपनी आहों अपनी दर्द भरी चीखों को कराहों को बखूबी  सुन सकती हो बहरी तुम नहीं अरुणा   बहरे  वो लोग हैं जो तुम्हे  अब भी नहीं सुन पा रहे हैं तुम्हारी घुटती  चीखे  अब भी  गूंजती  है तुम्हारा  दर्द  अब भी गहराता  होगा ना ?  अरुणा  ये दुनिया  सिर्फ  देह  को ही व्यक्ति  क्यों समझती है ? हम सभी देह  के अलावा  भी तो"कुछ"  होते है ना ? फिर  जब जीने की कोई वजह नहीं जिन्दगी जीने लायक नहीं  तो उसे देह से मुक्त  क्यों नहीं कर देते ?
पल पल मरने से इक बार मुक्त  हो जाना  कहीं बेहतर है अरुणा ,  तुम किस आशा में अपने साँसों के  बंधन  को जोड़े रखी  हो इस भरम में मत  रहना  की तुम्हारे आसपास के लोग या रिश्ते  तुम्हे या तुम्हारे दर्द को  महसूस  करेगे या तुम्हारे साथ न्याय  करेगे  वो वहशी सिर्फ सात साल की सजा काट कर मुक्त हो गया था और तुम 37 साल से सजा काट रही हो  नहीं अरुणा नहीं  ये बस्ती पहले कभी इंसानों की हुआ  करती  थी अब सिर्फ यहाँ  पत्थर  बसते हैं  अरुणा   इससे पहले की तुम पर  और हक़ जताए  जाए  तुमसे  इक गुजारिश  है  अरुणा अपनी साँसों के बंधन  को तुम खुद ही तोड़ दो  और  इक गुजारिश  है  अब कभी   इस धरती  पर आने का मन  हो तो  नदी  बन जाना   पंछी  बन जाना  शबनम  की बूंद  बन जाना  झरना  बन जाना   पर स्त्री  मत  बनना बस  इतनी से  गुजारिश  है  तुम  चली  जाओ  अरुणा मुक्त हो जाओ इस देह के बंधन  से  बस इतनी सी  गुजारिश  है -----

6 comments:

Mahendra Arya ने कहा…

सचमुच , कानूनी दांव पेंचों के बीच फंस कर रह गयी है अरुणा शानबाग की जिन्दा लाश ! अस्पताल इस घटना से पूरी वाहवाही कमाने में लगा है . किसी के प्रिय व्यक्ति का शव घर में पड़ा हो तो वह प्रेम के वशीभूत होकर उस शव को घर में संभाल कर नहीं रखेगा . चलो मान भी लिया जाए की अरुणा के केस में अस्पताल की नर्सों ने उनकी बहुत अच्छी देख भाल की ; इसके विपरीत शायद कोई अरुणा जैसी खुशनसीब न हो और उसे सँभालने वाला कोई न हो तो क्या कोर्ट का दृष्टिकोण कुछ भिन्न होगा ? कानून के ठन्डे तरीकों में दिमागी चेतनता का जीवित रह जाना अपराध हो गया अरुणा शानबाग़ का . सच कहा है आपने अपने लेख में - "ये नहीं जानते अरुणा रात के सन्नाटों में जब पूरा अस्पताल नींद के आगोश में होता है तुम चुपके से आती हो तुम्हारी बड़ी -बड़ी खूबसूरत आखें उस वहशी को तलाशती हैं

8 मार्च 2011 को 4:16 pm बजे
sourabh parashar ने कहा…

mamta ji..
aaj ke din is buddhijeevi samaj anvam unke dhekedaro ke muh per aap ka ye jordar tamacha puri tarah sammaniya he.. aruna ji ki ichcha mrityu ki apeel ka sach, aur nari ke man ka dard..
is gambheer vishya per prakash dalne ke liye bahot bahot dhanyawad..

8 मार्च 2011 को 5:09 pm बजे
रौशन जसवाल विक्षिप्त ने कहा…

सुन्‍दर आपको साधुवाद

8 मार्च 2011 को 7:35 pm बजे
Nina Sinha ने कहा…

बहुत ही सामयिक विषय चुना है आपने जब पूरा हिंदुस्तान इक्षा मृत्यु की वैधता के बारे में बातें कर रहा है . वोमेन'स डे के अवसर पर इस से अच्छा और कोई विषय हो भी नहीं सकता था . after reading this for few minutes,I was dumb struck...why we never thought of Aruna from this point of view ..we were indulged more into debating about euthanasia ..whether it should have been permitted or not.. पर आपने इस पूरे किस्से को एक इंसानी समझ देने की कोशिश की है - so a round of applause for you.

आपने अरुणा की भावनाओं को खंगालने की कोशिश की है ..सचमुच मर तो वह 27 nov 1973 को ही गयी थी. उसके अन्दर जा कर झाँकने और उसे समझने की कोशिश की है आपने. एक स्त्री के दृष्टिकोण से आपकी अरुणा को समझने की कोशिश (एक स्त्री का दूसरी स्त्री को समझने की कोशिश ) बहुत सटीक , सत्य और सराहनीय है. औरत के टीस को शायद एक औरत ही समझ सकती है , पर उसके लिए उस टीस की समझ जरूरी है . मर्दों को ऐसी पीड़ाए नहीं छूती , अगर छूती भी हैं, तो उसकी पीड़ा लम्बी नहीं होती . मुझे अमृता प्रीतम की एक बड़ी अच्छी पंक्ति याद आ रही है, "आंसूओं और औरत की आँखों का न जाने क्या रिश्ता है , कोई मुल्क हो , वो कहीं भी हो , यह रिश्ता बना ही रहता है ."

But let us now come to the practical point of view. According to me, euthanasia should have been granted to her as she is not on medication. Her chances of improving is minimal..nurses don't understand what it will be like letting Aruna go...I think Pinki Virani did a commendable job by bringing this into the notice of the Supreme court and thus a debate started and we all came to know about the physical condition of Aruna and the tragedy that happened to her 37 yrs ago.

What I wonder is that if we as Hindus believe in the philosophy of karma, then is Aruna suffering because of her bad karma? Whatever that happened to her was pre-destined? What kind of learning is she experiencing while in a vegetable state? According to dharma, the law of nature balances everything that we do in our past & present life. Looking at that theory, is Aruna paying a debt of her previous karma? According to Brian Weiss , an American Psychiatrist , we all come in body form to learn our lessons, so it is better to finish off that learning and then go, otherwise we will have to come back to finish the remaining lessons .

ऐसे कितने सवाल है जो हमारे जहन में उठते हैं .....a normal healthy young girl, working as a nurse ,all of a sudden gets into an accident by some evil person and living a life of a dead from last 37 yrs.... this is what we call MAYA.

8 मार्च 2011 को 10:38 pm बजे
सूर्य गोयल ने कहा…

ममता जी, महिला दिवस पर मई भी गुफ्तगू करने बैठा ही था की आपके ब्लॉग पर नजर पड़ी. जैसे ही मैंने आपकी यह पोस्ट पढ़ी तो दिल और दिमाग ठहर सा गया. इतनी लाजवाब पोस्ट पढने के बाद तो मेरे पास गुफ्तगू करने के लिए शब्द ही नहीं है. रही आपकी पोस्ट की तारीफ तो इतना ही कहूँगा की सचमुच बहुत ही उम्दा पोस्ट. इस लेख के लिए बधाई और महिला दिवस की शुभकामनाएं

8 मार्च 2011 को 11:14 pm बजे

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