कुछ इस तरह तेरी पलकें , मेरी पलकों पे सजा दे ------------------

सोमवार, मार्च 21 By मनवा , In

कल  "होली "के रंगों  में डूबा  रहा  मेरा शहर .. और रात को होली की खुमारी  से थक कर जब पूरा शहर गहरी नींद के आगोश  में था  तभी मैंने  कुछ मधुर सी आवाज़े सुनी , मैंने सुना  कोई  किसी से कह रहा था ,दोस्त   -सारा शहर  सो रहा  है तुम क्यों  जाग रही हो ? दूसरी  हंसते  हुए  बोली  तुम भी  कहाँ  सोयी हो ? क्या  सोच  रही हो ? अब तक मुझे समझ  में आ गया  था की  ये    संवाद दो आखों की  पलकों के बीच  हो रहा  है मैं  ध्यान  से उनकी  बातें  सुनने लगी
इक पलक ने दूसरी से अपना हाल कहना शुरू किया  इक बोली   दोस्त ,आज तुमने होली खेली क्या ? दूसरी बोली दोस्त हम तो हर पल ही आसुंओं  में रंगी  रहती हैं  हमारी तो हर पल ही होली है  ये माना  की आसुओं से पलकों के मरासिम {रिश्तें } पुराने हैं  फिर भी दिल कभी  ये नहीं सोचता  की हम इतनी छोटी छोटी आखों में इतना  दर्द कैसे  समेटेगी जब भी दिल की बस्ती में दर्द बढ़  जाता है हम उसे अपने ऊपर  उठा लेती हैं. मेरी तो समझ में ये नहीं आता  की ये दर्द आखिर आता कहाँ से हैं ? लेकिन जब भी ये आता है सब कुछ  कितना  धुंआ  धुंआ सा लगने लगता  है किसीकी सांसे  घुटती सी महसूस होती है मैंने देखा है  लोगों के होंठ  सिल जाते हैं  उनके पास शब्द  नहीं होते , भाव शून्य हो जातें हैं दूर दूर तक सन्नाटा  होता  है सारी दुनिया में शोर होता है लेकिन इस बस्ती में खामोशी , तब दूसरी पलक ने कहा  हाँ दोस्त मैंने सुना है की सीने  में धड़कन  के आसपास  ही दर्द का गाँव  होता  है ये धुंआ  शायद  वही से उठता है , ठहरता  है लोगो कोदर्द से  भर देता है और आखों  के रस्ते से फिर से   खाली कर देता है ये पलकों से बहने वाला सागर जो बिलकुल खारा  होता  है ये दिल से उठकर गले तक भर आता  है और फिर बहने लगता  है पलकों के किनारों से हमारी कतारों से बूंद बूंद करके ना जाने कितने समन्दर खाली  हो गए  है ना ?
पर दोस्त इस दर्द के बहने का जरिया  हम कब तक बनी रहेगी ?क्या किसी को हमारा ख्याल  भी है ?ये आसुओं के मोती हम जब नहीं संभाल पाती  हैं तो जमीन  पर गिरा  देती हैं  कभी कभी लगता है क्या हाथ मिलाने वाले ,गले मिलने  वाले  दोस्त कभी  इन पलकों के आंसुओं   को देख पाते हैं ? कोई  अहसास कोई रिश्ता इन मोतियों  को मिट्टी में मिलने से क्यों नहीं बचा  पाता ?
कोई अपनी पलकों  को हमसे जोड़ कर  ये अनमोल मोती क्यों  नहीं चुरा  लेता ?पागल  हो तुम दोस्त ,  इन मोतियों की दुनिया के बाजारों में कोई कीमत नहीं --सदियों से ये मोती  दिल के सागर में जन्म लेते है पलकों पर सजते  है और  गालों से ढलक  कर जमीन में मिलते रहे हैं  तभी तो मिट्टी में इतनी  सौंधी  खुशबूं  है
दोस्त अब ये अकेले  बोझ सहा  नहीं जाता   तब दूसरी पलक बोली  दोस्त काश मैं तुम्हारे दर्द को हल्का  कर पाती  क्या कोई ऐसी  युक्ति या टेक्निक  नहीं है जो इक आँख ,दूसरी आखं  से मिलकर उसके दर्द को कम कर दे  नहीं दोस्त आखें  हमेशा साथ साथ  रहती तो है पर मिलती कभी  नहीं --और इस दुःख को मन में  लिए पलकें  नींद  से बोझिल  हो कर  बंद हो गयी  मुंद गयी लेकिन मैं सोचने लगी   रिश्तों के हूजुम में कई तरह के रिश्ते हमने सजाये है अपनी  जरूरतों  के रिश्तें , सुविधाओं के रिश्तें , कार,बंगलों मकानों के रिश्तें अवसरों के रिश्ते होली दिवाली  राखी के रिश्ते हजारों हजार रिश्तें  लेकिन क्या वास्तव में इनमे से कोई ऐसा  रिश्ता भी है जो कभी हमसे कहे-- कुछ  इस तरह तेरी पलकें , मेरी पलकों पे सजा दे .आंसूं  तेरे सारे ,मेरी पलकों पे सजा दे-----

7 comments:

मंजुला ने कहा…

निशब्द ....कर गया ये लेख तुम्हारा ......
प्राथना करुगी कोई जल्दी से इन पलकों की भाषा समझ जाये व छुपे हुए सारे आंसू चुरा ले ........

22 मार्च 2011 को 2:16 pm बजे
sandeep raashinkar indoor ने कहा…

ममता , बहुत दिनों से देख रहा हूँ तुम्हारे ब्लॉग से लोगों को शिकायत है की इसमे दर्द की आसूं की बात ज्यादा होती है लेकिन मुझे हैरानी है की लोग आसूं और दर्द से बचना क्यों चाहते है ? जबकि ये जीवन का इक अहम् हिस्सा है दर्द की सर्जरी करना जरुरी है अन्दर दुःख दबा कर ऊपर से खोखली हंसी हँसने से बेहतर है जी भर के रो लिया जाए और जी हल्का कर लिया जाए , मुझे तुम्हारी लेखनी की ये बात ही पसंद आती है की तुम दर्द की चीरफाड़ करती हो उसे दिल से बाहर निकालती हो और नासूर बनने से रोकती हो जब दुःख संताप तनाव बहार आयेगा तभी तो प्रेम को स्थान मिलेगा लिखती रहो आशीर्वाद

22 मार्च 2011 को 5:50 pm बजे
Nina Sinha ने कहा…

loved ur article Mamta...दर्द और आंसू का इतना प्यारा वर्णन और दो पलकों की बात -चीत बहुत अच्छी लगी ....आपने अपने लेखों में दर्द और आंसू की हर बार अलग-अलग ढंग से चर्चा की है, इसलिए किसी को repetitive नहीं लगती . This is definitely your achievement.

ऐसा नहीं की हमें दर्द और आंसुओं का एहसास नहीं, जैसा की संदीप राशिनकर जी ने कहा है, पर कई बार हम, लोगों के दुखों से immune ज़रूर हो जाते हैं ....I have seen people writing and quoting good stuff but how many actually feel it, follow it or even implement it in their lives...percentage is very less..आपको नहीं लगता अगर हम सभी एक दूसरे के दर्द और आंसू को समझने लगे तो ये दुनिया कितनी खूबसूरत हो सकती है ...मगर नहीं ...हम सब सिर्फ अपने दुखों की महिमा को ले कर ही बैठे रहते हैं ...But definitely there are people out there who are understanding other's pain and trying to help them out और शायद इसलिए दुनिया चल भी रही है ...आपका लेख उन भूले हुए लोगों के लिए निश्चित रूप से एक reminder का काम करती है .. ...आपका लेख इस तेज़ -दौड़ ज़िन्दगी में लोगों को थोड़ा सा रूक कर ज़िन्दगी के और पहलूओं पर भी गौर करने के लिए बाध्य करती है.

आपने रिश्तों की भीड़ में खोने की बात की है ...सचमुच जीने के लिए हमने सारे रिश्ते खड़े कर लिए हैं,वरना है तो हम सब अकेले ही ..अगर देखा जाये तो सबके मन की एक अपनी दुनिया है जिसमे हम सब अकेले ही रहते हैं, बाकी सब ज़रुरत के ही रिश्ते हैं अगर ये inter-dependence नहीं रहे तो ये जीवन की यात्रा तय करना मुश्किल हो जाए ....सारे रिश्ते हमारे स्वार्थ के हिसाब से ही बनते -बिगड़ते रहते हैं, इसलिए कहते हैं ईश्वर के साथ रिश्ता बनाओ because his love is the only love which is selfless and unconditional.

मुझे इस लेख की सबसे प्यारी बात दो पलकों की बात-चीत लगी That is just terrific..नई बात है उसमे ...मैं इसी तरह की एक बात -चीत आपसे शेयर करना चाहूंगी जो हाफ़िज़ साहेब (A mystic poet)ने की थी - सुबह दम बुलबुल ने नए खिले हुए फूल से कहा,"नाज़ कम कर, इस बाग़ में तुझ जैसे बहुत खिल चुके हैं ". फूल हंस कर बोला ," मैं आपकी बात पर रंज नहीं करता मगर बात ये है की कोई आशिक अपने माशूक से सख्त बात नहीं करता ."

23 मार्च 2011 को 2:21 am बजे
Mahendra Arya ने कहा…

"क्या कोई ऐसी युक्ति या टेक्निक नहीं है जो इक आँख ,दूसरी आखं से मिलकर उसके दर्द को कम कर दे नहीं दोस्त आखें हमेशा साथ साथ रहती तो है पर मिलती कभी नहीं"
--ममता, हमारी दोनों आँखों की स्थिति वैसी ही है जैसी नदी के दो किनारों की होती है , जो हमेशा साथ साथ होकर भी कभी मिल नहीं सकते ; उन्हें मिलाता है वो ढेर सारा पानी जो उनके बीच में बहता है - आंसुओं की तरह .
बहुत सुन्दर आत्म- वार्ता . लिखती रहो !

23 मार्च 2011 को 9:32 am बजे
सूर्य गोयल ने कहा…

ममता जी सबसे पहले तो आपको होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएं. आपकी पोस्ट पढ़ी. सोचा था की पिछली पोस्ट की तरह इस पोस्ट में भी आप खिली-खिली नजर आएँगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पोस्ट पढ़ कर जिंदगी की सच्चाई तो पता लगी लेकिन यह देख ख़ुशी हुई की आपने इस पोस्ट में बहुत कुछ समेटा है. लेकिन दुःख यह पढ़ कर हुआ की होली के पवन पर्व की बात भी करती हो और आंसू की बात भी. बहुत बढ़िया पोस्ट और उससे भी बढ़िया आपका लेखन.

23 मार्च 2011 को 1:33 pm बजे
Patali-The-Village ने कहा…

दर्द और आंसू का इतना प्यारा वर्णन और दो पलकों की बात -चीत बहुत अच्छी लगी |धन्यवाद|

23 मार्च 2011 को 3:54 pm बजे

एक टिप्पणी भेजें