सीने में कुछ -- बहुत -बहुत दुखता है -------------

शुक्रवार, अप्रैल 22 By मनवा , In

पिछले दिनों , मुंबई के इक अपार्टमेन्ट  से इक महिला ने अपने ६ साल के  बेटे के साथ छलांग  लगा कर ख़ुदकुशी  कर ली . जिस समय वो गिरी  , उनके पति महोदय ने शोर सुना  और  ये समझ कर दौड़े की कोई अन्य महिला  कूदी हैं लेकिन जब पास गए तो  पता  चला की वो उनकी बीबी और बेटा ही हैं पति  महोदय  पर क्या  गुजरी ये तो वही जाने  लेकिन भीड़ में से आवाज़े आ रही थी की महिला  पागल  थी जो बच्चे के साथ  कूदी { मतलब  बच्चे के बिना ही कूद जाना  था } कोई कह रहा  था पति परमेश्वर  शक करते थे
बहरहाल ,  जब भी आसपास  इस तरह  की  घटनाएँ  घटती  हैं  कुछ सवालात  मेरे  जहन को परेशान  करने लगते हैं की इक छत  के नीचे रहने वाले , इक कमरे को शेयर करने वाले  अपनी जरुरत के वक्त पास आने वाले इक दूसरे के दुःख से कैसे अनजान रह जाते हैं ?  ख़ुदकुशी  करने वाली महिला उस दिन  अपने रोजमर्रा के कार्यों  को बखूबी  अंजाम देती रही  और मन ही मन अपने अमूल्य  जीवन  को समाप्त  करने  की योजना भी बनाती गयी . खाना  बनाना  घर साफ करना  और सारे  जरुरी काम उसके मशीनी  हाथ  करते गए और कमालये की  किसी को उसने अपने दुःख की भनक  भी नहीं  लगने दी कोई भी स्त्री जब घर संभालती है तो  उसकी मशीनी देह  घर के हर सदस्य की जरुरत के हिसाब  लचीली  होती जाती है कब किसको कहाँ क्या चहिये घर के बुजुर्ग हो या बच्चे  बिन कहे मन की बात समझ जाने  वाली  स्त्री  बरसों बरस तक   समर्पण भाव से  अपने  दायित्व निभाती चली जाती है  और इक समय आने पर वो इक मशीन की तरह   नो  कम्प्लेंड नो डिमांड  की तरह  घर का इक पुर्जा  हो जाती है  जिसकी जरुरत  सभी को  है , लेकिन उसके साथ रहने वाले  ये भूल जाते है की इस मशीन  के अन्दर भी इक दिल धड़कता  है  उसे भी प्यार  स्नेह और आत्मीयता  की  जरुरत  है
आत्म ह्त्या  करने वाली स्त्री  के पति परमेश्वर उस पर शक करते थे  उन्हें  इक चाबी  वाली स्त्री चहिये थी  जो उनके अनुसार जितना वो चाहे  उतना  ही जिए ,उनके  लिए हँसे उनके दुःख में रोये  उनके लिए साँस ले और इक दिन उनके लिए मर जाये  है न ? वो भूल गए की जो स्त्री जो उनकी बीबी है उनके बच्चों की माँ है लेकिन इन सबसे पहले वो इक  इन्सान  भी तो है  उसका , हंसना , खिलखिलाना ,  महकना  उसका  स्वाभिमान उसकी अपनी  जागीर है इन  पर किसी का अधिकार  नहीं और जो  कोई इन्हें चोट पहुंचाए  तो दिल टूटते  हैं और दर्द बहता  है ऐसा  ही कुछ  उस अभागी स्त्री  के साथ भी हुआ होगा
अपनी  जीवन संगनी  के   चेहरे पर उभरते  दर्द से कोई कैसे अन्जान  रह गया  जिस चेहरे  को आप  रोज देखते हो  उन पर पड़ी दर्द की बारीक़  रेखाओं   को कोई क्यों नहीं पढ़  पाता?
इतने बेखबर ,बेकदर  बेपरवाह होकर कोई  कैसे रह सकता है ?  देह को छूते रहे उम्र भर  और मन  की छांह  भी नहीं पा सके  किसी शायर  की पंक्तियाँ  याद आ रही हैं की "जिस्म की बात  नहीं  है  उनके दिल तक जाना  था  लम्बी  दूरी तय करने में वक्त  तो लगता  है "    और जब तक ये  मन  तक की दूरी  तय  नहीं की जायेगी  रिश्ते यूँ ही बिखरते  रहेगे किसी के देह के मालिक होने से पहले उसके मन की  रियासत  तो  जीत  ली  जाए  , कहीं  गहरे में कोई दिल तो नहीं दुःख रहा इसका  ध्यान  रखना  होगा ,
दोस्तों  मेरे इक मित्र  है जो शायर  है  उनकी  लिखी  बहुत सुन्दर लाइने आपसे  शेयर  कर रही हूँ  की
"बहते- बहते रगों में जैसे
खून रुकता है
शर्म से सर खुद्दारी का
पल-पल झुकता है,
तेरी हाँ में हाँ ,ना में ना
चुप में चुप ,लेकिन
सीनेमें कुछ --
बहुत -बहुत  दुखता  है

10 comments:

shri naarh sharmaa sagar se ने कहा…

bahut , kamal ki bat ghar me rahane vali stri hameshaa kaputali ki tarah nachate rahati hai ghar hi kyon bahar jakar kamane vali bhi to natani ki tarah sare ghar kaa bhar uthati hai lekin unake man ka dard koi nahi janataa
tum me har stri ke man ko padhane ki visheshtaa to hai hi , purushon ko bhi tum aaina dikhaati ho aashirvaad likhati raho

22 अप्रैल 2011 को 4:40 pm बजे
रौशन जसवाल विक्षिप्त ने कहा…

बहुत सुन्‍दर। आपके शब्‍दों को पढ़ना सदा ही अच्‍छा लगता है।

22 अप्रैल 2011 को 8:29 pm बजे
ashwinirameshkundl.blogspot.com ने कहा…

ममता जी,
यदि आप स्वयं को दुखी करेंगी तो इससे आपका नुक्सान ही होना वाला है बाकि इससे कोई सुधार अथवा बदलाव की कोई उम्मीद मझे नजर नहीं आती! अच्छाई बुराई सतियुग से चली आ रही है ,आज तो फिर कलियुग है! कबीर के इस दोहे को अमल कीजिये--कबीरा तेरी झोंपड़ी....जो करे सो भरे तू क्यों भयो रे उदास..इसमें इश्वर कबीर को कहते है कि किसी के कर्मो का हिसाब रखना और बुरे कर्मो कि सजा देना तेरा नहीं मेरा कार्य है, इसलिए दुसरे के कर्मो पर तुम क्यों परेशान होते हो, इसको मुझ पर छोड़ दो!फिर औरत ही क्यों पुरुष पर भी तो अन्याय हो सकता है ,अन्याय तो फिर अन्याय है,वह तो किसी पर भी नहीं होना चाहिए चाहे पुरुष हो या स्त्री ,बच्चा हो या बुढा अन्याय तो किसी पर भी नहीं होना चाहिए! इसलिए ये बड़ा जटिल विषय है!हम कर्मो के हिसाब से केवल आज को देखते है, केवल वही देखते हैं जो हमारी आँख देखती है,पर आँख कर्मो का सही हिसाब किताब नहीं जानती!मे आपसे ज्यादा भावुक हूं लेकिन कोरी भावुकता से यथार्थ को नहीं समझा जा सकता!यथार्थ जटिल है,इसलिए मुझे पूरा भरोसा है कि इश्वर अथवा सत्य मे न्याय करने की पूरी शक्ति है जिसे हम नहीं देख सकते!

23 अप्रैल 2011 को 10:27 pm बजे
neha ने कहा…

kya baat hai , mamta ji
very nice!

24 अप्रैल 2011 को 7:54 pm बजे
मनवा ने कहा…

अश्वनी जी ,आपका शुक्रियां -मैं ये कभी नहीं कहती की अन्याय सिर्फ महिलाओं पर ही होते हैं ,जहां जिसका जैसा दांव लगता है सामने वाला हावी हो जाता है दुःख तो रिश्तें टूटने का होता है , हम किसी को कोई भी रिश्तें में बांधने से पहले ये जरुर समझ ले की , वो सबसे पहले इक इन्सान है कल सुप्रीम कोर्ट ने अपने इक अहम् फेसले में कवि इलियट की ये पंक्तियाँ कोड की " रिश्तें ऊपर आसमानों में तय होते हैं और धरती पर जोड़े जाते हैं " लेकिन जज महोदय ने दुखी होकर कहा की यहाँ धरती पर आकर इन रिश्तों को क्या हो जाता है ? मेरा सवाल भी यही है ? आपका धन्यवाद यहाँ तक आने के लिए

24 अप्रैल 2011 को 8:47 pm बजे
Nina Sinha ने कहा…

फिर से रिश्ते की नाजुकता को समझने की आपकी ये कोशिश. आपका ये पोस्ट आज की stressful दुनिया का एक reflection है. ऐसी कितनी कहानियां हैं जो रोज घटती रहती हैं. ये कैसी विडम्बना है कि एक तरफ दुनिया की आबादी के बढ़ने का रोना है और दूसरी तरफ सबके साथ रह कर भी अकेले होने का एहसास. जो भी औरतें, बच्चों के साथ suicideकरती है, कई बार उनकी मानसिकता अपने spouse को ज़िन्दगी भर पीड़ा देने की होती है . वो सोचती हैं वो अकेले जाएँगी तो husband कुछ दिन मातम मना कर दूसरी शादी कर लेगा, पर अगर बच्चे के साथ जायेंगे तो ये पीड़ा उन्हें हमेशा याद रहेगी. वो भूल जाती हैं कि पीड़ा की उम्र बहुत लम्बी नहीं होती. सबसे पहले तो मैं कहूँगी औरतों को अपनी ख़ुशी के लिए दूसरों का मुंह देखना बंद करना चाहिए. शादी जैसे रिश्ते में प्यार ढूँढना एक रूमानी ख्याल है..ये मैं नहीं कहती , marriage counsellors कहते हैं . हर इंसान को अपनी ज़िन्दगी और अपनी ख़ुशी की ज़िम्मेदारी खुद लेनी होगी, वरना दूसरे लोग आपके emotion के साथ यूँ ही खिलवाड़ करते रहेंगे . मुझे पता है, ये मुश्किल बात है, पर अपने कीमती जीवन को एक ऐसे आदमी के लिए ख़त्म कर देना, जिसने कभी आपकी परवाह ही नहीं की - मुझे न्यायसंगत नहीं लगता.ज़िन्दगी कभी भी परफेक्ट नहीं होती, ज़िन्दगी आपके सपनों जैसी भी नहीं होती, ज़िन्दगी जैसी है, बस है - उसे सही दिशा देना ही हम सब की कोशिश होनी चाहिए. मौत से सिर्फ मरने वाले का ही नुक्सान होता है . उसने एक खूबसूरत ज़िन्दगी यूँ ही समाप्त कर दी. औरतो के सपने बहुत बड़े नहीं होते . हमेशा अपने पति और बच्चों के इर्द-गिर्द ही घूमते रहते हैं फिर भी पता नहीं ये एक ऐसा सपना बन जाता है , जो कभी-कभी जानलेवा भी हो जाता है.

आपने लिखा है एक छत के नीचे रह कर भी लोग कैसे एक दूसरे के दर्द को नहीं पढ़ पाते . बात तो बिलकुल सही है. मुझे नहीं मालूम इस particular कहानी में twist क्या था . पर आम तौर पर आज कल सभी परेशान हैं. पत्नी को पति से प्यार न पाने की परेशानी. पति को नौकरी बचाने या घर चलाने की परेशानी.. पत्नी के लिए प्रेम primaryऔर पति के लिए काम primary. So clash of interest तो होगा ही . ममता, आपका पोस्ट बहुत ही बढ़िया है, मैंने सिर्फ कुछ उत्तर तलाशने की कोशिश की है, जो सही भी हो सकता ही और अर्थहीन भी.

25 अप्रैल 2011 को 8:55 am बजे
Ashwini Ramesh ने कहा…

Mamta Jee,
Thank you for replying back(Ref.24th April,2011, afternoon). I do observe and feel that I have reached at issuch a stage of conscienceness , where with the grace of truth, I know that everything on this world or Universe is commanded by laws of nature or the truth.Thus who can be the best judge or the ultimate judge for delivering the right justice except the truth or say the laws of nature.If you are breathing, it is due to laws of nature and not due to mind. Mind and senses has a very limited sphere,i.e. mind can'nt go beyond senses. you can'nt see beyond a wall, when you can'nt see, you also can'nt know what is happening, beyond a wall.Thus how the finite mind can know about the infinite conscience or the soul. to know unlimited through the limited is just like beating behind the bush.Thus only the laws of nature or the truth is capable and competent to deliver the justicei.e.what should be called justice in the real sense of the term. Thus what an individual can do is that he should constantly, endeavour for purification of his own karma without expecting anyone else to follow or listen to him. It is because expectations always lead to frustration. Thus one should not fall in big idealism or utopian ideas but only should stress to purify his own Karma through the real tests of truth. To tell you, Iam such a man who can'nt harm or injure even a insect and what to talk of humans.You only talk of humans and not beyond that. one should naturally be compationate to all the living creaturesi.e.animals ,birds insects and even plants etc.but you dont say anything about them. To tell you frankly these creatures ,animals and plants are more selfless tha the selfish human beings.
Thus purity of one's own Karma should stressed only i.e. to be lived-Kabeer says: " bura jo dekhan me chala bura naa miliya koye, jo dil khoja aapna mujhsa bura naa koye"- Let me be clear to know the truth, one needs to go a lot of penancei.e. kashtas. To tell you I dont believe in appreciation for the sake of appreciation only as others do. but I truly point out the things as the should be pointed out.

1 मई 2011 को 11:47 pm बजे
सूर्य गोयल ने कहा…

आपके ब्लॉग पर अब तक की सबसे अच्छी पोस्ट कहूँ तो शायद गलत नहीं होगा. स्त्री और पुरुष पर लिखी यह पोस्ट वाकई आज की सच्चाई है. अपने विचारो को इतना सुन्दर लेखन प्रदान करने पर शुक्रिया.

21 मई 2011 को 3:51 pm बजे

एक टिप्पणी भेजें