जब जलने लगे जंगल खुद , अपनी ही छाँव से --

मंगलवार, मई 3 By मनवा , In

दोस्तों ,आज आप जरुर हैरान हैं पोस्ट का शीर्षक  पढ़कर  है ना ? आप कहेगे जंगलों को जलते तो सुना था , लेकिन ये कैसी अजीब  बात है की जंगल खुद जलने  लगे| अपनी ही छाँव  से |ये तो वही बात हुई की सागर शिकायत करे की वो प्यासा  है |जिस सागर में  दुनियाँ जहान की मीठी  नदियाँ आकर मिलती हैं | वो भला कैसे  प्यासा हो गया ? इसीतरह ,  जो जंगल मनुहार कर- कर के सावन को बुलाते  हैं, और धरती की प्यास बुझाते हैं |जो अपने  हरे भरे वृक्षों की छाँव में पंथियों और पंछियों  को आश्रय  देते हैं | वो जंगल उसी छाँव  में  कैसे जलने लगते  है ?
दोस्तों , ये क्यों जलते है ? इसका जवाब  मैं खोजने ही जा  रही थी , की मुझे चाँद , सूरज , पहाड़ , नदी , सावन  और सागर  ने आवाज  दी और  अपनी व्यथा  कह सुनाई |
जो मैं आपसे  शेयर करती हूँ | दोस्तों दरअसल सभी के अपने -अपने दुःख और अपने- अपने सुख  हैं | जंगल में भटकते हुए हिरन जिस खुशबूं  से  परेशान है | वो उसी की कस्तूरी  है उसे कौन बताये  ? चाँद , जो हमेशा से सुन्दरता और प्रेम का प्रतीक बना  बैठा है | उसके पास  दर्द के गहरे स्याह  गड्डे है जिसे कोई प्रेमी देख  नहीं पाता| सूरज की अपनी पीड़ा  है | सारे ब्रम्हांड का स्वामी | जो समूची  धरती को जीवन देता है  | उसकी उष्मा , और तपिश  इतनी की कोई  समीप  जाना  ही नहीं  चाहता | सूरज अकेले ही जलता  रहता है कोई उसके संग नहीं क्यों ? सावन  के अपने दुःख की धरती की प्यास बुझाते बुझाते वो कितना  प्यासा हो गया | कोई नहीं जानता क्यों ? धरती के अपने प्रश्न की सदियों से सहते सहते थक गयी  | उसके पुत्र  माँ -माँ  कह कर उसे उलीचते रहे और किसी ने भी सीने पर पड़ी  दरारों  को नहीं गिना क्यों ?
आकाश  का  अपना  सूनापन  अलग है -कोई तारे उधार ले गया | कोई चाँद मांग के ले गया | कोई आया  तो मेघ चुरा ले गया  तो कोई काली  घटा को छीन के ले गया  | आकाश  फिर  खाली  हो गया क्यों ?
दोस्तों , हमारे जीवन में भी तो यही होता हैं ना | दुनियाँ के लिए  जीने वाले ,दुनिया के दर्द को गले लगाने  वाले | दुनियाँ केलिए  बहने वाले , महकने वाले , खिलने वाले , खुशबू बिखेरने वाले | रोने वालों को अपना  कंधा  देने वाले |दूसरों  के आसूं  पोछने  वाले | दूसरों के जीवन के उलझे हुए धागों को सुलझाने वाले |क्यों इकरोज  उदास होजाते हैं दुखी होजाते हैं ?  ये जंगल खुद अपनी छाँव  में क्यों जलने लगते हैं ?
दोस्तों , मैं बताती हूँ |  रूह तो उनकी भी होती है ना जो दूसरे को रूहानी सुकून देते है | प्यास तो उनकी भी होती है ना जो दूसरों को सावन देते हैं | सागर भी तो ,चाहता है की कोई मीठी गागर उसके खारेपन को ख़तम कर दे | कोई घटा  आकाश  के सूनेपन को भर दे | तो चलिए ना  किसी सागर की गागर बन जाए | किसी आकाश की  घटा | किसी धरती के सूखे  टुकड़े पर चलो कोई सावन  रख दें |चलिए ये पंक्तियाँ  सुनिए
"बादलों का नाम ना हो ,अम्बरों के गाँव में
जलता हो जंगल खुद अपनी छाँव में
यही तो है मौसम , आओ तुम और हम
बारिश के नगमे गुनगुनाएं
थोड़ा सा  रूमानी हो जाएँ "
दर्द को बांसुरी  बनाए "
तो, दोस्तों चलिए  दर्द को अबकी बार बांसुरीं  बना ले .| किसी जंगल को छावं  में जलने से बचा ले |

3 comments:

KHABARYAAR ने कहा…

खबरयार के मारफत आप के लेखों को पढ़कर पाठकगढ़ अत्यंत प्रभावित हुए हैं। आप को मिलने देखने की चाहत रखने वालों की संतुष्टि हेतु अपना एक छाया चित्र ई.मेल द्वारा षीघ्र भेजने के साथ ही, फोन से संपर्क करने का कष्ट करें।
संपादक.खबरयार

4 मई 2011 को 11:43 am बजे
sangeetaa ने कहा…

mamta , aaj tumhaari post me gaharaa darshan hai | bahut gaharaai , samajhane ki bat hai sirf padh kar bhulane k liye nahi hai ye post | or sabase badi baat to ye ki tum itani kan umar me aesi bate kaise kar leti ho ? tumhe suna abahut hai par padhane ka apanaa alag aanand hai aashirvaad hameshaa khush raho rumaani raho

4 मई 2011 को 12:15 pm बजे

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