क्या कभी खुद से इश्क किया ?
अक्सर लोग जब रिश्तों और सम्बन्धों पे चर्चा करते हैं तो खूब शिकायत करते हैं कि फलां व्यक्ति को उसने बहुत प्रेम किया ,उसके साथ बहुत समय नष्ट किया ,मंहगे तोहफे दिए , कोई फायदा नहीं हुआ ,( गोया किसी फायदे के लिए प्रेम किया हो )या कि सब बेकार की बातें है कभी किसी से प्रेम नहीं करना चाहिए सब धोखे बाज होते हैं ...कोई किसी का नहीं आदि आदि कुछेक महिलायें खुद से ही प्रेम करने की सलाह देती दिखाई देती है की दुनिया के सभी पुरुष बहुत बुरे हैं इसलिए खुद से प्रेम करो और खुश रहो । तो कहीं पुरुष कहते हैं सभी महिलायें बहुत चालाक और फरेबी हैं उनसे बचो खुद में खुश रहो ....क्या सिर्फ खुद से प्रेम किया जा सकता है ? आत्मकेंद्रित या आत्ममुग्ध होकर भी आप क्या खुश रह पाते हैं ? सबसे ज्यादा कुंठित तो आत्ममुग्ध लोग ही होते हैं और एक दिन अपनी कुंठाओं में डूब जाते हैं । ये आत्ममुग्ध कभी किसी से प्रेम नहीं कर पाते खुद तो मरते ही हैं साथ ही प्रेम की हत्या भी करते हैं । मेरी एक मित्र हैं उनसे जब मिली तो उन्होंने बड़ी शान से मुझे कुछ तोहफे दिखाए जो उनके नए प्रेमी ने दिए थे और वो तोहफे भी भी दिखाए जो उन्होंने पिछले प्रेमी से वापस मांग लिए थे (रिश्ता टूटने के बाद ..) यानी वस्तुओं के लेन - देन का रिश्ता हुआ प्रेम कहाँ हुआ ? अगर प्रेम था तो वो खतम कैसे हो गया ? कोई आपके बनाये सांचे में नहीं ढला तो खतम प्रेम ? कोई बिलकुल आपके जैसा नहीं हो सका तो रिश्ता खतम ? एक और उदाहरण दूँ एक पुरुष मित्र हैं जो अक्सर कहते हैं प्रेम तो कर ले लेकिन उससे क्या लाभ ? हम तो खुद से प्रेम करते है खुद के लिए जीते हैं मैंने पूछा फिर इतने दुखी क्यों हो ? जब खुद से प्रेम है तो खुश रहो न , चेहरे पर मुस्कान क्यों नहीं ? आखों में से प्रेम क्यों नहीं झांकता ? हमेशा डरे हुए क्यों हो ? अशांत क्यों है मन , आनन्द क्यों नहीं जीवन में , और वो प्रेम मदीरा की खुमारी कहाँ है ? वो मित्र चुप थे कोई जबाव नहीं था उनके पास ......जब खुद ही रीते हो अन्दर से तो दूसरे को क्या देंगे आप ? फिर लोग मंहगी वस्तुओं का लेन -देन करके प्रेम की कमी को पूरा करने लगते हैं । खुश होते हैं और वस्तुओं में प्रेम खोजने लगते हैं और कहते हैं देखो हम कितना प्रेम करते हैं एक दूजे से कोई किसी को कार या बंगला गिफ्ट करता है कोई किसी को हीरे -मोती लेकिन हीरा तो बना रहा ,सदा के लिए लेकिन प्रेम का अता पता नहीं ...
सच्ची बात तो ये है कि लोग जानते ही नहीं कि खुद से प्रेम करने का क्या मतलब है । खुद से प्रेम करना यानी खुद को समझ लेना , खुद को जान लेना , खुद को बतला देना कि मुझे ये पसंद है । मुझे इसकी चाह है और मैं इसे चाह कर खुश हूँ । हम जब किसी को दुःख देते हैं तो उससे ज्यादा खुद दुखी होते हैं इसके उलट हम जब किसी को प्रेम करते हैं तो उससे ज्यादा खुद सुखी होते हैं । हम प्रेम अपने लिए करते हैं , हमें कोई पसंद है हमें कोई भाता है , हम किसी को सोचते हैं , याद करते हैं और खुश हो लेते है । हमने प्रेम कर लिया तो कर लिया बात खतम हुई न , ये हमारा प्रेम है सम्पूर्ण रूप से ।
अब दूसरा करे न करे , प्रतिदान दे न दे ये उसकी समस्या है हमारी नहीं , हमारे मन को ख़ुशी मिली किसी को चाह कर , याद करके तो हम डूबेंगे आनन्द में दूसरा न डूबे तो ये उसकी समस्या है । प्रेम हमारे मन में खिला , चन्दन हमारे मन में महका आप उसे महसूस करिए न , आप सुगंध से भर जाए ना की इस चिंता में कुंठित हो जाए कि वो अभी कहाँ होगा , किसके साथ होगा , मुझे याद करता है या नहीं प्यार करता भी है या नहीं ..इन बेकार के सवालों के कोई जवाब नहीं मिलते कभी । उलटे आपके रिश्ते खराब होते हैं , प्रेम को समझने से पहले खुद को समझना होगा हम क्या चाहते है ?
हाँ , प्रेम एक व्यक्ति करता है दूसरा तो उसकी चमक से चमकता है बस ,,,,,चम्पा कहीं ओर खिलती है लेकिन उसकी खुशबु से कहीं दूर बहुत दूर कोई बौराता है । प्रेम के अपने रहस्य हैं ये , शक्ति है ये प्रेम की ,इसे समझना होगा । हम जब खुद को प्रेम से भर लेते हैं तो हम प्रेम-पुंज हो जाते हैं , प्रेम के चुम्बक भी ... , निस्वार्थ भाव से जब सांसों की माला पे किसी का नाम सिमरा जाता है तो , इस हौले-हौले चलने वाले मनकों की गति से दूर बहुत दूर कोई चिड़िया पंख फड़ फडाने लगती होगी यक़ीनन ये सब खुद से प्रेम के नतीजे हैं ।
हमें अपने भीतर जो सबसे अच्छा गुण लगता है हमें उस गुण से प्रेम करना चाहिए । यदि आपको लोगों से प्रेम से बातें करना पसंद हैं , उनकी मदद करना या उनके दुःख दर्द सुनना तो गर्व कीजिये अपने इस गुण पर , अपने किये पर कभी अफ़सोस मत कीजिये । हमारे पास जो था हमने दे दिया , कोई नहीं लौटाए तो ये उसकी समस्या है आपकी नहीं । हमें हमारा प्रेम कलश हमेशा भरे रखना चाहिए ,जब भर जाये तो उसे मुस्काते हुए छलकाना होगा । आइने में खुद को देख मुस्काना सीखना होगा ।
याद रहे , जब तक खुद के प्रति प्रेम से नहीं भरेगे दूसरों से कभी प्रेम नहीं कर सकेगे । भीतर बहुत भीतर से झरने फूटेंगे तभी बाहर हरियाली होगी । शुरुआत बूंद जैसी छोटी ही क्यों न हो , लेकिन हो तो सही ..ये भी चलेगा ।
यहाँ ओशो की कही बहुत सुन्दर बात साझा कर रही हूँ वो कहते हैं "अमेजन दुनिया की सबसे बड़ी नदी है लेकिन जहां से वह निकलती है वहां एक -एक बूंद टपकती है। दो बूंदों के बीच बीस सेकंड का फासला होता है ,लेकिन वह एक -एक बूंद गिर -गिर कर अमेजन जैसी विशाल नदी बन जाती है , इतनी विशाल की सागर में जब समाने जाती है तो सागर भी हैरान हो जाता होगा उसे देख कर की ये नदी है या सागर ? "
सच तो है , प्रेम भी तो ऐसे ही शुरू होता है बूंद -बूंद से और कैसे गहरा हो जाता है सागर सा ...व्यक्ति व्यक्ति से और एक दिन हम "समस्त " से प्रेम करने लगते हैं । प्रेम इतना अनंत है कि एक व्यक्ति उसे सम्भाल ही नहीं सकता घबरा जाता है , भय खाने लगता है , डूब जाता है और प्रेम उसे डूबा कर फिर आगे बढ़ जाता है वो अब प्रार्थना बन जाता है । प्रेम कभी किसी एक व्यक्ति पर नहीं टिकता वो फैलता है , मरता नहीं लेकिन अपने रूप बदलता रहता है । जो प्रेम कर रहा है वो रहे न रहे , जिसे प्रेम किया जा रहा है वो रहे न रहे लेकिन प्रेम फिर भी रहता है हमेशा ..हर हाल में । हमारी कोशिश होनी चाहिए कि प्रेम बना रहे , एक बहुत सुन्दर कहानी आपको बताती हूँ ।
बुद्ध का अंतिम दिन था , जिस दिन वे भोजन करने इक बहुत गरीब लुहार के यहाँ गए, लुहार अत्यंत गरीब था उसके पास बुद्ध को खिलाने के लिए कुछ नहीं था बरसात में लकड़ियों पर उगने वाली छतरी नुमा कुकरमुत्ते की सब्जी बड़े प्रेम से बना लाया । जहर से ज्यादा कड़वी सब्जी खाते रहे बुद्ध , वो पूछता रहा कैसी लगी ? बुद्ध मुस्काये तो उसने और सब्जी थाली में डाल दी ..उसका प्रेम देख बुद्ध मुस्काते थे और पूरी सब्जी खा गए । देह में जहर फ़ैल गया चिकित्सक बोले आप जानते थे सब फिर भी उस लुहार को रोका क्यों नहीं ? बुद्ध मुस्काये और बोले -मौत तो एक दिन आनी ही थी , मौत के लिए प्रेम को कैसे रोक देता ? मैंने प्रेम को आने दिया -प्रेम को होने दिया मौत को स्वीकार किया , हानि कुछ ज्यादा नहीं -कल परसों में मरना ही था लेकिन प्रेम की कीमत पर जीवन को कैसे नहीं बचा सकता हूँ ।
ऐसा ही होता है प्रेम ,आप प्रेमवश होकर जहर पी जाते हैं , खुद दुःख उठाते हैं लेकिन प्रेम को होने देते हैं । प्रेम को खोजने आपको कहीं जाने की जरुरत नहीं होती आपको खुद के भीतर झांकना होता है । हम सभी के भीतर हमेशा प्रेम कलश भरा होता है । उसे बस प्रेम से छूने की देर होती है वो छलकने लगता है । जब भी कोई प्रेम से पुकारता है , मन को छूता है हमारा प्रेम कलश भर -भर जाता है लेकिन अक्सर हम उस कलश के ऊपर भय,शंकाओं पूर्वाग्रहों और संदेहों के ताले जड़ देते हैं । जैसे उन्मुक्त झरने के ऊपर भारी पत्थर रख दिया हो ..लेकिन भीतर बहुत भीतर फिर भी प्रेम बहता है चुप -चुप से । उसे बहने दीजिये , ऊपर आने दीजिये रोकिए मत .., टोकिए मत ..छलकने दीजिये उसे , बना रहे प्रेम जीवित रहे हर हाल में , लेकिन पहली शर्त है खुद से हो प्रेम , खुद से हो इश्क , खुद को प्रेम से भर लीजिये फिर दूसरे से प्रेम कीजिये । क्या कभी खुद से इश्क किया ?
2 comments:
बहुत सुंदर आलेख
fir se ek baar behatreen prastuti....
एक टिप्पणी भेजें