ये छैंया पायेगा कहाँ ?
किसी गाँव में एक घना नीम का पेड़ था , जो हर आने -जाने वाले मुसाफिरों को घनी छाँव देता था । उसके पास कड़वी पत्त्तियाँ थी तो मीठी निबौली भी थी। उसकी शाखों पे बहुत से पंछी अपना बसेरा किये हुए थे । अपनी जमीन पे खुद -ब -खुद ऊगा वो पेड़ हवा के साथ हँसता और झूमता था और अपनी छाँव में बैठने का आग्रह किया करता था । एक बार एक हाथी वहां से गुजरा और जरा देर नीम के पेड़ के पास ठहरा , दोनों में बातें हुई , पेड़ की अपनी भाषा और संकेत थे हाथी की अपनी भाषा और आवाज थी , पेड़ एक जगह पे टिके रहने को अभिशप्त था और हाथी अपनी मन मर्जी का मालिक था । बहरहाल दोनों मित्र बन गए , वो न जाने कैसे एक दूजे की भाषा और संकेत समझ लेते थे इस तरह वो पल -पल गहरे मित्र हो गए । एक दिन हाथी ने कहा , मित्र ऐसा लगता है जैसे हमें एक दूजे की आदत हो गयी है नीम मुस्काया बोला आदत नहीं जरुरत है हम एकदूजे की । हाथी बोल पड़ा नहीं- नहीं जरुरत तो नहीं हो तुम मेरी ,बस एक आदत मात्र हो ,अच्छा बताओ कितनी गहरी दोस्ती है हमारी ? नीम बोला मेरी जड़ें जहां तक जाती है वहां तक और मेरे भीतर जो हरा क्लोरोफिल बहता है उसमे तुम ही बहते हो, ठीक जैसे तुम्हारे रक्त के साथ मैं तुम्हारे भीतर बहता हूँ ।
हाथी बोला मित्र मैं देखना चाहता हूँ की हमारी मित्रता कितनी गहरी है जानना चाहता हूँ कि क्या वाकई कोई पेड़ मुझे इतना प्रेम कर सकता है । तुम्हारी बात मैं कैसे मानूँ ? मैं बिना तर्क के किसी भी बात को नहीं मानता , तुम्हारी बातें काल्पनिक और मनगढ़ंत भी तो हो सकती हैं । दोनों के बीच बहस हुई और हाथी ने अपने मद में आकर , क्रोध में आकर , रोष में भर कर उस घने पेड़ को एक झटके में जड़ों से उखाड़ दिया । पेड़ बेबसी से मुस्काया और धडाम से जमीन पे गिर कर मर गया । हाथी ने देखा नीम की जड़े बहुत गहरी थी और उसमे से हरे- हरे आसूं बहते थे पेड़ तो मर गया था लेकिन उसकी पत्तियों का हरापन बहुत दिनों तक बना रहा हाथी अब भी उसके पास रुकता था लेकिन वो छाँव नहीं मिलती थी । वो खुशबु नहीं उठती थी , वो मिठास नहीं थी अब ,,,हाथी अब भी उसी जंगल में भटकता है घने पेड़ -पौधे भी उसे खूब मिलते हैं । लेकिन नीम जैसी छाँव उसे नहीं मिलती । उस जंगल के जीव कहते हैं की गर्मियों के दिनों में हाथी मदमस्त हो जाते हैं पेड़ उखाड़ना उनका स्वभाव होता है इसमे हाथियों का दोष नहीं होता ...और रही बात घने नीम के पेड़ की तो , नीम की क्या बिसात ..हजारों पेड़ है जंगल में एक पेड़ मर जाने से जंगल नहीं मरते ...लेकिन नीम की सूखी हरी पत्तियाँ अब भी कहती हैं यक़ीनन एक पेड़ के मर जाने से जंगल नहीं मरते लेकिन एक रिश्ते के मर जाने से मन मरते हैं । मन का हिस्सा बंजर होता है , रसायनों का कभी कुछ नहीं बिगड़ता लेकिन मन के जिस हिस्से पे गिरते हैं वो फिर कभी हरा नहीं होता ।
ये तो एक कहानी थी , असल जिन्दगी में हम भी तो यही करते हैं न ,रिश्तों की गहराई नापने के लिए उन्हें तोड़ते हैं मरोड़ते हैं या जड़ से ही उखाड़ डालते हैं । रिश्ता बना नहीं कि परखने लगे , आजमाने लगे , गहराई नापने लगे जैसे कोई छोटा बच्चा किसी खिलौने से खेल -खेल के थक जाए और फिर उस तोड़ के देखे की ये इतना सुन्दर कैसे बना ? ये कैसे बजता है ? कुछ समझ नहीं आता तो जोर से जमीन पे पटक देता है । खिलौना तो टूट कर फिर भी नया आ जाता है लेकिन रिश्ते .....? जड़ से उखाड़ा हुआ पेड़ ...? दोबारा कैसे हरा हो ? और इससे भी दुखद बात ये कि हम अपनी इस गलती को , अपनी इस तोड़ने की प्रवृत्ति को अपनी गलती मानते ही नहीं । ऐसे बहुत से लोग हैं जो अपने इस तरह के व्यवहार पे बिलकुल शर्मिन्दा नहीं होते , उलटे वो समाज से ये अपेक्षा करते हैं की लोग उन्हें माफ़ करे , उन्हें समझे , उनके इस व्यवहार के लिए उनका नहीं उन परिस्थितियों का दोष है जो उस समय मौजूद थी । अक्सर लोग अपने बुरे व्यवहार का ठीकरा हालातों के सर फोड़ते हैं और हमेशा बड़ी चतुराई से बच निकलते हैं ।
इस सोच का इस नजरिये का क्या मनोविज्ञान है ? ज़रा इसे समझे तो पाएंगे कि जिन परिस्थितियों में हमारा विकास हुआ या हम जीते आयें हैं हम उनके अनुकूल हो जाते हैं और आसानी से उनसे निकलना हो नहीं पाता । जो लोग खुद को निर्दोष बताते हैं या अपने व्यवहार से अपनी समझ से अपनी सोच से खुद को सही साबित करते हैं । वो कभी अपनी किसी गलती के लिए खुद को जिम्मेदार नहीं मानते हैं । उनका तर्क होता है कि जिम्मेदार मैं नहीं मेरी परिस्थतियाँ हैं । परिवेश जिम्मेदार है जिसमे मैं संघर्ष कर रहा हूँ । जूझ रहा हूँ ।
अब सोचने वाली बात ये है कि अगर व्यक्ति परिवेश की उपज है तो हमें बेहतर व्यक्ति बनाने से पहले बेहतर परिवेश का निर्माण करना होगा । इसी बिंदु से जिम्मेदारी की बात शुरू होती है जो लोग खुद को जिम्मेदारियों से बरी रखते हैं और सपना देखते हैं उम्मीद करते हैं कि एक बेहतर परिवेश होगा चाहिए उन्हें चाहिए की वो पहले खुद के व्यवहार का आंकलन करें अपने व्यवहार , विचार और भावों पे नियंत्रण रखे । सब कुछ जान समझ के भी लोग यदि बदलाब नहीं ला पाते तो ये उनकी चालाकी ही कही जाएगी ।
उदाहरण के लिए , यदि कोई अपराधी , अपराध करे और समाज से उम्मीद करे की वो उसे निर्दोष माने क्योकिं वो नहीं उसका परिवेश जिम्मेदार था । लोग अगर अहंकारी है , क्रोधी हैं , कटु वचन बोलते हैं। , लोगों का अपमान करते हैं, ह्त्या करते हैं ,तो इसमे परिवेश क्यों कर जिम्मेदार हैं ?
फिर उसी कथा का जिक्र करूँ कि ..क्यों कोई किसी घने पेड़ को जड़ से उखाड़ देता है , जब हमने उसे कभी सींचा नहीं , देखभाल नहीं की ,आंधी तूफ़ान , धूप से नहीं बचाया तो उसे जड़ से उखाड़ने का हक़ हमें किसने दिया । ये अपराध तो अक्षम्य हैं । फिर क्या किया जाये ऐसे अपराधियों के साथ ? समाज की कसौटियों पे कस के यह तय कर लिया जाये कि क्या गलत और क्या सही और फिर सजा देकर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो लिया जाए । लेकिन इससे समस्या वहीँ के वहीँ रहेगी वो हर रोज एक रिश्ता तोड़ेगा और हर रोज एक पेड़ को नष्ट करेगा उखाडेगा,और अंततः एक दिन खुद भी नष्ट हो जायेगा ।
या फिर उसे एक और मौका दिया जाये उसके स्वभाव का उसके चारित्रिक गुणों का विश्लेषण किया जाये उसे समझने की कोशिश की जाये और उसे समझाया जाए । वो अपने कम्फर्ट जोन में अकेला है और उसके पास उसकी इस दशा के अपने सैद्धांतिक तर्क भी हैं , बदलाव उसके लिए बहुत पीड़ादायक हो सकते हैं लेकिन जो बदलाव पसंद करते हैं , चुनौतियों को जो स्वीकार करते हैं सफल भी वही लोग होते हैं ।
अब आखरी बात उन लोगों के लिए जो खुद को हमेशा निर्दोष मानते हैं , बदलाव स्वीकार नहीं करते , रिश्तों को परखने के फेर में उन्हें नष्ट कर देते हैं , बाहरी दुनिया के सामने खुद को ऊँचा और श्रेष्ट दिखाने के मद में आकर नीम के पेड़ से घने रिश्तों को जड़ से उखाड़ फेंकते हैं । ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि छाँव कभी चल कर आपके पास नहीं आती , छाँव के पास आपको खुद जाना होता है । छांया-दार पेड़ आपके लिए छाँव उगाते हैं , खुशबु महकाते हैं , आपकी उदासी को मुस्कान में बदलने का बंदोबस्त करते हैं और आपकी थकन को सुकून में बदलने का हुनर जानते हैं । ऐसे पेड़ या ऐसे रिश्तों को नष्ट करके आप तमाम संभावनाओं को भी नष्ट कर डालते हैं । कोई गुंजाइश नहीं छोड़ते ।
हम घने पेड़ और गहरे रिश्तों को नष्ट करने के बाद , अपनी सुविधा , सुख और जरुरत के बोनसाई उगाने लगते हैं जिन्हें हम जब -तब उपयोग में लाते हैं । ये प्लास्टिक के गमलों में लगे बोन्साई हमारी आखों को सुकून दे सकते हैं लेकिन हमारी रूह को सुकून , उस घने पेड़ की छाँव में ही मिलेगा । याद रखिये पेड़ की छाँव और रिश्तों की आंच हमारी आदत नहीं हमारी जरुरत है । पेड़ से हमारा छाँव का , यादों का ....मुलाकातों का रिश्ता होता है , खुशबु का भी ....हरेपन का भी ...अब जब भी कोई पेड़ उखाड़ने जाए या कोई रिश्ता तोड़ने जाये तो सौ बार सोचे कि ये छैंया पायेगा कहाँ ?
2 comments:
सुन्दर
जो जीने की कला जानते हैं वे चालाकी नहीं करते क्योंकि वे भली - भॉति जानते हैं कि चालाकी करने वाले कभी भी सुख नहीं पा सकते , सुख वही पा सकते हैं जो सहज - सरल और निर्विकार होते हैं । सुख,दुख और समाधि इन तीनों का कारण मन ही है ।
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