हम कई सदियों तक तुझे घूम कर देखा करते "

मंगलवार, सितंबर 21 By मनवा , In

पिछले दिनों "  मुझको भी तरकीब  सिखा दे यार  जुलाहे -----" वाली  पोस्ट पर  कोलकाता से इक मित्र  का मेल आया  वे बड़े ही सहज भाव से पूछती हैं की कहाँ  मिलेगा वो जुलाहा ?  ऐसा लगा की हम में से हर किसी को उस जुलाहे की तलाश है जो हमें रिश्तें सहेजने की तरकीब  सिखा दे लेकिन दोस्तों  क्या सही में हम से हर कोई रिश्तों को सहेजना चाहता है? कितने लोग है जो सचमुच रिश्तों को टूटने से बचाना चाहते हैं ?  कितने लोग है जो अपनो के खो जाने से डरते हैं ? बहुत कम , बहुत ही कम है ऐसे लोग--- या यूँ कहूँ की कुछ ही लोगो को  लगता  है ये रोग
दोस्तों जिन्हें ये रोग है वो सिर्फ भाव में बहते हैं , प्रेम में जीते हैं और दर्द के सागर में डूबते उतरते  रहते हैं , अहसासों के यादों के वियाबनों में जुगनू की तरह खुद को जलाके रौशनी करते रहते हैं
ये वो लोग है जो हाथ छूट----       जाने पर भी रिश्तों के अहसासों से खुद को अलग नहीं कर पाते इनकी वक्त की शाख से लम्हें हमेशा चिपके रहते हैं मुझे तो लगता है की इक अलग ही दुनिया के प्राणी है  ये लोग समय से परे है इनकी सोच इनकी दुनिया , तभी तो इस समझदार दुनिया के समझदार होशियार और चतुर लोग  इन्हें  मनो रोगी कहते है  दीवाना  करार देते हैं  स्वार्थी , मतलबी और अवसरवादियों की दुनिया में रिश्तों की कोई अहमियत नहीं होती वे हमेशा अपनी सुविधा , लाभ और  जरुरत के हिसाब से रिश्तों की उम्र तय करते हैं जब तक आप उन्हें लाभ पहुचातें है रिश्ता  जीवित है जरुरत ख़तम ,  तो रिश्ता भी ख़तम
अब आप जिन्दगी भर उस मुसाफिर की  राह देखते रहिये , जो अपने कदमों के निशान तक नहीं छोड़ गया , और आप है की उसका उसका पीछा करते - करते खुद को ख़तम किये जाते है ऐसे दरिया क पीछा सदियों तक आप करते हैं की " बह रही है तेरे  जानिब ही मेरे पैरोंकी जमीं थक गए दौड़ते दरियाओं का पीछा करते करते आपके  दौड़ने , आपके थकने आपके पैरों के  छाले फूटने का दर्द उसे नहीं होता उस मुसाफिर ने तो पलट कर इक बार भी नहीं देखा और आप है की उसके अहसासों का बोझ  उठाये फिरते है
दोस्तों कभी कभी सोचती हूँ  जिन लोगो को किसी के अहसास नहीं छूते किसी के भाव नहीं पिघलाते     जिन पर किसी की आहों का असर नहीं होता जिनकी आखों में किसी के लिए  आसूं नहीं उमड़ते क्या वो लोग सही मायनों में ज़िंदा है  ? या देह के लिबास को सिर्फ तब तक  ढो    रहे हैं की जब तक सांस चल रही है
किसी के लिए पल  दो पल रो लेना   कुछ पल के लिए ही सही पर किसी के हो जाना ही ज़िंदा होने की निशानी है हाँ लेकिन ये आसान नहीं , किसी के इक वादे पर एतबार कर उम्र गुजार देना , कोई कहीं से जरुर आएगा इस इन्तजार में सदिया काट देना , हर आहट पर कहीं वो तो नहीं का गुमा होना ,  शायद किसी ने पुकारा इस भरोसे पर खुश हो जाना और दौड़ कर दरवाजे तक बार बार आना   सरे राह चलते चलते ठिठक कर रुक जाना की शायद उसने मुड कर आवाज दी हो -------लेकिन जब किसी को कहीं नहीं पाया दूर दूर तक तो मन कह उठा
काश --तूने आवाज दी होती  मुड कर वरना हम कई सदियों तक तुझे घूम कर देखा करते "

4 comments:

Mahendra Arya ने कहा…

ममता ! बहुत दिनों बाद आपका लिखा पढने को मिला . जुलाहे वाली बात अच्छी लगी . वास्तविकता ये है की हम सभी जुलाहे की ही तरह हैं. रिश्ते बनते भी हैं , टूटते भी हैं , और फिर बनते हैं. जब हम अपने किसी प्रियजन के बारे में सोचते हैं न कि हम उनके बिना नहीं रह पायेंगे ; अगर उस प्रिय व्यक्ति की मृत्यु हो जाये तो हम शोकमग्न हो जाते हैं . लेकिन जीवन की सच्चाई यही है की उस दिन नहीं तो अगले दिन जीवन की गाडी आगे बढ़ाने के लिए हम पेट में अन्न के दाने डालते हैं .इसी प्रकार जीवन से किसी डोर का टूटना समापन नहीं है , मध्यांतर ही है . जीवन में कोई इस लायक नहीं जिसके लिए अपने जीवन को समाप्त किया जाये . दुखों को सहेज कर रखने से अच्छा होता है , सुखों की तलाश करना ...................मुझे डर है कि मेरी बातें पढ़कर शायद तुम भी मुझे इस "समझदार दुनिया के समझदार होशियार और चतुर लोगों " में से एक समझोगी . फिर भी मेरी बातों कि सच्चाई तो नहीं बदलेगी.

22 सितंबर 2010 को 10:27 pm बजे
Mahendra Arya's Hindi Poetry ने कहा…

ममता . एक नयी कविता लिखी है मेरे ब्लॉग पर. विशेष निमंत्रण इस लिए दे रहा हूँ क्योंकि ये आपके अंदाज में है . फुर्सत से पधार कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करें.

24 सितंबर 2010 को 3:27 pm बजे
बेनामी ने कहा…

ACHCHHI HAIN

7 मार्च 2013 को 4:06 pm बजे

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