बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता

मंगलवार, मार्च 1 By मनवा , In


 
दोस्तों , पिछली बार मनवा  में  बसंत- बहार  ,फूलों , खुशबू-और  प्रेम की बात हम कर रहे थे और मैं सचमुच   आँखें  मूंद के    उस अहसास को महसूस  कर रही थी  की ज्यों ही आँखें खोली  बसंत गायब , बहारें नदारद ,फूल भी नहीं और खुशबू  का भी अता पता  नहीं जहाँ देखो  वहाँ  पीले  पत्ते  और कुम्हलाये  फूल  बिखरे हुए थे हरे भरे पेड़  बिना पत्तों के डरावने ठूंठ  में तब्दील  हो चुके थे 
मैं  समझ गयी की  पतझड़    चुका है कैसे  कुछ पलों में प्रकृती ने सब कुछ  बदल  दिया  जिस तरह  हरे भरे  वृक्ष  ठूंठ में , बहारें   पतझड़  में हरियाली सूखे में बदल  गयी
दोस्तों , कुछ ऐसा  ही तो हमारे मन के साथ भी होता है है ना कभी  बसंत कभी पतझड़ , मन की बगिया  में रूह  के वृक्षों  से लिपटी अहसास  की लताएँ  कैसे इक झटके में  सूख कर   नीचे  गिर  जाती  है और सालों  से वृक्षों से सटे  पत्ते { जिन्हें आंधी  तूफ़ान नहीं गिरा  पाते } वो  पतझड़  में इक हवा  के झोकें  से कैसे  धरती पर गिरते हैं  ?  ठीक इसी तरह  दोस्तों  जब हमारे  जीवन में पतझड़  शुरू होता है तो बरसों बरस ,जन्म जन्मान्तरों  के रिश्ते  इक ज़रा  सी  बात   पे  टूट  जाते  है  ,  इस  मौसम के  बिछड़े फिर कभी नहीं मिलते  वो  पत्ते  और फूल  वो अहसास और भाव  जो इक बार  चले जाते  हैं वो वापस  कभी नहीं लौटते  वक्त  की आंधी  उन्हें  दूर देश  उड़ा  कर  ले जाती है और  जो मन बसंत में अहसासों के  फूलों से महका  महका  रहता  था अब वो महकता  नहीं  दर्द  से दहकता  है
दोस्तों ,पतझड़ बसंत या  सुख  और दुःख या संयोग और वियोग हमारे जीवन  का हिस्सा है लेकिन जिस तरह धरती इस परिवर्तन  को  सहर्ष  स्वीकार  कर लेती है  मन की धरती  ऐसा  क्यों नहीकर  पाती ? बसंत  की मधुर   यादें  जहाँ  हमें  जीवित  होने का अहसास  कराती  है पतझड़   का बेनाम  सा दर्द हमें पल पल  मारता है इस दर्द की कोई व्याख्या  नहीं  ये  गुजर कर भी नहीं गुजरता  यादों के वियाबानों में जब स्याह रातों में हम जब तनहा होते हैं ये बेनाम सा दर्द और गहराता  जाता है हम  जब दर्द के समन्दरों में डूबने लगते हैं और लहरोंके शोर में हमारी  आवाज हमारी आह कोई नहीं सुनता ये दर्द बीत जाने पर भी गुजर  नहीं पाता,न जाने क्यों मुझे हमेशा से ही लगता  है की दर्द के समन्दरों  का पानी आसुंओं  की वजह से  ही खारा है हमारे प्रेम  अहसास  और भावों की नदी  जरुर उस समन्दर  में जाकर मिलती है लेकिन दर्द के सागर में जाकर खारी  हो जाती है बेनाम दर्द   जो  आंसूं हमें देता  है दुनिया उसे  पानी ही समझती है लेकिन मैं उसे आग कहती हूँ  मन की चिता  को ये आसूं कभी बुझा  नहीं पाते   ये आसूं  बहुत  गर्म होते  हैं कभी छू कर देखना   ये बरसते तो हैं सावन की तरह  लेकिन इस पतझड़  के सूखे को  हरा  नहीं कर पाते और ये बेनाम सा  दर्द कभी नहीं ठहरता  मीलों  , सदियों तक यूँ ही चलता रहता है किसी ने क्या खूब कहा  है बेनाम सा ये दर्द ठहर  क्यों नहीं जाता  जो बीत गया  है वो गुजर क्यों नहीं जाता 

3 comments:

Lalit Kumar ने कहा…

मौसमों का आना-जाना तो लगा रहता है ममता... "बदल जाना" ये समय का स्वभाव भी है और नियति भी...

1 मार्च 2011 को 7:45 pm बजे
nina sinha ने कहा…

Today when I was reading Harivans Rai Bachchan's poems,जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।" and हा, तुम्हारी मृदुल इच्छा!हाय, मेरी कटु अनिच्छा!
था बहुत माँगा ना तुमने किन्तु वह भी दे ना पाया!था तुम्हें मैंने रुलाया."
and reading your article reminded me of one strong emotion of life and that is sadness. As we all know change is inevitable in life..even if it makes us sad. जो आज है वो कल नहीं होगा , ये निश्चित है

I love your style of writing. It is very poetic & fluid. Prose writing with a heart of a poet is seldom seen. You bring out human dilemma, conflict & questions in a very nice way. your sharp command on language is also very praiseworthy. I feel the kind of topic you choose is very close to a common person's heart. You understand human psyche well and have the guts to portray it in your writing.

Congratulatio & nKeep it up.

3 मार्च 2011 को 9:20 am बजे
सूर्य गोयल ने कहा…

ममता जी, प्रणाम. आपने अपनी पोस्ट की हैडिंग में लिखा की बेनाम सा दर्द यह ठहर क्यों नहीं जाता. फिर शुरुआत में ही आप बात करती है बसंत- बहार, फूलों, खुशबू और प्रेम की. तो ममता जी आप इन्ही सब चीजो पर पोस्ट लिखा करो. दर्द की बात आपकी लेखनी से अच्छी नहीं लगती. जबकि मेरा कहना तो यह है की किसी की जिंदगी में दर्द आये ही नहीं.

7 मार्च 2011 को 2:03 pm बजे

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