मिट्टी से खेलते हो बार- बार किसलिए ?

शुक्रवार, जून 10 By मनवा , In

कल मेरे ,शहर में  अचानक कहीं से भटके हुए    बादल आये और बरस कर चले गए | बरसात के आते ही पूरा वातावरण , मिट्टी की सोंधी  खुशबू से   महकने  लगा | इक पल पहले जो,सूखी मिट्टी तपती धरती का हिस्सा थी |जो सूरज की  तपन और जलन में सुर- से सुर  मिला कर जल रही थी | बादलों के बरसते ही कैसे झट से ,सोंधी महक में बदल गयी | सख्त ,चुभती ,सूखी .धूल उड़ाती आखों में खटकती मिट्टी , बूंदों से  मिलते  ही कैसी मुलायम ,लचीली और सुगन्धित  बन गयी |
दोस्तों , हम भी तो इसी मिट्टी से बने हैं ना ?हमारी  मिट्टी की देह  इक दिन इसी मिट्टी में मिल  जाएगी | जब हम सभी इक ही मिट्टी से बने हैं| फिर क्या बात है की सभी की खुशबू  अलग -अलग  है ? और यही खुशबु  हमें सबसे अलग  बनाती है | किसी से जुड़ने से पहले हमें उसकी खुशबु आ जाती है और हमारे आसपास अहसास महकने लगते हैं |
दोस्तों , क्या कभी सूखी मिट्टी,में कोई खुशबु होती है ? नहीं |  जब तक प्रेम के अपनेपन के आत्मीयता के अहसास बूंदों के रूप में नहीं बरसते , नहीं छलकते  तब तक कोई  भी मिट्टी  खुशबु  नहीं दे सकती  हाँ वो उड़ उड़ कर किसी की आँख में चुभन  जरुर पैदा करसकती है | लेकिन जब हम किसी अहसास से जुड़ते हैं तो हम भी सोंधी महक से महकने  लगते  हैं | इसलिए ,रिश्तों की मूरत बनाने के लिए सूखी मिट्टी के अलावा  अहसास के बादल भी  होना जरुरी है |
दोस्तों , इस  बात के अलावा  इस मिट्टी को देख इक सवाल और उठता है मेरे मन में | हम सभी मिट्टी के खिलौने है और वो ऊपर आसमान में बैठा विधाता  कुम्हार है | वही,हमें बनाता है | वही हमें बिगाड़ भी देता है | इस मिट्टी की भी अज़ब तासीर  है | वो जिस रूप में चाहे हमें ढाल देता है | हम सिर्फ खिलौने  हैं | इतने कच्चे की साँसों के स्पंदन से ही बिखर जाए , पक्के  इतने की हर  तूफ़ान सह जाए | आसमान में बैठे  उस कुम्हार के खेल कभी समझ नहीं आते | क्यों वो नित नए माटी के पुतले गढ़ता  है , और फिर उन्हें तोड़ भी देता कभी -कभी इक सवाल मन में  उठता  है की उस कुम्हार से पूछूं की तुम्हे ये मिट्टी के खेल क्यों कर इतने भाते हैं ? खिलौने बनाना  तक तो  ठीक था  लेकिन , उनमे  जो प्रेम के , आत्मीयता के , अपनेपन के अहसास भर देते हो | जिनकी खुशबु की वजह से ये खिलौने  जीवित हो उठते हैं |  तुम उन्हें अपनी मर्जी से  करीब लाते हो , और अपनी मर्जी से अलग भी कर देते हो |कभी सोचा  है तुमने इन मिट्टी के खिलौनों  को भी दर्द होता है | पीड़ा  होती है | आखों से आसूं बहते है , मन से आहें उठती है |  दो मन , दो विचार , दो तकदीरे , आपस में जुड़ने ही वाली होती हैं  तो तुम झट से उन्हें अलग  कर देते हो | तोड़ देते हो | ऐसा करते हुए तुम्हारा मन नहीं दुखता ? मन समझते हो ना तुम ? या मन जैसी कोई चीज तुम्हारे पास है भी या नहीं  ? लोग कहते हैं तुम टूटे दिलों में रहते हो| तो क्या अपने रहने के लिए तुम जानबूझ कर दिलों को तोड़ते हो ?  इक आखरी बात बताओ | टूटे हुए खिलौनों  से तुम्हे क्यों प्यार है ? मिट्टी के इस खेल को बंद कर दो या ये बता दो की " मिट्टी से खेलते हो बार- बार किसलिए ? टूटे हुए खिलोनों से प्यार किसलिए ?

4 comments:

संजीव शर्मा/Sanjeev Sharma ने कहा…

"रिश्तों की मूरत बनाने के लिए सूखी मिट्टी के अलावा अहसास के बादल भी होना जरुरी है"...क्या बात रिश्तों की इतनी तपिश और वह भी ठंडी फुहारों के साथ |

10 जून 2011 को 5:27 pm बजे
arshi khan ने कहा…

nice mamta ji
very nice.......
:-)

11 जून 2011 को 5:01 pm बजे
Nina Sinha ने कहा…

Once again excellent description of relationship. itni choti-choti baaton ko itni baariki se samajhna..tumahare dil mein bachchon jaisi paakizgi hai..jo duniya ki kadwi sachchayion ko dekh kar vismit hota hai aur baar- baar Bhagwan se poochhta hai - aisa kyon Bhagwan, aisa kyon? tumhare is lekh ki bhini-bhini khooshbu se main bhi ot-prot ho gayi. very nice.

11 जून 2011 को 5:39 pm बजे
nina sinha ने कहा…

Once again excellent description of relationship. itni choti-choti baaton ko itni baariki se samajhna..tumahare dil mein bachchon jaisi paakizgi hai..jo duniya ki kadwi sachchayion ko dekh kar vismit hota hai aur baar- baar Bhagwan se poochhta hai - aisa kyon Bhagwan, aisa kyon? tumhare is lekh ki bhini-bhini khooshbu se main bhi ot-prot ho gayi. very nice.

13 जून 2011 को 11:50 am बजे

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