ओ ,गंगा बहती हो क्यों ?

शुक्रवार, जून 17 By मनवा , In

पिछले रात  सपने  में कुछ  अजीब  सी आवाज़े सुनाई दी | ऐसा लगा , जैसे कोई दो लोगों की आवाज़े थी| जो आपस में बात कर रहे थे | ध्यान से सुना तो पता चला की वो नदी के दो किनारे थे | जो आपस में बतिया  रहे थे |मैं ध्यान से सुनने लगी | इक ने बड़ी बेबाकी से कहा "दोस्त  ये गंगा के किनारे बने- बने मैं तो उकता गया हूँ | ये चंचल  लहरे  दिन भर मुझे परेशान करती हैं | मैं शान्ति  से  यहाँ रहता हूँ | ये मुझे अशांत कर देती है | बिना पूछे  छूती हैं  ना चाहते हुए भी भिगो देती हैं |  रात हो या दिन उफ़ ,कितना शोर करती हैं | मानों कसम ही खा रखी हो| इन्होने की सदियों तक पीछा  नहीं छोड़ेगी |
अपने साथी की बात पर ,दूसरे किनारे ने मुस्कुराकर  जबाव  दिया ,दोस्त तुम कुछ ज्यादा ही सोच रहे हो | हम पत्थर के किनारे हैं | जड़ है | हमारे पास कुछ भी ऐसा नहीं जो हमारे जीवन में खुशियाँ  लाये | हमें तो इन  लहरों का शुक्रगुजार  होना चाहिए | ये हमसे रोज मिलने तो आती हैं | वरना हम यूँ ही अकेले सूखे- सूखे से रह जाते | लहरे है तो जीवन गतिमान  लगता है |
लहरों से खफा हुए किनारे  ने फिर कहा | आखिर  गंगा को बहने की जरुरत ही क्या है ? क्यों बहती है ये ? स्वर्ग  में शिव के साथ रहती थी ना फिर धरती पर क्यों चली आई? वहाँ सम्मान  नहीं मिला होगा इसलिए इस धरती पर सम्मान  की खातिर  और पूजनीय  बनने के मोह में आ  गयी होगी |
दूसरे किनारे ने फिर बात संभाली और कहा  मत भूलों हमारा अस्तित्त्व इन्हींगंगा की   लहरों की वजह से हैं |  किनारे कितने भी टूटे -फूटें  हो लहरे  फिर भी उन्हें प्रेम करती ही हैं | और गंगा के तट पर आने वाले कभी भी किनारों के खुरदुरेपन को नहीं देखते |वो प्रेम से हमारे समीप  बैठते हैं | प्रतीक्षा  करते हैं लहरों की | उन किनारों को कभी देखा है ? जिनके पास लहरें  नहीं | उन उदास किनारों के पास कोई नहीं जाता ना कोई रात को दीपक जलाने आता है  ना सुबह सर झुकाने | वे अभागे  सदियों से लहरों की प्रतीक्षा   में हैं | पर लहरों का सामीप्य उन्हें नहीं मिलता | दूर-दूर तक सिर्फ सन्नाटा  है न कोई जीव ना कोई जीवन |
तुम तो यूँ ही कहते हो मानो या ना मानो ये गंगा जरुर स्वर्ग से भी इसी चंचलता  की वजह से निष्काषित की गयी होगी | यहाँ धरती पर आकर भी ये हमें चैन नहीं लेने देती आखिर ये क्यों बहती है ?
हो सकता है दोस्त तुम ही सही हो | लेकिन  ये भी तो  हो सकता  है की ये गंगा लोगों को तृप्त  करने के लिए बहती हो | लोगो की अशुध्दियाँ और कलंक  खुद में समेटना  इसे रुचिकर लगता हो | सभी को अपने प्रेम का अमृत  देना चाहती हो यह भी वजह हो सकती है |
तभी ,इक नारी स्वर ने लगभग  चीखते हुए कहा -चुप हो जाओ जड़ किनारों | बहुत देर से मैं तुम लोगों की बात सुन रही हूँ
मैं गंगा , सदियों से बहती आई हूँ | स्वर्ग में भी शिव के शीश पर थी और इस धरती ने भी हमेशा मुझे सम्मान से स्वीकारा है | मुझे मान  और अपमान का कतई भय नहीं है | किसी को देना या किसी से कुछ पाने की कोई चाह  नहीं है मेरी | मेरा कोई  स्वार्थ नहीं | मैं पवित्र ,निच्छल , निशब्द बहती हूँ | मुझे  छूकर लोग सौगंध खांए  , दिए जलाए या अपनी अशुध्दियाँ  मुझमे छोड़ जाए |मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता |मानो तो मैं गंगा हूँ ना  मानो तो प्रदूषित पानी |
ओ पत्थर के किनारों , तुमसे  जो मेरी लहरे टकराकर  बिखर बिखर जाती हैं | तुम उनसे कुछ सीखो | जब तक तुम अपने झूठे अहम् से अकड़े रहोगे तब तक जड़ ही बने रहोगे | तुम्हारे कांधों पर कुछ पल यदि मैंने विश्राम  कर लिया तो तुम्हे गूरुर आ गया | मेरे बहने पर ही सवाल उठाने लगे | मेरे बहने की गति पर ही प्रश्न  किये जाने लगे  क्यों ? इस देश का यही दुर्भाग्य है यहाँ  नदी और नारी का खूब दोहन ,  खूब दुरूपयोग किया जाता रहा है | यदि कोई स्त्री या नदी चुपचाप बहती चलती है तो उसकी इस खामोशी पर भी संदेह  किये जाते हैं  और जो वो वाचाल हो जाए सुनामी बन जाए तो भी आरोपी  बनायीं जाती है | सदियों से दूसरों के लिए बहना , सहना  और प्रेम करते जाना  ये हम ही कर सकती हैं तुम नहीं |
तुम ,पत्थर हो तुम में कोई स्पन्दन नहीं , संवेदना  नहीं तुम टूट जाओगे इक दिन देखना | मेरे प्रेम से भी तुम नहीं पिघलोगे ,मेरे साथ नहीं बहोगे तो मैं ठहरुगी  नहीं आगे चल दूगीं | साहस है तो मुझमे  डूब जाओ | पिघल जाओ  तो कोई बात बने |
मैं तरल हूँ | उत्कट हूँ | तभी प्रेम करती हूँ | तुम जड़ हो इसलिए मुझ तक कभी पहुँच नहीं पाते | मुझे ही आना  होता है तुम तक |आज मैं तुम लोगो की ओछीबातों  से मेरा मन अति दुखी है| मैं यही कहुगीं की तुम यूँ ही पत्थर बन कर तरसते रहो सदियों तक | कोई  लहर तुम्हे अपना ना समझे तुम्हे छुए और दूर चली जाए और तुम आवाज भी ना दे सको |मैं , गंगा , असीम से आई हूँ| इक दिन असीम में ही मिल जाना है मुझे |मैं अपनी अनंत  यात्रा  पर हूँ समझे ? अब कभी नहीं कहना  गंगा बहती हो क्यों ?

4 comments:

Mahendra Arya ने कहा…

किनारों का अस्तित्व भी नदी के ही कारण होता है, वर्ना हर किनारा एक निर्जीव भूखंड के सिवा कुछ भी तो नहीं . एक सूखी हुई नदी के किनारों को कोई देखे - वो किसी दूषित गड्ढे की मेंड़ ही होते हैं . पुरुष भी नारी के बिना अपूर्ण है . नारी स्वभाव की शीतलता ही पुरुष के पौरुष को बल देती है , वरना पुरुष एक सूखे ठूंठ जैसा बन के रह जाए . सुन्दर भाव , ममता ! लिखती रहो !

17 जून 2011 को 1:04 pm बजे
dr. shri naath sharmaa ने कहा…

bahut khub mamta ,sabase alag sabase komal , sabase sundar vichaar hai tumhare . lekhan me ik kashish hai jo bandhe rakhati hai . dubo deti hai > sirf shabd nahi tumhare bhavon me bhi ik chumbak hai jo khinchataa hai-- aashirvad

17 जून 2011 को 1:57 pm बजे
सूर्य गोयल ने कहा…

जबरदस्त, बहुत ही सुन्दर ममता जी. यह पोस्ट पढ़ कर जिन्दगी की एक कटु सच्चाई का एहसास हुआ. बधाई और शुभकामनाएं.

19 जून 2011 को 12:54 pm बजे

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