जिन्दगी से कोई वादा तो नहीं था ...........
कल रात के स्याह सन्नाटों में , जब पलकों ने मूंदने से इनकार कर दिया | आखें इक-टक शून्य में निहारने लगी | तो नींद समझ गयी की , आज मेरा यहाँ कोई काम नहीं और वो चुपके से वहाँ से चली गयी |आसपास कोई था भी नहीं | और मीलों तक ख़ामोशी अपने होंने पर इतरा रही थी | तभी किसी के कोमल स्पर्श ने मुझे छुआ | और कहा | सुनो , अगर इन आखों से बहते झरने को कुछ देर रोक लों तो मैं तुमसे दो पल बात कर लूँ ?
वो बोली मैं तुम्हारी अपनी ही हूँ | तुम्हारी जिन्दगी | "अपनी " शब्द सुनकर मुझे जोर से हंसी आ गयी | और मैं उठकर जाने लगी | उसने रोका -ज़रा ठहरों | तुम मेरे बिना कैसे जा सकती हो ? कैसे जी सकती हो ? कैसे चल सकती हो ? मैं फिर हँसने लगी हाँ मैं तुम्हारे बिना भी जी लेती हूँ | हंस लेती हूँ | जी लेती हूँ | अगर सांसों का आना जाना ही जिन्दगी है| तो ये काम बखूबी हो रहा है | अब तुम जाओ |वो बड़ी मनुहार के साथ कहने लगी |देखो तुमने कभी किसी मोड़ पर मुझसे वादा किया था की तुम मेरा साथ निभाओगी | नहीं मैंने ऐसा कोई वादा नहीं किया | लेकिन तुम बिन जीने का इरादा भी नहीं था मेरा |लेकिन तुम जो कदम -कदम पर मुझे आजमाती हो | नये नए रूप धर के स्वांग रचती हो | इससे मैं थक गयी हूँ | अब तुम किसी भी भेष में आओ मैं तुम्हे पहचान लेती हूँ |अब क्या लेने आई हो मुझसे ?-चली जाओ|इस बात पर उसने मेरे हाथ , अपने हाथों में भर लिए और प्यार से कहने लगी | तुम जिसे स्वांग कहती हो| वो मेरे रंग है | बहुत रंग बिरंगी हूँ मैं | जहाँ दर्द के स्याह रंग है | पीड़ा के धूसर रंग है | वहां प्रेम के लाल ,गुलाबी रंग भी तो मैंने तुम्हे दिए | ख़ुशी के आनंद के नीले पीले इन्द्रधनुष भूल गयी तुम ? मेरे साथ साथ चलो यूँ बेजार नहीं हुआ करते |
बोल चुकी तुम ? अब मैं कुछ कहूँ ? देखो , जिन्दगी तुम्हारी इक इक अदा मेरी समझ से परे है | और तुम मुझे कभी रास नहीं आई | अभी पिछले दिनों तुमने मुझे बुरी तरह तोड़ा था | बिखर -बिखर गयी मैं | अनगिनत टुकड़े हुए मेरे | दर्द के समन्दरों से खुद को निकाल कर मैंने इक -इक टुकड़ा खोजा | उन्हें उठा --उठा कर जोड़ती रही ......| लेकिन अफ़सोस कोई भी टूटा हुआ टुकड़ा किसी भी हिस्से से मेल नहीं खा रहा | कोई किसी से नहीं मिलता | और ना फिर से जुड़ ही पाता है | अब मैं खुद को कही से जोड़ना नहीं चाहती तो फिर तुम मेरे सामने आ खड़ी हुई जोड़ने के लिए |
क्यों करती हो तुम ऐसा | जब हर झील में पानी है | लहर है तो | कमल क्यों नहीं खिलते ? जब भी मैंने तुम्हारे अर्थ खोजे | बदले में सिर्फ बैचेनियाँ ही पाई | आईने में खुद को जब -जब भी देखा बस इक आवाज आई | क्यों हूँ मैं यहाँ ? किसके लिए ? और क्या अर्थ है मेरेहोने का ? इन डरावने सवालातों के जबाव तो दो ?
क्या मांग लिया तुमसे ? अपनी बाहें फैला कर सारे संसार को भरना चाहा था उसमे | अपनी दो छोटी आखों में सबके लिए दर्द भर लिया था | और मन में प्रेम | अपनी उम्मीदों के पौधे लगाये | सपनों के बीज बोये | और तुमने मेरी क्यारियों को छोड़ सारे शहर में सावन बरसाए क्यों ? जब मैं दर्द से भर गयी और तुमसे कुछ कहना चाहा तो तुम्हारे पास समय नहीं था | आज मैं होठों पर चुप लगाये हूँ तो कहती हो बोलती क्यों नहीं ?
तुम बिन जीने का इरादा नहीं था जिन्दगी | पर मैं अब तुम बिन ही जीना चाहती हूँ | अब मुझे तुम्हारी जरुरत भी नहीं | इस बार जिन्दगी बड़ी मायूस होकर मेरे पास से चली गयी |जिन्दगी तुमसे कोई वादा नहीं था मेरा | हाँ लेकिन तेरे बिना जीने का अब इरादा है मेरा | सुबह हो गयी |
"नींद क़ी बंदिशों में, आखं कहाँ जगती है
मैंने कहा कौन हो तुम ? मैंने तो किसी को आवाज नहीं दी | तुम फिर कैसे चली आई ? मुझे किसी से कोई बात नहीं करनी और तुम तो दिखती भी नहीं मुझे क्यों ?
वो बोली मैं तुम्हारी अपनी ही हूँ | तुम्हारी जिन्दगी | "अपनी " शब्द सुनकर मुझे जोर से हंसी आ गयी | और मैं उठकर जाने लगी | उसने रोका -ज़रा ठहरों | तुम मेरे बिना कैसे जा सकती हो ? कैसे जी सकती हो ? कैसे चल सकती हो ? मैं फिर हँसने लगी हाँ मैं तुम्हारे बिना भी जी लेती हूँ | हंस लेती हूँ | जी लेती हूँ | अगर सांसों का आना जाना ही जिन्दगी है| तो ये काम बखूबी हो रहा है | अब तुम जाओ |वो बड़ी मनुहार के साथ कहने लगी |देखो तुमने कभी किसी मोड़ पर मुझसे वादा किया था की तुम मेरा साथ निभाओगी | नहीं मैंने ऐसा कोई वादा नहीं किया | लेकिन तुम बिन जीने का इरादा भी नहीं था मेरा |लेकिन तुम जो कदम -कदम पर मुझे आजमाती हो | नये नए रूप धर के स्वांग रचती हो | इससे मैं थक गयी हूँ | अब तुम किसी भी भेष में आओ मैं तुम्हे पहचान लेती हूँ |अब क्या लेने आई हो मुझसे ?-चली जाओ|इस बात पर उसने मेरे हाथ , अपने हाथों में भर लिए और प्यार से कहने लगी | तुम जिसे स्वांग कहती हो| वो मेरे रंग है | बहुत रंग बिरंगी हूँ मैं | जहाँ दर्द के स्याह रंग है | पीड़ा के धूसर रंग है | वहां प्रेम के लाल ,गुलाबी रंग भी तो मैंने तुम्हे दिए | ख़ुशी के आनंद के नीले पीले इन्द्रधनुष भूल गयी तुम ? मेरे साथ साथ चलो यूँ बेजार नहीं हुआ करते |
बोल चुकी तुम ? अब मैं कुछ कहूँ ? देखो , जिन्दगी तुम्हारी इक इक अदा मेरी समझ से परे है | और तुम मुझे कभी रास नहीं आई | अभी पिछले दिनों तुमने मुझे बुरी तरह तोड़ा था | बिखर -बिखर गयी मैं | अनगिनत टुकड़े हुए मेरे | दर्द के समन्दरों से खुद को निकाल कर मैंने इक -इक टुकड़ा खोजा | उन्हें उठा --उठा कर जोड़ती रही ......| लेकिन अफ़सोस कोई भी टूटा हुआ टुकड़ा किसी भी हिस्से से मेल नहीं खा रहा | कोई किसी से नहीं मिलता | और ना फिर से जुड़ ही पाता है | अब मैं खुद को कही से जोड़ना नहीं चाहती तो फिर तुम मेरे सामने आ खड़ी हुई जोड़ने के लिए |
खुद को बहुत होशियार समझती हो तुम | क्या यहाँ कोई " मुझे तोड़ो -मुझे जोड़ो " का खेल हो रहा है | जुड़ भी गया कोई हिस्सा तो उसमे दरार साफ नजर आती है जिन्दगी | जिसमे से दर्द रिस -रिस कर बहता रहता है ताउम्र | समझी तुम ?
क्यों करती हो तुम ऐसा | जब हर झील में पानी है | लहर है तो | कमल क्यों नहीं खिलते ? जब भी मैंने तुम्हारे अर्थ खोजे | बदले में सिर्फ बैचेनियाँ ही पाई | आईने में खुद को जब -जब भी देखा बस इक आवाज आई | क्यों हूँ मैं यहाँ ? किसके लिए ? और क्या अर्थ है मेरेहोने का ? इन डरावने सवालातों के जबाव तो दो ?
क्या मांग लिया तुमसे ? अपनी बाहें फैला कर सारे संसार को भरना चाहा था उसमे | अपनी दो छोटी आखों में सबके लिए दर्द भर लिया था | और मन में प्रेम | अपनी उम्मीदों के पौधे लगाये | सपनों के बीज बोये | और तुमने मेरी क्यारियों को छोड़ सारे शहर में सावन बरसाए क्यों ? जब मैं दर्द से भर गयी और तुमसे कुछ कहना चाहा तो तुम्हारे पास समय नहीं था | आज मैं होठों पर चुप लगाये हूँ तो कहती हो बोलती क्यों नहीं ?
जब मैं हंसती थी तो कहती थी | क्यों वेवजह हंसना ? आज जब आसूँ है तो फिर कहती हो क्यों ये झरने ? पहले कहती थी खाब बुनो यही जिन्दगी है | और जो खाब बुने तो नींद से जगाकर कह दिया जागो ये हकीकत नहीं | सुख दुख के तानेबाने पर मैंने रिश्तों के लिबास सिल लिएथे जिन्दगी और तुमने उन रिश्तों में भी गांठ लगा दी |
तुम बिन जीने का इरादा नहीं था जिन्दगी | पर मैं अब तुम बिन ही जीना चाहती हूँ | अब मुझे तुम्हारी जरुरत भी नहीं | इस बार जिन्दगी बड़ी मायूस होकर मेरे पास से चली गयी |जिन्दगी तुमसे कोई वादा नहीं था मेरा | हाँ लेकिन तेरे बिना जीने का अब इरादा है मेरा | सुबह हो गयी |
और मुझे याद आया| मेरे इक मित्र जो शायर है सूरज का इक शेर कि
"नींद क़ी बंदिशों में, आखं कहाँ जगती है
जिन्दगी बर्फ है कभी , कभी सुलगती है |
बेबसी , मुफलिसी , गम , दर्द , जिल्लते, आसूं
इतने कपड़ों में, भला ठण्ड कहाँ लगती है ||
5 comments:
हैरत से देख रही थी आँखे मेरी इस गर्मी में बर्फ हुए पानी को
फिर हैरत से देख रही थी आँखे एक मनमौजी के पत्थर से झिलमिलाते पानी को
एक बार फिर हैरत अपनी समझ पे क्यों बर्फ जाना तालाब के ठहरे हुए पानी को
ममता , आप जब लिखती है तो लगता है जैसे किसी और दुनिया में चले गए हो | इस दुनिया से वास्ता नहीं रहता फिर ....साँस रुक जाती है जब तक पढो और पोस्ट ख़तम हो जाती है | तो लगता है अभी और कुछ भी बाकि है जो आप सुनाने वाली हो | किताब लिखना शुरू कब करोगी ?
बहुत खूब , जितना अच्छा बोलती हो | उतना लिखती भी हो | आशीर्वाद मेरा | खूब बड़ी बनो इक दिन , और जिन्दगी से हार मत मानना | अपना गोल्ड मेडल लेने सागर आओ तो मिले बिना मत जाना | शुभ कामना |
हर बार की तरह इस बार भी अच्छा लगा ..दिल को छू गया ...सोचती हूँ तुम कहाँ से ऐसी बातें सोच लेती हो ..फिर याद आता है अपने वो दिन जब उदास होना भी बड़ा रोमांटिक लगा करता था ..फिर अचानक इन सब से मन दूर हो गया और factual किताबें पढने की आदत हो गई ..Fiction से दूर हो गयी ..शायद उम्र का यही तकाजा था ..ये सब कुछ planned नहीं हुआ ,खुद-ब-खुद हो गया ...पर definitely तुम्हारी बातें बड़ी सुनहरी और अनोखी सी है , जो थोड़ी देर के लिए हमें एक दूसरी दुनिया में ले जाती है ...जहाँ मन की बहुत कोमल भावनाओं की फुसफुसाहट सुनाई पड़ती है ...भरी धूप में बारिस की बूंदों की तरह. मुझे Emerson की वो पंक्तियाँ याद आ रही हैं , "आओ, हम खामोश रहें, ताकि फरिश्तों की कानाफूसियाँ सुन सके." 'ज़िन्दगी से कोई वादा तो नहीं था' -मुझे कुछ ऐसा ही लगा जैसे आपके और ज़िन्दगी के बीच कानाफूसियाँ हो रही हों . हार्दिक शुभकामनाएं .
बहुत ही नही वरन अति से भी सुन्दर........
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