अपनी मर्जी से जीने की , अर्जी क्यों दूँ ?

मंगलवार, नवंबर 15 By मनवा

आज , बहुत दिनों बाद आप सब से रूबरू हूँ | इन दिनों , लिखने की कुछ मर्जी ही नहीं हुई | विचारों की मर्जी नहीं हुई की वो मुझ तक आये और ना भावों की मर्जी हुई की वो मन की दहलीजों को छुए | तो कोई कैसे लिखे ? 
सब अपनी मर्जी के मालिक है | सोचती हूँ कभी कभी | हम जिन्दगी के सफ़र में चल रहे है तो क्या अपनी मर्जी से ? या वो ऊपर बैठा जादूगर हमें चलाता है उसकी मर्जी से | वो जिधर हवा का रुख कर दे हम उसी तरफ बहने लगते हैं | कितनी  अजीब सी जिन्दगी हमारी |  ना आये अपनी मर्जी से और ना रहते है यहाँ अपनी मर्जी से | और जैसे तैसे इस जिन्दगी को जीने लायक बनाते हैं | रिश्तों के झुनझुनों से खुद को बहलाते हैं  |  की कुछ ही दिनों में  ये रिश्ते हमें उनकी मर्जी से चलाने लगते हैं | कब बोलना है | कितना बोलना है | क्या बोलना है | कब चुप हो जाना है | कब हँसना है | और तो और कब रोना है ये भी दूसरे तय करते हैं | कौन कब आता है कहाँ से तोड़ कर आपको ले जाता है | कोई नहीं जानता | ये भी तोड़ने वाले की मर्जी है | वो जब चाहे आपको जितना जी चाहे तोड़े | फिर अपनी सुविधा के अनुसार आपको जोड़ भी दे | हम जैसा भी नादान कौन होगा ? 
जिस घर में जन्म लिया उसे अपना समझने ही लगे थे की किसी ने, किसी दिन  कहा ये घर पराया है उनकी मर्जी  से मान ली ये बात चुपचाप  | की फिर किसी दिन किसी की की मर्जी हुई और कह दिया की अब ये नया घर तुम्हारा है| ख़ामोशी से मान लिया  जी आपकी मर्जी   | किसी ने कन्या का दान किया उनकी मर्जी | किसी ने दान ले लिया उनकी मर्जी | हम कहाँ ? कहाँ हमारी मर्जी ? किसी ने कहा तुम बेटी हो हमारी ये  उनकी मर्जी | किसी ने कहा अब किसी की पत्नी हो ये भी उनकी मर्जी | सीमेंट , पत्थर के मकान को हमने घर कहा | ये पहली बार हमारी मर्जी थी | घर की हर चीज से रिश्ते बनाए | और उन बेजान वस्तुओं में सांस चलने लगी | घर के कोने महकने लगे | निर्जीव वस्तुओं में भी दिल धड़कने लगे | और हम पहली बार अपनी मर्जी से खुश होंने लगे  और इक़ दिन हवा का रुख कुछ यूँ चला की की , वो अपना घर फिर से सीमेंट , पत्थरों का मकान नजर आने लगा | बेजान वस्तुओं के साथ -साथ घर में रहने वाले भी वस्तु बन गए | कहीं से किसी को उठाकर कहीं रख दिया | सुन्दर दिखे इसलिए कहीं सजा दिया | {सजा देने और सजा देने में ज्यादा अंतर नहीं है } | किसी ने नियम बनाये हमने निभाए | किसी ने कहा यही है सही हमने हंस कर हामी भरी | वो जो कहे सच तो सच | उनके झूठ भी झूठ | उनकी हाँ में हाँ लेकिन मेरी मर्जी कहाँ ? 
पहले हर चीज थी अपनी मगर अब लगता है | अपने घर में किसी दूसरे घर के हैं हम | हाँ मुझे तो कभी कभी लगता है हम कहाँ से आये और किस राह से चले जायेगे ये भी हम तय नहीं करते | 
किस मिट्टी से हमारा कितना रिश्ता है | किसके पास हमारा कितना हिस्सा है | अपने अधूरे हिस्से की तलाश में सारी उमर भटकते हम | कहीं जब कोई खुद के जैसा दिखा | उसी के साथ हो लिए पीछे पीछे चल दिए उसकी मर्जी | किसी ने किसी दिन कह दिया तुम्हारा सफ़र अब ख़तम चली जाओ | हमने मान ली हंस कर उसकी मर्जी | जो जैसा दिखा जैसे मिला उसी के जैसे हो गए उसकी मर्जी | किसी ने काटा , किसी ने बांटा | उसकी मर्जी | हर सांस पर  किसी की मर्जी हर धड़कन पे किसी का पहरा | जब दर्द से दिल भर जाये और कुछ कहना चाहे तो दुनिया कहती है |श्श्श ...चुप रहो | दुनिया की मर्जी | जब होठ पर  खामोशी  के ताले चिपका लिए तो कहती है | अरे --आजकल बोलती नहीं कुछ बोलो ना ...उनकी मर्जी | 
पिछले दिनों , किसी नदी किनारे बठी थी | अकेले | तो लहरों की बातें सुनी | उन्हें देखा अपनी मर्जी से जाते हुए बहते हुए खिलखिलाते हुए तो खुद के होने पर यकीन आया | और अन्दर बहुत अन्दर से इक़ आवाज आई | {ये आवाज अक्सर आती थी पर  गौर अब किया मैंने } उस मीठी आवाज ने कहा -बोल तेरी मर्जी क्या है ? मेरी मर्जी ? ये तो कभी सोचा ही नहीं मैंने | किसी ने कभी पूछा ही नहीं मुझसे | जीवन मेरा था बनाया दूसरों ने | सपने मेरे थे तोड़े दूसरों ने |  मन मेरा था बसाया पराया दर्द क्यों ? देह हमारी मालिक दूसरा क्यों ? हमसे ज्यादा दूसरो का हक़ हम पर क्यों ? अपने जीवन को जीने के लिए , अपने सपनों को पूरे करने के लिए हम दूसरों के ऊपर निर्भर क्यों ? 
अपनी मर्जी से जीने के लिए क्या इसको , उसको सबको अर्जी देनी होगी ?  ये सब हैरानियाँ , बैचेनियाँ , बेकार सवालातों के बीच मन कितना दुखी हो जाता है | झट से टूट टूट जाता है | उसकी मर्जी | तभी इक़ लहर ने आकर भिगो दिया उसकी मर्जी | जाते जाते लहर कह गयी मुझे |इस गीलेपन को बनाये रखना | आखों में ही सही इक़ झरना छुपाये रखना | अपनी मर्जी के रास्तों पर कड़ी धूप मिलेगी | इक़ पौधा जरुर उगाये रखना |और वो लहर ये भी बता गयी की ये जीवन बहुत सुन्दर है | इसे और सुन्दर बनाया जा सकता है | अपनी मर्जी से | दूसरों की मर्जी से इसे ढोया जाता है | जिया नहीं जाता |  इस गीलेपन और हरेपन के साथ हम चल दिए अपने बनाये रास्तों पर और हाँ  अबकी बार किसी को कोई अर्जी नहीं दी हमने | लों जी , बिना कोई नए विचारों और भावों के मैंने ये पोस्ट लिख दी मेरी मर्जी |  अब आप इस पोस्ट को पढ़े ना पढ़े ये  आपकी मर्जी | 

4 comments:

मंजुला ने कहा…

तुम्हे पढना हर बार ही अच्छा लगता है ......बहुत अछा लिखा है तुमने ....बहुत खूबसूरती से मन की सूक्ष्म भावनाओ का चित्रण तुम करती हो .....

18 नवंबर 2011 को 4:26 pm बजे
अनुपमा पाठक ने कहा…

इंसान जन्मता है मुक्त मगर हर मोड़ पर वह बंधन युक्त ही है... ये जीवन की अजीब विडम्बना है..., इन सब के बीच नमी बनी रहे, बस!

26 नवंबर 2011 को 5:34 pm बजे
Nina Sinha ने कहा…

ममता, तुम्हारा लेख पढ़ा .फिर से तुमने दिल जीत लिया..लेख की काव्यात्मकता और दर्द जो तुम्हारी विशिष्टता है, मन को मोह गयी. तुमने लेख के शुरू में ही सबसे गूढ़ बात कह डाली - " वो ऊपर बैठा जादूगर हमें चलाता है उसकी मर्जी से |"

कल ही एक कवियत्री मित्र ने मुझे एक कविता सुनाई, जो तुम्हारे इस लेख से कुछ मिलता-जुलता सा लगा , तो मैंने सोच कि वो कविता मैं तुम्हारे साथ share करूँ. कविता का शीर्षक है, " चाक ".

मैं तो केवल कच्ची मिटटी थी, तूने ही मुझे, चाक पर रख कर ,
न जाने कितने आकारों में ढाला.
वह तो तेरे हाथों का शिल्प था और मेरी मजबूरी .
परन्तु तुमने एक धागे से काटकर , सहसा चाक से अलग कर दिया .

और फिर मैं जलाईं गयी, पकाई गयी,
और न जाने किस-किस अग्नि-परीक्षा से मुझे गुज़रना पड़ा
मैं टूटी भी, जुड़ी भी, बिकी भी, मिटी भी ,
पर फिर चाक तक जाना संभव न हो सका .

उद्गम और अंत के बीच का जो खेल तुमने मुझसे खेला है ,
मैं इससे थक गयी हूँ .
ओ चाकधारी, फिर से मुझे अपने निकट आने का सौभाग्य दो .
ताकि मैं निर्मित होती रहूँ और आनंद विभोर हो नाचती रहूँ.

1 दिसंबर 2011 को 6:51 pm बजे
ललित कुमार ने कहा…

बहुत सुंदर शब्द... लेखन की एक नई शैली...

6 दिसंबर 2011 को 6:27 pm बजे

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