रंगरेजा.....ये ले रंगाई , चाहे तन , चाहे मन ......

गुरुवार, दिसंबर 15 By मनवा , In

कल ,बाजार से गुजरते समय इक़ रंगरेज की दुकान पे नजर पड़ी | वो बड़े जतन से , हर कपड़े को रंग रहा था | बड़ी ही तन्मयता के साथ | हर कपड़े को उठा -उठा कर रंग में भिगो देना | फिर उसे सुखाने के लिए इक़ रस्सी पर लटका देना | लाल , नीले , हरे पीले , गुलाबी और जामुनी भी तो | सभी रंग कितने अच्छे और कितने कच्चे ....| ज़रा लापरवाही हुई नहीं की इक़ का रंग दूजे पर चढ़ जाए | वो रंगरेज , अपने काम से थक के ज़रा आराम करने की नियत से लेट गया | और मैं चल दी | लेकिन तभी मैंने उस दुकान में कुछ आवाज़े सुनी | सभी , साड़ियाँ, दुपट्टे , और बहुत से कपड़े इक़  जगह  आकर इकट्ठे होकर बतिया रहे थे | मैं ठहर गयी तो सुना -- ---इक़ गुलाबी दुपट्टे ने बात शुरू की | इस रंगरेज से मैं बहुत परेशान हूँ | ये अपनी मर्जी से हमें क्यों रंग देता है ? मुझे गुलाबी , नहीं लाल रंग पसंद है | फिर इसने मुझे ये फीका गुलाबी रंग क्यों दिया ? जबकी मैं चटक लाल  हो जाना चाहता हूँ |  और वो देखो , देखो काली  साड़ी कितनी उदास है उसे हरा पसंद था | मेरा बस चले तो इक़ दिन इस रंगरेज की दुकान ही बंद करवा दूँ | 
अब तुम चुप हो जाओ | इक़ सफ़ेद कपड़ों की गठरी बोली | ये रंगरेज , इतना बुरा भी नहीं | अब मुझे देखो मैं कितनी बुरी लगती हूँ | रंगहीन | कल ये मुझे इक़ नए रंग में रंग देगा | फिर मैं बाजार में चली जाउगी | वहां मुझे खरीद के लोग अपनी मनपसंद ड्रेस बनवायेगे | मेरा उपयोग होगा | दुनिया देखुगी  मैं | यहाँ घुट के मरने से बेहतर है दुकान से बाहर चले जाना | ये रंगरेज ना हो तो क्या मोल है हमारा ? बोलो ? 
तभी , खूंटी पर सुखाने के लिए लटकाई गयी इक़ साड़ी बोली | इस रंगरेज को इतनी भी खबर नहीं की मैं कबसे इस खूंटी पर टंगी हुई हूँ | मेरी बारी कब आएगी की मैं हवा में खुल के बिखर जाऊं ? उड़ जाऊं | तभी इक़ दर्द भरी आह निकली --और मुझे देखो मैं कबसे इस रंग के बर्तन में भीग रहा हूँ | मुझे बाहर नहीं निकालता वो रंगरेज | मैं दर्द से मर गया हूँ |  ये कितना निष्ठुर रंगरेज है | इसे किसी की कोई परवाह नहीं | ये बहरा है | जरुर ये कोई नशा करके सो जाता है रोज |और हमारी बात , जो हम कह नहीं सकते इससे | क्या , ये कभी समझ पायेगा ? 
अब , मैं सोचने लगी | हम सब भी तो मात्र इक़  कोरे कपड़े ही है | ऊपर बैठा वो रंगरेज हमें जैसे चाहे रंग दे | उसके रंग कितने अच्छे कितने सच्चे | वो हम सभी को अलग -अलग रंगों में रंगता है | हम सभी , इक़ दूजे से कितने अलग | कोई किसी से मेल नहीं खाता | चेहरे अलग | फितरत अलग | आवाज अलग | अंदाज अलग | किसी का रंग किसी से नहीं मिलता | किसी का ढंग किसी से नहीं मिलता | सभी विशेष | सभी अनोखे | क्या खूब बनाया | 
किसी के भीतर लोहा भर दिया | किसी के अन्दर मोम भर दिया | जो लोहा भर दिया तो वो मशीनी आदमी हो गया | अब वो मशीन की तरह काम करता है | मशीन की तरह प्रेम करता है | उसका दिल लोहे का जो टूटता नहीं | दर्द उसको होता नहीं | वो सिर्फ मशीनी है | उसकी देह भी इक़ मशीन हो गयी | वो कभी मोम नहीं हो सकता | और जो किसी में मोम भर दिया तो वो पल पल पिघलता ही रहता है | जहाँ ज़रा सी प्रेम की उष्मा मिली | पिघल गए | गर्मी ज्यादा मिली तो पिघल के शक्ल ही बदल बैठे | मोम  को शिकायत की ये लोहा उसकी कोमलता को नहीं समझता | इक़ झटके में उसे चूर -चूर कर देता है | लोहा , कहता है मोम का कोई केरेक्टर ही नहीं जब देखो पिघल गए | 
उस रंगरेज , ने किसी में खुश्बू भर दी तो वो जहाँ होता है अपनी महक भर देता है | तो किसी में बंजर कर देने के रसायन भर दिए | ऐसे जहर भर दिए की वो मनुष्य अपने जहरीले रसायनों से ना जाने कितने दिलो की धरती को हिरोशिमा नागासाकी बना बैठे | किसी में इतनी  उर्वरा शक्ति भर दी की उसने रेगिस्तानो में झरने बहा दिए | फूल खिला दिए | किसी में इतने शब्द भर दिए की शब्दों की क्यारियाँ बाना दी | | तो किसी के पास इक़ शब्द भी नहीं कहने के लिए | किसी में हरापन भर दिया तो किसी में वीराना | कोई अपने शब्दों से किसी के भीतर सृजन कर दे | कोई अपने शब्दों के तीर से किसी को बाँझ कर दे | कोई गौतम ऋषि अपने शब्दों से स्त्री को पत्थर बना दे | तो कोई राम उसे अपने स्पर्श से फिर स्त्री बना दे | 
कमाल का है वो रंगरेजा | उसे सब खबर है | किस को कहाँ जाना है | किसकी कहाँ मंजिल है | किसके भाग्य में कितने कांटे है | कितना हिस्सा ? कितना किस्सा ? कितनाकौन झूठा | कौन  कितना सच्चा | किसकी रेट कितनी बंजर होगीं | किसकी आखों में कितने रतजगे उसने लिखे वो ही जानता है | 
दर्द के समन्दरो में किसको कितना डुबाना है | किसको सावन में कितना जलाना है | किस को किस खूंटी पर उमर पर बांध के लटकाना है | किस को बाँध कर मोड़ कर कोने में रख देना है | कितने , रंग उसके पास | कितने ढंग उसके पास | कैसा संग उसका ? कैसा चलन उसका ? कौन जाने ? कितना जाने ? हाँ सभी कोरे कपड़े की गठरियाँ है | कब किसकी बारी आये वही जाने | हम जिस रंग के है उस रंग का कोई दूजा क्यों नहीं मिलता ? हम जिस ढंग के हैं वैसा कोई और क्यों नहीं दिखता ?  इस ऊपर बैठे रंगरेज से हम सभी इतने नाराज क्यों ? फिर भी उससे मिलने की आस क्यों ? वो दिखता नहीं फिर भी आसपास क्यों ? 
ओ , रंगरेज ..सुनो ना ...तुम खूब हो | तुम्हारे रंग भी बड़े खूब हैं | लेकिन ये बताओ क्या कभी कोई रंग तुम पर भी किसी का कोई रंग चढ़ा है ? तुम कभी किसी के रंग में रंगे हो ? क्या कभी तुम्हारे भीतर किसी का कोई रंग बहता है ? चलो मत बताओ ये तो बताओ की हम तुम्हे तुम्हारे इस मेहनताने की क्या कीमत दे ? क्या रंगाई है तुम्हारी ? 
जो , हम पर अपना रंग चढ़ा दे | जो हमें इक़ नए रूप में बदल दे | उस रंगरेज को कोई क्या दे भला ? देह हो या मन | दोनों तुम्हारी रचना | | इनमे से तुम जो चाहे वो ले सकते हो | या तो मन ? या देह ? या दोनों ? ये फैसला रंगरेज खुद करे | इक़ गीत की पंक्तियाँ हैं | रंगरेजा , रंग मेरा मन , मेरा तन | ये ले रंगाई चाहे मन ? चाहे तन ? 

12 comments:

vineet chaturvedi ने कहा…

अब तो ऐसा लगता है कि स्लेट पर लिखी सारी इबारतें मिटाकर कोरी स्लेट पर नए सिरे से जिंदगी की कहानी लिखी जाए......

17 दिसंबर 2011 को 3:01 pm बजे
chaman nigam ने कहा…

आपने तो 'कबीर 'की याद दिला दी ---बाहर हाल लेख पढ़ कर मज़ा आ गया

17 दिसंबर 2011 को 3:02 pm बजे
shrish pandey ने कहा…

जीवित लोगों की संवेदना समझना और उनको व्यक्त करना एक अलग बात है पर निर्जीव वस्तुओं में
इतने बारीक भेद देख लेना रचनाकार की छमता ही नहीं उसकी मानवीय संवेदना की श्रेष्ठता को भी दर्शाता है
ममता जी बधाई और शुभकामनाएं

17 दिसंबर 2011 को 3:05 pm बजे
rajiv prasun ने कहा…

Ye bhi us rangreja ka kamal ki kise wo branded banata hi aur kise non branded...

17 दिसंबर 2011 को 3:06 pm बजे
rajiv prasun ने कहा…

aap lekhan ki duniya ki brand ho na ho par aapka post anubhuti,sanvedana,kalpana aur lekhkiy kaushal ka praman hi

17 दिसंबर 2011 को 3:08 pm बजे
rajiv prasun ने कहा…

aage bhi aise hi rangte rahna jo usne aapko rang diys hi aviral...aviram..

17 दिसंबर 2011 को 3:08 pm बजे
roshan jaswal ने कहा…

सुंदर

17 दिसंबर 2011 को 3:10 pm बजे
devendra singh ने कहा…

रंगरेजा.....ये ले रंगाई , चाहे तन , चाहे मन ......
.mamta bahut khoob

17 दिसंबर 2011 को 3:11 pm बजे
shahbaj ali khaan ने कहा…

रंगों के माध्यम से आपने आदमी के मुक़द्दर को जिस तरह से परिभाषित किया है वह बहुत ही खुबसूरत और मार्मिक भी है... हर रंग का अपना मुक़द्दर है. बल्कि हर चीज़ की अपनी नियति है.. बर्फ की नीयति है पानी में जाकर मिल जाना.. आदमी की नीयति है कि वो आज़ाद नहीं है... उसके पैरों में एक बेडी है जो अदृश्य है..लेकिन बेहद शक्तिशाली है....ग़ालिब कहते है कि "नक्शे फरयादी है किस की शोखिये तहरीर का/ कागज़ी है पैरहन हर पैकरे तस्वीर का" तो इक़बाल कहते है कि "तेरे आज़ाद बन्दों कि न ये दुनिया न वो दुनिया/ यहाँ मरने कि पाबन्दी वहां जीने कि पाबन्दी".... इस रंगरेज़ से लोग इसी चीज़ की शिकायत करते है की किसी को मोम बनाया तो किसी को लोहा बना दिया.. मोम तुरंत बहने लगता है.. लोहा पिघलना तो दूर झुकता भी नहीं है.. इस रंगरेज ने किसी को बहार बख्शी तो किसी को बंजर ज़मीन दी.. किसी को दरया दिय तो किसी को ओस की दो बूंद....
इस रंगरेज़ का मेहनताना है उसने जो नीयति बख्शी है उसको सहर्ष स्वीकार कर लेना.. और जीवन पूरी उत्फुल्लता से जीना.

17 दिसंबर 2011 को 3:13 pm बजे
niraj jain ने कहा…

icant belive it.....u r a very g8 philospher

17 दिसंबर 2011 को 3:14 pm बजे
रंजना सिंह ने कहा…

उस भीड मेँ मुझसे भी मुलाकात हुई ही होगी...जिसे न किसी रँग मे रँग जाने की जिद है न तमन्ना,,जो अभी कुछ दिनोँ पहले 'अपने ही रँग मे रँग दे रँगरेजा' की चाह लिए फिर रही थी, उसे अब किसी रँग मे नही रँगना । चाहूँ न चाहूँ नियति के अनचाहे रँगो का 'शिकार' बनना ही पड़ता है,पड रहा है । सम्पूर्ण दुनिया मे अपनी अपूर्णता निहारती इक 'मै' मेरा...। चलो भी,चाह किसे है सम्पूर्ण होने की,मै तो बस इक लम्हा जीना चाहती हूँ ,वो जो दरअसल मै हूँ। रँगरेजा...रँगरेजा...रँगरेजा कुछ और रँग,..कहीँ और रँग..

17 दिसंबर 2011 को 3:15 pm बजे
Nina Sinha ने कहा…

वाह ममता , तुम्हारी सोच कितनी सच्ची और कितनी अच्छी होती है..कहाँ से लाती हो ये संवेदनाएं , ज़िन्दगी को भावनात्मक स्तर पर समझने और समझाने का ये फलसफा , मन को कहीं छू सा जाता है . कितनी आसानी से अपने मन की बात कह जाती हो . ईश्वर करें तुम्हारे मन का ये मार्मिक कोना हमेशा जिंदा रहे. बधाई और शुभकामनाएं

18 दिसंबर 2011 को 8:57 am बजे

एक टिप्पणी भेजें