मैं, मोहब्बत ही मोहब्बत हूँ ......मोहब्बत की कसम

बुधवार, फ़रवरी 8 By मनवा , In


पिछली  रात , सुनसान सड़कों पे इक़ आकृति सी दिखाई दी | करीब जाने पर देखा | वो सुर्ख लिबास में थी | उसके हाथ में बहुत से सुर्ख गुलाब थे | लेकिन मुरझाये हुए | कुछ ग्रीटिंग कार्ड्स भी ...मैंने ही बात शुरू की | कौन हो तुम ? वो मुझे देख मुस्काई | उसके मुस्काने से ही उसकी सुन्दर आखें डबडबाई | वो और भी सुन्दर दिखाई दी मुझे | धीरे से बोली | मैं मोहब्बत हूँ | सिर्फ मोहब्बत...और ये सूखे गुलाब ? ये सब उस बरस के हैं | उस बरस सभी प्रेमियों ने " प्रेम -दिवस " नामक कोई त्यौहार जैसा कुछ मनाया था | { जैसे आजकल मोहब्बत लव जैसा कुछ हो गयी है } उस दिन लव सुबह शुरू होकर शाम को खतम हो गया | और सभी प्रेमी ये सुर्ख गुलाब सड़कों पे फैंक गए | मैं हैरान हूँ | प्रेम के लिए इक़ दिन क्यों ? क्या ये सभी प्रेमी मोहब्बत के मायने समझते हैं ? मैंने बीच में उसे टोका -- तो तुम ही कहो क्या है मोहब्बत ? कैसे शुरू हुई ? कब हुई ? कैसे कोई जाने ? कैसे की जाती है ? कब तक रहती है ? 
वो सुर्ख लिबास वाली आकृति धीरे धीरे चलने लगी | और कहने लगी | जिस पल कोई बादल का टुकड़ा चुपके से , धरती के टुकड़े को भिगो गया | मैं मिट्टी में मिल कर महकने लगी | जिस पल कली , फूल बन रही थी कोई उसमे रंग और खुश्बू भर रहा था | उस पल मैं ही तो सांस  ले रही थी | जब गुलाब धीरे धीरे सुर्ख हो रहे थे और दिल धड़कना  सीख रहा था | उस पल से मैं साथ हूँ सबके | 
इतनी बड़ी दुनिया में हजारों चेहरों के बीच कोई इक़ चेहरा जब तुम्हे भाने लगे | जिसके ख्याल से तुम्हारा दिल धड़कने लगे | जिसकी हर बात आपको , आपसे जुदा करने लगे | जिसके लिए तुम्हारे मन में अहसासों का कलश भरने लगे | और ये अहसास आखों के रस्ते छलकने लगे | आसूँ  गालों पे आकर ढलकने लगे | जो दिल ही दिल में खिंचने लगे | जिसे तुम सौ बार भुलाओ और वो उतना ही करीब होने लगे | हवाओं में उसके होने की खुश्बू आने लगे | आखों में नमी रहने लगे | मन की दहलीजों पे आहट होने लगे | होंठ , चुप होजाए |  मगर आखें बोलने लगे | कोई सर्दी में धूप सा और गर्मी में शाम सा लगने लगे | बिन बरसात भिगोने लगे | उस पल समझ लेना तुम्हे किसी से मोहब्बत हो गयी है | 
लेकिन सावधान ...........मेरे होने पर कभी संदेह मत करना | मेरे होने की वजह मत तलाशना | मैं देह से परे हूँ इसलिए देह में कभी मत तलाशना | कुछ हाथ नहीं आएगा | ज्ञानियों की किताबों के पन्ने मत उलटना | कवियों की कविताओं में नहीं हूँ मैं | तर्क , मत करना मेरे होने पे | अपनी जरूरतों को मेरा नाम  दे कर किसी को  मत छलना | 
कोई इक़ दिन नहीं मेरा ..ना इक़ साल ....ना इक़ जनम ..मौत पर भी मेरी कहानी ख़तम नहीं होती | सदियों से हूँ और सदियों तक रहूगी | हाँ ..लेकिन जो मुझे छू कर देखना चाहते हैं | जो  अपनी मुठ्ठी में मुझे कैद कर लेना चाहते हैं | मैं वहाँ  से चुपचाप उड़ जाती हूँ | और उन्हें कभी पता भी नहीं चलता | मैं बड़ी अजीब सी शै हूँ | आजतक मेरा रहस्य कोई नहीं जान पाया | लेकिन मैं सभी के राज  जानती हूँ | किस दिल को , किसके लिए बनाया गया है | कौनसा  हिस्सा किस का है | कौनसा  टुकड़ा  कहाँ  जोड़ा जायेगा |  किस बंद दरवाजे पे दस्तक देनी है |  किस मकान से चुपचाप  निकल जाना है | ये सब मैं ही जानती हूँ | ये सारी कायनात  मेरे दम से  चलती है | किस को किसके लिए  जमी पे बुलाया गया है |मुझे  सब पता  है |  मेरे लिए देश , सीमा , काल  सरहदे . उमर  मायने नहीं  रखती | मैं  होती हूँ तो बस हो ही जाती हूँ | किन   बिछड़े हिस्सों  को जोड़ना है | किन  अधूरे  किस्सों  को पूरा  करना है | किस रूह का , किस रूह से | किस जिस्म का किस जिस्म से सदियों का नाता  है | ये  रहस्य सिर्फ मैं जानती हूँ |  मुझे पता है | मैं लम्हों में रहती हूँ | जिस पल दो लोग पूरी शिद्द्त , ईमानदारी , सच्चाई  से , खुद को भूल के  मुझे महसूस  करते है | मैं उस पल उनके बीच  होती हूँ | 
सही- गलत , सच -झूठ , पाप - पुण्य , पाबंदियाँ , बंदिशों  से दूर  है मेरा  बसेरा  | कठोर  इतनी की सारी दुनिया का मुकाबला कर लूँ | कोमल इतनी की सांसों की भाप से मुरझा  जाऊं | किसी के  प्यार से मारे गए  हजार  तीर  सह जाऊं तो किसी की  आखं में बेरुखी  की झपक  से ही मर जाऊं | जितने भी पहाड़  देखते हो ना ..उन्हें कभी पत्थर मत कहना | वो   बहुत कोमल अहसास हैं |  जो सदियों से किसी की राह  तकते हैं | जब  कोई प्रेम से छू लेता  है|  तो वो पत्थर ,  फूल बन जाते है | महकने  लगते हैं | जब  मेरी आखें  दर्द से भर जाती है|  तो नदियाँ  बन जाती है | दर्द जब जलाने  लगता है तो मैं  सागर को रेगिस्तान  में बदल देती हूँ | फिर भी मैं ,  खतम नहीं होती रेत के कणों में मुस्काती हूँ |  मैं रेगिस्तानों में मरूद्यान  खिलाती हूँ | और नागफनी  पे लाल  फूल ...बदले में कुछ  नहीं मांगती | रुकती नहीं कहीं | ठहरती नहीं कभी | 
मैं  पत्तियों में हरापन बन कर और तुम्हारी देह में लहू बन कर बहती हूँ | मुझे  डालियों से  तोड़े गए  गुलाबों में , ग्रीटिंग कार्डों या मंहगे  तोहफे  में मत खोजना | मुझे  सिर्फ महसूस करना | आखें बंद करके | जिस पल  कोई तुमसे  से होकर गुजरने लगे |  तुम उसे सोचो और वो झट से पास आ बैठे | उसका ना  होना भी होना लगे | भरी दुनिया में  कोई तुम्हे तन्हा  करने लगे | उस पल समझ लेना | तुम्हे  मोहब्बत  हो गयी है |  जितनी बार , जितना महसूस करोगे , उतनी बार ही पा लोगे मुझे | क्योकिं  मैं, मोहब्बत ही मोहब्बत हूँ ......मोहब्बत की कसम | 

3 comments:

bina ने कहा…

bahut hi sundar lekh hai, .मोहब्बत की कसम
Bina

8 फ़रवरी 2012 को 12:44 pm बजे
Mahendra Arya ने कहा…

Bahut sundar rachna Mamta. Kamaal ka bahav hai tumhari abhivyakti mein.Likhti raho...........Mahendra Arya

8 फ़रवरी 2012 को 1:05 pm बजे

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