ये चुप सी क्यों लगी है ?

शनिवार, मार्च 3 By मनवा , In

बचपन  में हम सभी ने इक़ कहानी सुनी थी | इक़ राजा था जिसके सर पे इक़ सींग था | ये बात सिर्फ उसका नाई { बाल काटने वाला } ही जानता था | राजा के कठोर आदेश थे,  की ये बात कभी भी किसी से नहीं कही जाए | मनोविज्ञान कहता  है|  की आप अपने दिल और दिमाग  से जिस काम को करने के लिए मना करेगे | वो वही करेगा | नाई ये राज कब तक अपने मन में रखता | इक़ दिन वो अपनी बात को किसी के साथ  बांटने के लिए तड़प उठा | और घने जंगल में इक़ पेड़ से वो बात कह दी | बरसों बाद उस पेड़ की लकड़ी से तबले , ढोलक  बनाये गए | और किसी  संगीत कार ने जब उन्हें राजा के सामने बजाया तो | जानते है क्या हुआ ? तबला , ढोलक सभी ने  नाई की बात को दोहरा दिया | की राजा के सर पे सींग है | राजा हैरान और नाई परेशान की ये क्या हुआ | कैसे हुआ | 
उसे ये शेर याद आया  होगा की " कभी कहा नहीं किसी से तेरे फ़साने को | ना जाने  कैसे खबर हो गयी  जमाने को " |  ये बात शुरू करने का महज बहाना  था | असल बात तो ये है की | हमारी अनुभूतियाँ , हमारे अहसास , हमारी भावनाए , अगर हम किसी के साथ नहीं बांटते तो वे किसी ना किसी रूप में व्यक्त हो ही जाती है |यहाँ तक की प्रकृति भी खुद को व्यक्त कर देती है | जैसे  समन्दर  अपने अहसास, अपने दर्द को अपने आसुओं को ,नमक में बदल देता है | उसकी आह, भाप बनकर आसमान तक जाती है | उसकी तड़प , बैचेनी  लहरें बनकर फ़ैलती है | पहाड़  अपने चेहरे पर कितना दर्द लिए होते है | उनकी इक़ इक़ परत को ध्यान से देखो | प्रेम से छुओं तो सांस लेते से लगेगे | फूल , खुश्बू के   बहाने व्यक्त होते हैं | आसमान , बूंदों  के माध्यम से प्रेम पत्र लिखता है | पंछी , नदिया , पवन के झोकें  जब सभी खुद को उजागर कर देते है तो हम इन्सान क्यों खुद  को छिपाते है | 
 कहते है शब्द अमर है | मैं कहती हूँ अनुभूतियाँ  अमर है |अव्यक्त भाव , अनुभूतियाँ गर व्यक्त ना हो तो रोग की शक्ल ले लेती है |  और अब विज्ञान भी कहने लगा, की देह की सभी बीमारियाँ  पहले मन के धरातल पर ही जन्मती है | दिमाग  का ज्यादा इस्तेमाल करने वालों को | तर्क में उलझे हुए लोगो को अक्सर दिमाग के रोग और दिल पे हर बात लेने वाले को दिल के रोग होते है | अपनी अनुभूतियों को दबाकर , छिपाकर ,कुंठाग्रस्त होने से बेहतर है हम किसी से कह दे | अपना  हाले दिल .......
अक्सर मुझे लगता है जैसे दाने -दाने पे लिखा होता है ना,खाने वाले का नाम | ठीक उसी तरह हर भावना , हर अनुभूति , हर अहसास पर उसका ही हक़ है जिसके लिए वो मन में उठे हैं | तो क्यों ना वो उस तक पहुंचे | और क्यों  ना पहुंचे ? मन ही मन में घुटते रहने से | छिपाने से क्या लाभ? 
किसी के प्रति सच्ची , सुन्दर , कोमल भावनाए उठी और उसे सात तालों में बंद करके ऊपर से मौन की   सील लगा दी | गोया , मैं खुद अपने दिल पे दीवार बना बैठा हूँ | कोई भीतर आये  तो किस तरह आये | 
जबसे लोग ज्यादा बुद्धिजीवी हो गए | समझदार हो गए | ज्ञानी हो गए | प्रसिद्ध हो गए | बड़े बन जाने  का रोग  लग गया | उसी पल से लोगो ने खुद को छिपाना  शुरू  कर दिया  |  खुल के हंसना नहीं | खुल के रोना नहीं | जोर से बात नहीं करना |  ऐसे लोग सारी उमर बड़ी ही अदा और बनावटी पन  से अपने काम करते है | अपने भीतर किसी को आने नहीं देना | किसी से भी आत्मीय नहीं होना | आत्मीय होने के बड़े खतरे है ना | कोई आपके भीतर झाँक के देख लेगा तो ....?  भेद , भेद नहीं रह पायेगे | कमजोरिया , कमियाँ दिख  पड़ेगी | क्या कहेगे लोग?  क्या छवि  बनायेगे ? क्या प्रतिक्रियां  होगी ? जान लेंगे सब | ये डर , ये संशय , बुद्धि और समझदारी , सभी अनुभूतियों को छिपा देती हैं | और लोग जीवन भर इनकी ओट में सुबकते रहते हैं | सिसकते रहते है | अपने अपराधबोध , अपनी पीडाएं , अपने दर्द को अपने डर , अपनी कुंठाओं के साथ ,  अनकहे  की  पीड़ा के वजन को ढ़ोते रहते हैं | और इक़ दिन इसी बोझ के साथ दुनिया से चले जाते है | लेकिन लेकिन लेकिन ...........
देह से चले जाने के बाद भी क्या रूह को चैन आता होगा ? बार -बार  इस धरती पर आती होगी | कभी पेड़ बन जाती होगी  | कभी नदी | कभी हवा बनकर बहती होगी | कहती होगी | लुभाती होगी | 
तो क्यों चुप रहा जाए | अपनी भावनाओं  के रेगिस्तान में रेत -रेत होकर होकर क्यों बिखरे ? जैसे है वैसे क्यों ना दिखे | दिन भर हँसने , हंसाने   का ढोंग करना और रातों को छुप छुप के  रो लेना क्या ठीक है ? टूट ना जाये इसलिए लोहे के कवच पहन लिए | गिरने के डर से जमीन पे ही सो गए | क्यों ? प्रेम में होना चाहते है | प्रेम में गिरने से डरते है | कहने से डरते हैं | अपने सर पर हमेशा अपने अहम् का मुकुट सजाये  फिरते हैं | कवि है तो कविता की ओट में छुप जायेगे | दार्शनिक है तो दर्शन में | जोगी , तो जोग में | योगी है तो योग में | जादूगर है तो जादू में | खिलाड़ी है तो खेल में | लेकिन साहब - खेल के बाद , तमाशे के बाद , महफ़िल उठ जाने के बाद , भीड़  के चले जाने के बाद  फिर अकेले | अपनी अनुभूतियों के साथ | हजारों की भीड़ में क्यों तन्हा हो गए ? इसलिए की  किसी से कहते नहीं कुछ भी | खुद को  क्यों छिपाए ? अच्छा लगे तो कह दे | बुरा लगे तो भी कह दे | जो अनुभव करे उसे व्यक्त करे | अनकहे के बोझ तले दब कर क्यों मरे ? ये चुप सी क्यों लगी है ? अजी कुछ तो बोलिए । 

3 comments:

Unknown ने कहा…

wah kya khoob sandarbh aur uski parat dar parat vivechna ki hai ...picture ka chayan hamesa ki tarah lajawab h Mamta ji

4 मार्च 2012 को 11:29 am बजे
बेनामी ने कहा…

Mamtaji,
thereis a song filmed on Shahruk khan & Juhi Chawla-
Kaththai Aankho wali ek ladki,
ek baat par jhagadti hai,
Mujhse kyu nahi mile pahle
Roz ye keh kar mujhse ladti hai....

Mein bhi aap se iss baat par ladta ki pehle kyu nahi mile aap. Par ab facebook ka shukriya ki aap se mile... Aap yu hi likhti rare aur hum aap ki lekhni ke somras se madhosh hote rahe.
Buhut Aadar aur sneh ke sath.. Sanjay Sharma

10 मार्च 2012 को 4:54 pm बजे
Pradeep ने कहा…

आप की लेखनी कमाल की है ... आप शब्दों को अर्थ ही नहीं देती अपनी भावनाएं भी उनमे गूंथ देतीं है .... आभार !

10 मार्च 2012 को 5:32 pm बजे

एक टिप्पणी भेजें