और हम फ़रार हो ना सके ................

शनिवार, मार्च 31 By मनवा

हजारों लोगो की भीड़ , अनगिनत चेहरे | सभी एक जैसे |  दो आखें एक नाक ...| लेकिन कहाँ एक जैसे ? कोई भी किसी से नहीं मिलता | हाँ मिलता है तो सबका एक जैसा रवैया | किसी को किसी की परवाह नहीं | कोई किसी को देखता नहीं | भीड़ का सैलाब आता और दूसरी दिशा में चला जाता | ये किसी फिल्म का द्रश्य नहीं इक़ प्लेटफार्म का नजारा था | सभी को जाने की जल्दी | किसी को रेल पकड़ने का जूनून | किसी को रेल से उतरने की घबराहट | और सबसे ज्यादा जल्दी रेल को थी | और रेल से   ज्यादा जल्दी उन खोमचे वालों को होती है | हर रेल का स्वागत इतने उत्साह से करते है | जैसे उनकी प्रेमिका सात समन्दर पार से आई हो |  इतने मासूम और ईमानदार   की हर आने वाली रेल का इन्तजार उसी शिद्द्त से करते है | जितना  पहले वाली की किया था | 
रेल , आती है चली जाती है | प्लेटफार्म वही रुके रहते है | मुझे प्लेटफार्म पर बैठना ज्यादा प्रिय है | ना किसी रेल में चढ़ने का मन,  ना किसी रेल से उतरने की इच्छा | अक्सर सोचती हूँ | ये प्लेटफार्म और रेल आपस में कितने जुड़े हैं | इक़ के बिना दूजे का कोई अस्तित्त्व ही नहीं | साथ -साथ हैं ,पर साथ नहीं | पास- पास है, पर पास नहीं | 
इन दोनों का रिश्ता कितना अनोखा सा है ना | हमेशा गुस्से से भरी रेल आते ही झगडा करने के अंदाज में दिखती है | प्लेटफार्म कितने शांत | किसी जोगी से | ये धुंआ उडाती रेल जब जब भी आती होगी  | प्लेटफार्म से सौ शिकायते  करती  होगी |आती जाती बलखाती , दिल धड्काती रेल ना जाने क्या कहती होगी इस प्लेटफार्म से | 
ध्यान से सुना तो ये आवाजे सुनाई दी | रेल बड़े ही प्यार से बोली उस दिन | ओ मेरे प्लेटफार्म तुम दिन भर कितनी रेलों से घिरे रहते हो | लेकिन सच बोल- कौनसी रेल तुम्हे ज्यादा प्यारी है ? और क्यों ?  प्लेटफार्म बोला-  तुम बहुत ही भली और प्यारी हो | लेकिन बाकी सब रेल भी मेरी प्रिय हैं | मुझे सभी रेलों से प्रेम है | मैं प्रेम मय हूँ | मैं तुम में और तुम मुझमे हो | हमारे बीच ये धुँआ इस बात का साक्षी है की हमारा रिश्ता जीवित है | इस पर रेल तुनक कर बोली - कवियों की तरह बाते ना बनाओ नहीं तो मैं चली |  वो मुस्काया | कहीं नहीं जा सकोगी तुम | अपनी मर्जी से आई थी | अब जा रही हो | तो खुद ही आना वापस | 
रेल रास्ते भर खुद को जलाती रही | कितना अभिमान है उसमे  | क्या वो नहीं जानता की , मेरे बिना वो कितना बेरोनक हो जायेगा | कौन पूछेगा प्लेटफार्म को रेल के बिना .....प्लेटफार्म सोचने लगा | मेरा जीवन भी क्या जीवन है | मैं किसी रेल का सगा नहीं बन पाया कभी | आती जाती सभी रेल मुझे कोसती हैं | 
कोई भी रेल मेरे पास ठहरती नहीं ज्यादा देर | दिन भर शोर फिर भी कितना सन्नाटा है मन में |  इतनी भीड़ लेकिन फिर भी तन्हा हूँ मैं | तभी  इक़ दूसरी रेल ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई |  कैसे हो तुम ?  बढ़िया हूँ | और तुम ? मैं ठीक हूँ | प्लेटफार्म फिर चुप | इक़ लम्बी चुप्पी से रेल भड़क गयी | क्यों रे प्लेटफार्म सदियों से मैं आती हूँ जाती हूँ | तुम्हारे हालचाल पूछती हूँ | तुमने कभी मेरा हाल नहीं पूछा | कितनी लम्बी थकन और भटकन के बाद मैं तुम तक आकर सांस लेती हूँ | तुम इतने बेरुखे से क्यों लगते हो | कभी रोकते नहीं मुझे | पुकारते नहीं मुझे | ना मेरे आने की ख़ुशी ना जाने का गम | 
प्लेटफार्म का अभिमान , रेल को रोकता नहीं | रेल का स्वाभिमान उसे ठहरने नहीं देता और शायद इसीलिए वो जीवन भर पटरियों पर दौड़ती रहती है | कहीं किसी सुनसान डगर पे थक के टूट के बिखर जाती होगी रेल | अपनी पटरियों से हट जाती होगी रेल | फिर सौ बार पुकारे कोई लौट के नहीं  जाती होगी रेल | रेल कभी मुड़ती नहीं | पलट के देखती नहीं | और प्लेटफार्म  ख़ामोशी से  रोज आती जाती बहुत सी रेलों में से उस रेल को रोज खोजता होगा | लेकिन वो नहीं आती |  इक़ दिन प्लेटफार्म भी भस्म हो जाते है खुद बखुद | 
हमारा जीवन भी तो ऐसा ही है ना | बहुत से ऐसे रिश्ते आसपास बनते हैं जिन्हें हम जीवन भर  भुला नहीं पाते | और स्वीकार भी नहीं कर पाते | साथ साथ चलते है | लेकिन साथी नहीं होते | पल पल महसूस होते है लेकिन हम उन्हें अपना कहते नहीं | कोई कैद में रखता नहीं और हम उनसे आजाद भी नहीं हो पाते | कैसी अद्रश्य सी कैद होती है जो सिर्फ महसूस होती है | दिखती नहीं | बिन बांधे ही बंधते हैं हम | और जीवन भर खुद को छुडा भी नहीं पाते | 
शोर मचाती , सीटी बजाती  रेल ने इक़ बार फिर ठंडी आह भर कर प्लेटफार्म को निहारा और स्टेशन छोड़ दिया | धुंआ देर तक थरथराता रहा | बहुत से खोमचे वाले , चाय वाले , बिसलरी की बोतल वाले रेल के पीछे दौड़े लेकिन वो नहीं रुकी | धीरे धीरे वो सभी आवाज़े चुप हो गयी | और वो ग्रीन सिग्नल भी अब ग्रीन नहीं दिखता था | प्लेटफार्म ने मन ही मन कहा -तुम चली गयी ? इस बार हवाओं ने जवाब दिया " हमारी मोहब्बत का सिलसिला भी अजीब है | तुमने  कैद में रख्खा नहीं , और हम  फ़रार हो ना सके ................

4 comments:

Mahendra Arya's Hindi Poetry ने कहा…

Bahut sundar Mamtaji ! Kahan kahan se sanket dhoondh laati hain aap ! aparibhashit rishton ka badhiya chitran !

6 अप्रैल 2012 को 3:27 pm बजे
Unknown ने कहा…

| मेरा जीवन भी क्या जीवन है | मैं किसी रेल का सगा नहीं बन पाया कभी | आती जाती सभी रेल मुझे कोसती हैं |
कोई भी रेल मेरे पास ठहरती नहीं ज्यादा देर | दिन भर शोर फिर भी कितना सन्नाटा है मन में | इतनी भीड़ लेकिन फिर भी तन्हा हूँ मैं | तभी इक़ दूसरी रेल ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई | कैसे हो तुम ? बढ़िया हूँ | और तुम ? मैं ठीक हूँ | प्लेटफार्म फिर चुप | इक़ लम्बी चुप्पी से रेल भड़क गयी | क्यों रे प्लेटफार्म सदियों से मैं आती हूँ जाती हूँ | तुम्हारे हालचाल पूछती हूँ | तुमने कभी मेरा हाल नहीं पूछा | कितनी लम्बी थकन और भटकन के बाद मैं तुम तक आकर सांस लेती हूँ | तुम इतने बेरुखे से क्यों लगते हो | कभी रोकते नहीं मुझे | पुकारते नहीं मुझे | ना मेरे आने की ख़ुशी ना जाने का गम |
bahut hi badhiya mamata aapki bhasha aur aapka ye chitran aapko bahut uch shreni ki lekhika pramanit kerta hai badhai ......bahut umdaa

7 अप्रैल 2012 को 11:56 am बजे

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