प्रेम रसायन हमरे पासा ....

गुरुवार, अक्टूबर 18 By मनवा , In

मेरे घर के सामने काफी दिनों से , एक मकान बन रहा है । रेत  , गिट्टी और पत्थरों के ढेर लगे होते हैं । आसपास के बहुत से बच्चे अक्सर शाम को रेत के ढेर पर खेलने आते हैं । उस दिन मैंने देखा , सभी बच्चे  , रेत में से गोल -गोल सुन्दर , चिकने पत्थर छांट रहे थे । कुछ देर पहले ही खाली हाथ आये ये बच्चे अब उन पत्थरों के मालिक थे । सभी ने अपनी -अपनी पसंद के पत्थर चुने और खेलने लगे । इक पल में वो पत्थर उनकी सबसे प्रिय चीज हो गए थे । कोई भी बच्चा किसी दूसरे  साथी को अपने पत्थर ना देने को तैयार था । ना बदलने को ही ,,,,बेजान , अनजान  से  पत्थरों और उन अबोध बच्चों के बीच कैसा अनजाना  रिश्ता बन गया था । 
बच्चे उन पत्थरों के प्रेम में ऐसे पड़  गए की , लड़ने , झगड़ने पर उतारू हो गए क्यों ? 
अक्सर घर की टूटी फूटी चीजों में ही बच्चों का दिल क्यों  बसता है ?  किसी भी सही सलामत चीज को वो जरुर तोड़ेगा ., जोड़ेगा  और फिर तोड़ेगा ...क्यों करता है वो ऐसा ? 
बच्चे , बहुत ही पवित्र , निच्छल और भोले होते हैं । वो हर उस चीज के प्रति संवेदन शील हो उठते है , जो उन्हें लुभाती है । ये संवेदनशीलता ही ,उन्हें बेजान वस्तुओं से भी प्रेम करना सिखाती है । ये बच्चे जब हमारी तरह बड़े और समझदार (?) हो जायेगे तब तक इनकी संवेदनशीलता अपने स्वार्थ , अपने हित , लोभ लालच और अवसरवादिता के परदों में छिप जाएगी । फिर ये बेजान वस्तु तो क्या , जीवित लोगो के प्रति भी संवेदनशील  नहीं रह सकेगे । प्रेम नहीं कर सकेगे । प्रेम रसायन सूख जायेगा । 

कभी -कभी सोचती हूँ । ये प्रेम रसायन हम सभी के भीतर बहता है ,लेकिन हम सभी इससे इतने अनजान क्यों रहते हैं ?  जड़ में , चेतन में .....रेत में , बूंदों में  , किनारों पे , तो लहरों में , वृक्षों में , मिटटी में ..और ये  सभी इस रसायन को  अपनी  -अपनी तरह से अभिव्यक्त भी करते हैं । 
पत्थरों में भी प्रेम रसायन बहता है , वो बोलते नहीं तो क्या हुआ , जरा प्रेम से छू कर देखिए अगले ही पल वो आपसे  बात करने लगते हैं, हमसे । प्रेम रसायन शब्दों का मोहताज नहीं , उसके पास बोल नहीं, लेकिन इसका ये मतलब नहीं की उसका कोई मोल नहीं । इस रसायन को महसूसने के लिए हमें सबसे पहले संवेदनशील होना होगा । सबसे पहले खुद के प्रति । स्वयं को सबसे पहले हमें छूना होगा । खुद को जब हम महसूस करने लगते हैं ना  , फिर हमें दूसरों को महसूस कर पाने की कला आती है । और फिर इक दिन हम अपने आसपास की सभी जड़, चेतन वस्तुओं को महसूस करने लगते हैं । उनसे बात करने लगते हैं । हम जब किसी के प्रति संवेदनशील हो उठते हैं तो खुद को पूरी तरह भुला देते हैं । ठीक उसी पल वो चीज , या व्यक्ति आपके प्रेम रसायनकी वजह से आपको महसूस होने लगता है । 
जैसे - जैसे हम ज्यादा संवेदनशील होते जाते हैं , हमारी दुनिया बदल जाती है । किसी दूसरे  के दर्द को आप अपने भीतर महसूस कर पातें हैं । दिनभर  हंसने -हंसाने वाले के रुदन को सुन  पाते हैं । हमेशा मौन रहने वाले की बात सुन पाते हैं । वृक्ष  पर लिपटी लता , साहिल  से सटकर  बहते दरिया , मिटटी की सोंधी खुशबु और पत्तों पर  जमी शबनम की बूंद का विज्ञान समझ  आने  लगता है । इक दूसरी दुनिया में , विचरते है हम ...और जो इस रसायन को हम महसूस नहीं कर पाते  तो हम संवेदन शून्य हो जाते हैं। प्रेम रसायन के सूख  जाने पर , जहरीले रसायन बनते हैं । ये जहरीले  रसायन खुद के मन की धरती को तो बंजर बनाते ही हैं , दूसरो के टुकड़ों को भी बंजर कर देते हैं न जाने मन के कितने हिस्से बंजर किये इन रसायनों ने , ये ही है जिन्होंने न जाने कितनी स्त्रियों को पत्थर बनाया । ये हमें  इतना बदसूरत कर देते हैं ,कि  सुन्दर से सुन्दर चीज भी हमें सुन्दर महसूस नहीं होती । प्रेम हमें भिगोता है लेकिन  फिर भी हम सूखे ही रह जाते हैं । होली के रंग फीके और दिवाली के दिए बेरौनक दिखते  हैं । 
मनोविज्ञान , चाहे जो कहे की मनुष्य का व्यवहार बहुत से  रसायन मिल कर तय  करते हैं ।लेकिन  मैं सोचती  हूँ .कि  सदियों -सदियों से इस  सारी  दुनिया को सिर्फ इक ही रसायन ने थामे रखा है ।और वो है प्रेम रसायन ,  ये कभी नष्ट नहीं होता । ये शाश्वत है । यही है जो आसमान को झुकाता  है । धरती को महकाता  है । कहीं  पहाड़ तो कहीं वृक्ष बन जाता है । कहीं बूंद बन कर बहता है , कहीं रेत बन कर सिमटता है । कहीं गीत बन कर सजा कहीं साज बन कर बज उठा । कहीं रीत कहीं प्रीत कही हार कहीं जीत बन कर ढलता रहा है , ढलता रहेगा । कृष्ण की बांसुरी ने कभी किसी को आवाज देकर नहीं पुकारा , लेकिन यकीनन उस बांसुरी में ये रसायन सुर बन कर ढला होगा । राम के पवित्र पैरों से कोई, पत्थर स्त्री क्या यूँ ही बन गया होगा ? शिव की जटा  पर गंगा किस रसायन की वजह से थमी होगी ? 
दिखता नहीं पर , यक़ीनन  महसूस होता है । नसों में बहता है लहू बनकर । आसमानों से बरसता है , धडकनों में बसता है । दिलों में सिसकता  है तो आखों से टपकता है । गालों पे चिपके तो खारा लगता है । होठों पे सजे तो मीठा सा ..  इस प्रेम रसायन को महसूस किया जाये सबसे पहले स्वयं के भीतर और फिर सभी के भीतर ।
 अब तक उन प्यारे बच्चों का खेल  समाप्त हो चुका था । अपनी छोटे  -छोटे हाथों में वो पत्थर लिए जा रहे थे । मैंने उनसे पूछा क्या  है ,हाथ में ? वो हंस के बोले प्रेम रसायन हमरे पासा ....

4 comments:

Unknown ने कहा…

Post me pattharon ke jariye se prem ki ahmiyet kahi gayee hai...vicharon ka kram vyavasthit hone lekhan me aavasyak flow bana raha. jisse prem jaise udaaseen ho chuke visay me bhi tazgi bani rahi. jis daur ke prem ka jikkr hai vah ab anubhoot kiya ja sa sakta hai itihas ke panno per...lekin aaj bhi yesa ho na chahte hue kahna kathin to hai hi
shrish

18 अक्टूबर 2012 को 1:21 pm बजे
Unknown ने कहा…

Post me pattharon ke maadhyam se prem ki ahmiyet kahi gayee hai...vicharon ka kram vyavasthit hone se lekhan me aavasyak flow bana raha. jis se prem jaise udaaseen ho chuke visay me bhi taazgi bani rahi. jis daur ke prem ka jikkr hai vah ab anubhoot to kiya ja sa sakta hai per itihas ke panno per...lekin aaj bhi yesa ho. kahna kathin to hai hi

18 अक्टूबर 2012 को 1:57 pm बजे
Unknown ने कहा…

प्रेम रसायन, vahhh kya ras khoja hai. yah kis form me hota hai yah nahi batlaya!!!

19 अक्टूबर 2012 को 8:43 am बजे
मंजुला ने कहा…

हमेशा की तरह अच्छा ,बहुत संवेदनशील लिखा है ...
स्वयं को सबसे पहले हमें छूना होगा । खुद को जब हम महसूस करने लगते हैं ना , फिर हमें दूसरों को महसूस कर पाने की कला आती है । और फिर इक दिन हम अपने आसपास की सभी जड़, चेतन वस्तुओं को महसूस करने लगते हैं ।

ये पन्तियाँ बहुत अच्छी लगी
मेरा प्यार व शुभकामनाये
मंजुला

19 अक्टूबर 2012 को 10:55 am बजे

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