चकमक पत्थर
आसमान में उस रात कोई बड़ा भारी तूफान सा उठा था । कई ग्रह इधर से उधर हो गए तूफ़ान इतना तेज था की चाँद भी कहीं जाकर छिप गया और तारे -सितारे डर से सिमट गए शायद कोई खगोलीय घटना घटी थी । तेज आवाज के साथ इक बड़े से पत्थर जैसी चीज धरती पे जबरन धकेली गयी| नियति के मजबूत हाथों ने उसे फेंक दिया मानो वो उसे शाप दे रही थी ।
धरती तक आते आते वो पत्थर दो टुकड़ो में बँट गया इक टुकड़ा खारे समंदर में जाकर गिरा, तो दूजे को जलते रेगिस्तान ने पनाह दी । दोनों ही अपने भाग्य के भरोसे ,अपने आसमानी घर से दूर, अपने ग्रह से बहुत दूर आकर बहुत दुखी थे । यकबयक हुई इस दुर्घटनासे और नियति के इस खेल वे दोनों हैरान थे |
वे जहाँ गिरे वो अनजान जगह थी | न इस ग्रह(धरती) के निवासियों की भाषा उन्हें समझ आती और न ये लोग उनके ग्रह की भाषा समझते थे ।
दोनों नन्हें टुकड़े इस तरह अलग -अलग दिशाओं में अपना -अपना शाप काटने लगे ।
दोनों दिखने में साधारण पत्थर ही दिखते थे ऊपर से मटमैले से , खुरदुरे से | उनके भीतर भी आवाज है , संगीत है खुशबु है इस बात से धरती के सभी लोग अनजान थे । दुर्भाग्य से वो दोनों अलग -अलग स्थाओं में आ गिरे थे सो ,वो दोनों भी इकदूजे के अस्तित्व से अनजान थे लेकिन उनके भीतर की खुशबु उन्हें अक्सर खींचती थी | लेकिन वे समझ नहीं पाते थे | उन्हें अब उनकी तरह बोलने समझने वाला ,उनकी सुंगन्धो को पहचानने वाला कोई ज्ञानी दूर –दूर तक नहीं दिखता था |
इस दुःख से दुखी होकर उन्होंने खुद को बेजुबान कर लिया और धरती पे अफवाह फ़ैल गयी की "पत्थर बेजुबान होते हैं "
समय गुजरता रहा , जो टुकड़ा समन्दर में गिरा था उसने खारे समंदर में समाकर समंदर से कई अनमोल सिद्धियाँ प्राप्त की । समंदर में मिलने वाली अनेकों नदियों से उसने रवानगी सीखी , दूर देश से आने वाली लहरों ने उसे कई भाषाएँ सिखायी । समंदरी लुटरों ने उसे रूप बदलना सिखाया , छल करना सिखाया और मुखोटे लगाना सिखाया ।
नमक के बीच रह -रह कर वो खारा हो चला था ( अथाह जलराशि होने के बाद भी समंदर की इक भी बूंद किसी कि प्यास नहीं बुझा पाती है उसका खारापन कभी किसी प्यास को तृप्त नहीं कर पाता) ।
समंदर जबकभी उदास होता अपनी पीड़ा से घिर जाता तो , ये नन्हा पत्थर उसे गीत सुनाता उसका जी बहलाता समंदर ने उस से गीत संगीत सीखा और इसके एवज में उसे को इक नील मणि भेंट की । वो जादुई नीलमणि (इक इच्छा मणि ही थी )अब वो नन्हा पत्थर नीलमणि का मुकुट लगाकर इतराता था । जब कभी कोई इच्छा होती वो नीलमणि से पूरी करवा लेता | उसने कई सुन्दर गीत रचे | कई जुगनू बनाये | अब वो बहुत खुश था उसे अब अपने ग्रह की स्मृति कभीकभार ही आती । अगर आ भी जाती तो वो मछलियों से बातें करता लहरों को निहारता उनसे मित्रता कर लेता लेकिन अक्सर रातों को कोई आवाज उसे पुकारती लेकिन वो कुछ समझ नहीं पाता। अगले ही पल वो फिर उस आवाज़ को अनसुना कर अपनी धुन में खो जाता कोई गीत गाने लगता या शंख -सीपियों से खेलने लगता ।
"समय ने फिर इक चक्र पूरा कर लिया था। "
अबकी फिर भयंकर तूफ़ान उठा, लेकिन इस बार अम्बर नहीं,धरती डोली थी । आसमान की तरफ देखकर काँपी थी । धरती की पुकार पे आसमान रो दिया। धरती के कम्पन और आसमान के रुदन से ,कई समंदर उफन पड़े और रेगिस्तान जल में समां गए। …रेत का हर कण मानो अपनी सदियों से बिछड़ी बूंदो के गले मिल रहा था । उस दिन फिर से इकबार फिर से नियति ने उस नन्हे पत्थर को समंदर से उठाकर रेगिस्तान में लाकर पटक दिया। तूफान के थम जाने पर उस नन्हे पत्थर ने महसूस किया उसका समंदर गायब है और उसकी नीलमणि भी, टूट –फूट गयी है अब वो चमकती भी नहीं ।
इस नयी जगह आकर वो बहुत रोया और तय कर लिया की इस नयी जगह नए लोगो से अब वो कोई सम्बन्ध नहीं रखेगा । उसके दिल की बस्ती क्या यूँ ही बार -बार उजाड़ी जायेगी |
अक्सर वो ऊपर आसमान की तरफ देखकर हमेशा उन शाप देने वाले हाथों को देखता था और उदास हो जाता |
उसने ईश्वर को मानना छोड़ दिया । अब वो ख़ामोशी से इक कोने में पड़ा रहता था ।
इक रात उसे फिर से किसी कि पुकार सुनाई दी | अब साफ –साफ वो सुन पा रहा था | जैसे कोई आसपास ही हो |
तभी उसे इक अजीब सी गंध भी महसूस हुई बहुत सोचा बहुत सोचा लेकिन वो जान नहीं पाया कि आखिर ये किसकी गंध है क्या सुगंध है ? ये जानी पहचानी सी क्यों है ? परेशान होकर वो मन ही मन खीज उठा और बरसो पहले खोयी हुई आवाज में बोल पड़ा " क्या चीज है? क्या जादू ? उसी पल इक मीठी हंसी उस रेगिस्तान में गूंजी और जवाब आया ।
" हम्म्म, तो तुम आ गए ? "
"कितनी सदियां बीती है न ? " (इक हुबहू उसी के रंगरूप का नन्हा पत्थरमुस्काया ,उसके मुस्काने से हर बार रेत गिरती थी चमकती थी )
"कौन हो तुम ? " जो मेरी बोली बोलती हो “ मेरी तरह दिखती हो ? मुझे सुन समझ सकती हो बोलो ? “
मैं ? तुम्हारा ही बिछड़ा हिस्सा हूँ याद है हम कभी उस “ सुगन्धितग्रह” पे रहते थे और महका करते थे |इकदिन किसी गलती की वजह से हमें उस सुंगंधित ग्रह से यहाँ धरती पर फेंक दिया गया था | चूँकि हम इक ही मिट्टी के थे इसलिए हम दोनों में से इक जैसी खुशबु आती है( वो फिर मुस्काई )
अब तक उस नन्हे पत्थर की सुंगंध ने समंदरी पत्थर को परेशान कर दिया था । उसने उस अजनबी पत्थर को परे हटाने कि कोशिश में उसे छुआ | लेकिन उसे छूते ही उन दोनों पत्थरों में से इक " अलौकिक चमक" निकली उस चमक से वो पूरा द्वीप रोशन होगया | वो आतिश , वो स्पार्क, वो रौशनी देख कर समंदरी पत्थर हैरान हो गया बोला " अब ये क्या तमाशा है? "
“ ये तमाशा नहीं, ये बरसों कि प्रतीक्षा है , साधना है , आराधना है , तुम्हे बहुत पुकारा मैंने “
“ हम्म
" तो तुम मुझे पुकारा करती थी उन दिनों जब मैं समंदर में रहता था ? “
"बिलकुल ..और कौन है यहाँ ? इस धरती पे मुझ जैसा, तुम जैसा "
, मैं जानती थी तुम कहीं तो जरुर हो, तुम -हम साथ ही तो निकाले गए थे आसमान से ..और इस ग्रह पे गिरे थे हमें मिलना ही था किसी भी तरह कभी भी |
तुम्हे आना ही था एक दिन ..कहकर वो नन्हा पत्थर फिर हंसा ...और बोला
"
" क्या मैं तुम्हे इक कहानी सुनाऊँ ?"
मुझे किस्से कहानियाँ पसंद नहीं उनमे तर्क नहीं होते मुझे जाना है यहाँ से “तुम्हारी बातों में मुझे कोई रूचि नहीं " (फिर वो चला गया )
वो फिर अलग हो गए ।
"जल्दी ही वो वापस आ गया दोनों फिर मिले ,बार -बार जाना और फिर आ जाना उस समंदरी पत्थर की फितरत थी | उसने ये हुनर लहरों से सीखा था |
उन दोनों के भीतर से उठती खुशबु और चमकती चिंगारी उन्हें बार -बार समीप ला रही थी ।
जल्दी ही वे मित्र बन गए घंटों बातें करते , रेतीले पत्थर ने उसे बताया की उसने अकेले रहकर इस रेगिस्तान में प्यासे मर -मर कर पानी का महत्व जाना है| प्यास को पहचाना है । जलती रेत के बीच उसने शीतलता की कल्पना बुनी है । उसने बताया “मैं नहीं जानती बूंद और समंदर में फर्क क्या है ? पर , मुझे इतना पता है इक बूंद ही समंदर जितनी बड़ी है अगर वो आपको तृप्त कर दे “|
“मैंने कभी हरियाली नहीं देखी इसलिए देह के रेगिस्तान में मन के छोटे मरुद्यान रच लिए । मुझे रेत के हर कण ने सिखाया कि, आसूं जब सूख जाए तो रेत हो जाते हैं। ये प्रेमका स्थान है, रेत का हर कण प्रेम की पहचान है इसलिए मैं प्रेम से भरी हूँ ।
हमदोनो के बीच जो रसायन काम कर रहा है हम वो अपने उस ग्रह से लेकर आये हैं । ये खुशबू और ये आग भी। समझे तुम ?"
"झूठ सब बकवास "(ये सब बेकार कि बातें है समंदरी पत्थर बोल पड़ा)
तुम्हारे और मेरे मिलने से हमारे बीच जो स्पार्क या आतिश दीखता है ये मेरे भीतर की आग है मुझमे दिव्य-शक्तियां हैं | , इक तूफ़ान में मेरी नीलमणि टूट गयी वरना मैं तुम्हे दिखाता कितनी चमक है मुझमे"|
" मैं तुम्हारा नीलमणि फिर से जोड़ सकती हूँ "
"क्या ? असम्भव है ये अब "
“कुछ भी असम्भव नहीं होता ( वो मुस्काई ) “
“कल सुबह हो जायेगा बस तुम ये वादा करो रोज मुझसे मिलने इसी जगह आओगे " और हमेशा इस नीलमणि को सम्भाल कर रखोगे इसे कभी टूटने मत देना वरना मैं दोबारा नहीं बना सकुंगी “।
“वादा " (और वो चला गया उसकी तरफ बिना देखे )
उस रात उस रेतीले पत्थर ने अपनी चंद साँसे उस नीलमणि के भीतर रख दी और नीलमणि फिर से चमकने लगी । समंदरी पत्थर की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था अब वो सभी जगह जा सकता था अपनी चमक लेकर । अब वो रोज नए गीत रचता , फूल खिलाता , उसके खिलाये फूलों में कमाल की खुशबु होती थी| उसके बनाये गीतों में मधुर संगीत और उसके बनाये जुगनू और तारे चम् -चम् चमकते थे |
उस रेगिस्तान के लोगो ने उन दोनों को "चकमक " पत्थर कह कर पुकारना शुरू कर दिया |
वे दोनों फिर से गहरे मित्र बन गए , अपने बिछड़े हिस्से से मिलकर दोनों बहुत खुश थे । वे दोनों एकदूजे की भाषा जानते थे । अपने ग्रह के बोली बोलते थे । गीत गाते थे । दुनिया से बेखबर थे | वो भी एकदूजे को चक और मक नाम से पुकारने लगे । अब समंदरी पत्थर का नाम “चक “ और रेगिस्तानी पत्थर का नाम “मक “ हो गया था |
और दोनों खुद को चकमक कहकर खूब हंसते थे | उनके हंसने से उस मरुस्थल में फूलों की क्यारियाँ खिलती थी और ऊपर आसमानों में तारे चमकते थे | वो दोनों अब नियति को धन्यवाद देते थे |
और दुआ मंगाते थे की वे हमेशा साथ रहे |
फिर समय का चक्र घूमा अब तीसरी बार फिर तूफ़ान आया, न न अबकी न आसमान में आया था न धरती काँपी थी । अबकी बार उन दोनों के बीच तूफान आया था अपने अहम् का , इगो का , स्वाभिमान का अभिमान का ।
उसदिन "चकमक " पत्थर आपस में फिर झगड़ पड़े ।
"तुम जानते हो इस धरती पे बस इक तुम ही हो जो मेरी भाषा समझते हो और मुझे भी , फिर भी तुम न मेरी कोई बात सुनते हो न अपनी कहते हो "
"तुम मेरे पास जब ही आते हो जब तुम्हारा नीलमणि अपनी चमक खोने लगता है | है न ? (मक ने शिकायत की )
"तुम कोई अहसान नहीं करती मुझपे , मेरी मित्र हो क्या इतना भी नहीं करोगी ? " मत भूलों की तुम्हारे भीतर ये सांसे मैं ही भरता हूँ मेरी ही खुशबु से तुम महकती हो | मैं अगर ये क्यारियाँ नहीं सजाता तो कभी ये मरुस्थल , मरूद्यान में नहीं बदलता | (चक ने तर्क दिया )
" मत भूलो चक , हम दोनों के मिलन से ही इस अन्धकार में रोशनी है । हमारे बीच का प्रेम रसायन ही यहाँ फूलों में खुशबु भरता है"
तुम्हारे ज्ञान से कब इंकार है लेकिन मेरा प्रेम भी इस “चमक में भागीदार है | (मक की आखों में आसूं आ गए )
" हा हा हा.... मुझमे वो ज्ञान है की मैं हजारो चाँद सूरज बना सकता हूँ । "
हजारों क्यारियां खिला सकता हूँ " उन्हें महका सकता हूँ | "
" और, सुनो ! ये स्पार्क ये आतिश ये चमक सिर्फ तुम्हारी वजह से नहीं है मैं किसी साधारण पत्थर को भी छू लूँ न तो वो भी "मक " बन जायेगी " हा हा हा "(" चक ने बड़े अभिमान से कहा )
" तो जाओ न बना लो इक हजार "मक " कोई तेरे वादे पे जीता है कहाँ ? "
वे दोनों एक बार फिर अलग हो गए (इस बार के तूफ़ान ने प्रेम और ज्ञान को एकदूजे से अलग कर दिया था ।"
ज्ञान चला गया , प्रेम चुपचाप वहीँ रह गया ।
ज्ञानी पत्थर ने अपने ज्ञान मणि से हजारों चाँद , सूरज बनाये , कई तारे -सितारे बनाये लेकिन वो चमक नहीं आ सकी जो पहले आती थी ।
फिर उसने अपनी दिव्य शक्तियों से कई सुन्दर क्यारियां खिलाई फूलों में सुन्दर रंग भरे लेकिन अफ़सोस उनमे कोई खुशबु नहीं आती थी ।
अब कोई खुशबु नहीं थी उसके पास , न कोई चमक ।
दुःख और क्रोध में उसने अपने नीलमणि को उठाकर जमीन पे पटक दिया। ।वो नीलमणि जो उसका गर्व था , अभिमान और स्वाभिमान था आज वो नीलमणि उसकी बात क्यों नहीं मान रहा था ।
जमीन पे गिरते ही नीलमणि हजारो टुकड़ो में बंट गया ।
हर टुकड़ा चमकता था और उसमे उस समंदरी पत्थर का रूप दिखता था । हर टुकड़े में अपने अंश को देख कर चक फिर से इकबार गर्व से भर गया ।
उसके चारों तरफ अब उसकी तरह के बहुत से पत्थर थे । जो हुबहू थे उसकी तरह , वो उनसे बात करता उन्हें गीत सुनाता और खूब हँसता ।अपने व्यक्तित्व के हजारो टुकड़े कर लिए थे उसने | बिखर गया था वो |
समय गुजरता रहा।
उधर "मक " अपने प्रेम को लिए अकेले चुपचाप रहती रही | अपने प्रेम और आसुंओं से उसने इक नदी बनायीं उसमे अपने प्रेम को रोज बहा देती थी| प्रेम कि सुगंध से नदी का पानी सुंगंधित होने लगा था । वो दूर से "चक " को तकती थी उसके बनाये फूल और तारे देखती , । अपने हिस्से के, अपने चक के विखंडन को देख वो मन ही मन पीड़ा से भर –भर जाती थी | वो जानती थी ‘चक ‘ के बनाये ये सभी अंश मात्र मशीनी हैं उनमे खुशबु नहीं,चमक नहीं है |
चक अब बदल चुका था |अब बिखर चुका था , कई रूपों में , अब उसका इक नाम नहीं ,इक पहचान नहीं थी , अब उसके पास वो रसायन भी नहीं था जो मक के साथ मिलकर इक अद्भुत रौशनी बनाता था । लेकिन वो अभी भी अपनी ज्ञान की प्रयोग शाला में “क्लोन “ बनाने में व्यस्त था | उन्हें रोज नए नाम देता , नयी आवाज देता , नयी पहचान देता लेकिन प्राण नहीं डाल पाता | रोज नए फूल खिलाता अपनी शक्तियों से हुनर से सुन्दर –सुन्दर रंग भरता लेकिन खुशबु नहीं ला पाता | अब वो बहुत दूर चला गया था | किसी घने जंगल में शायद इस फ़िक्र में की उसके बनाये तारे सितारे पहले की तरह चमकते क्यों नहीं ? , और उसके बनाये इन सुन्दर फूलों में से खुशबु क्यों नहीं आती ? जल्दी ही उसे इस समस्या का समाधान मिल गया |
एक दिन किसी सिध्द महापुरुष ने चक को बताया की जलते रेगिस्तान के बीच इक शीतल मीठी नदी बहती है उसका पानी सुंगंधित है, पवित्र है | तुम उसके जल से इन फूलो में सुगंध पैदा कर सकते हो ।
चक उस नदी की खोज में चल पड़ा और फिर नियति उसे, उसी नदी किनारे ले आई जहाँ उसे पहली बार वो रेतीला पत्थर “मक “ मिली थी |
" तुम ? तुम अब भी यही रहती हो ? " (चक ने हैरानी से पूछा )
" हाँ ................ मुझे कहाँ जाना था ? तुम्हे ही जाना था " (मक ने धीरे से कहा )
" बहुत दिनों बाद दिखे , क्या किया इस बीच ? "
" अरे ...बहुत कुछ , तुम जानती हो ? मैंने इंसानों की भाषा सीखी , उनके हुनर सीखे , कई बड़े काम किये , पुल बनाना सीखा , नदियों को बांधना सीखा | " ये सब मैंने अपने ज्ञान के बल पे किया | "
मैंने कई हजार पेड़ लगाये , अपनी शक्तियों से कई तारे बनाये सूरज भी रच डाले '
" तुम हमेशा प्रेम के नारे लगाती रही क्या कर पायी तुम अपने प्रेम के बल पर बताओ ? "
मैंने देखो कितने जुगनू बनाये , मेरे ही अंश है सब जिनसे रोशन है कई द्वीप |
मैंने कई जातियों के फूल खिलाये कई रंगो के , दुनिया लोहा मानती है मेरी कला और हुनर का " (चक अभिमान में बोले जा रहा था )
"हम्म्म ………। इस तरफ कैसे आना हुआ ,आज बरसो बाद ? " (मक ने दर्द भरी आवाज में पूछा )
" सुना है यहाँ कोई नदी बहती है जिसके पानी में सुगंध है क्या तुम मुझे उस नदी का पता बता सकती हो " वो पानी लेने आया हूँ|
"हम्म....... आज रात जरुर ' (मक ने ठंडी आह भरी )
‘ ओह! हो समय ही नहीं है बहुत काम है मुझे , ठीक है फिर भी,जरा जल्दी करना"
" सुनो ...तुम्हारी बहुत याद आई इस बीच लेकिन बहुत व्यस्त रहा मैं " (चक ने नीलमणि को छूते हुए कहा )
"हाँ …तुमने इंसानों की भाषा सच में सीख ली है (मक ने मुस्काने की असफल कोशिश की ) इस बार इक भी रेत का कण नहीं गिरा |
उस रात फिर इक तूफ़ान आया था लेकिन अबकी बार सिर्फ "मक " के मन में। जिसकी भनक तक "चक " को नहीं हुई ।
उस अमावस की रात को जब चक की आँख लग गयी| मक ने बहुत ही प्रेम और विश्वास के साथ "चक " का माथा चूमा और अपनी बची –कुची साँसे उस नील मणि में उड़ेल दी । अब नीलमणि में खुशबु पैदा हो गयी थी । अपनी सारी दुआएं , प्रेम और प्राण सब …रसायन अब "चक " के हिस्से में आ गए थे ।
क्या कर रही हो मेरे नीलमणि के साथ ? “ (नींद खुल गयी चक की )
“चुराने का इरादा है तुम जलती हो न शुरू दिन से ही इस मणि से (चक जोर से हंसा ) “
बदले में "मक " मुस्कायी ।
नाराज मत हो मैं तो सिर्फ तुम्हारा माथा चूम रही थी , मणि नहीं। और हाँ अब तुम्हे नदी का पानी ले जाने की जरुरत नहीं है | अब तुम खुद दुनिया की हर शै में सुगंध भर सकते हो "
"कैसे "? और वो नदी का पानी ?
‘ उसकी अब जरुरत नहीं “
" वो नदी मैंने ही बनायीं थी, तुम्हारे बिन तुम्हारे प्रेम का क्या करती मैं ?तुम बिन मेरा मन ही नहीं लगता था | मन समझते हो तुम ? मुझे यहाँ किसी की बोली समझ नहीं आती थी न इन्हें मेरी | मैंने प्रेम को आसुओं में मिलाकर बहाना शुरू कर दिया था। प्रेम में ही सुगंध होती है और चमक भी| इस धरती पे खिलने वाले हर फूल में रसायन है और आसमान में चमकने वाले हर तारे में भी | तुम जब गए तो मुझसे मिले बिना ही चले गए थे और ये रसायन मेरे पास ही रह गया | मेरे प्रेम से तुम चमकते थे “”चक “"
प्रेम इक व्यक्ति ही करता है , दूजा तो बस उसकी चमक से उसके ताप से उसकी आंच से चमकता है | “तुम और मैं जब मिलते थे तो दोनों का रसायन साथ काम करता था इससे इक अद्भुत रौशनी बनती थी । ये इंसान हमे इसीलिए चकमक पुकारते थे । “
उन दिनों जब हम साथ थे , मैं रोज तुम्हारे नीलमणि में चुपके से प्रेम भर देती थी और कुछ सांसे भी तुम्हारे माथे पे धर आती थी । तुम अनजान थे इस बात से , फिर इक दिन तुम्हे गुमान हो गया। तुम चले गए |
मेरे मना करने के बाद भी तुमने नीलमणि का मान नहीं रखा मेरी बात का भी, मेरे प्रेम का भी है न ?और बिन बोले चले गए मेरी सभी सांसे तुम अपने साथ ले गए और सारा प्रेम रसायन मेरे पास छोड़ गए |
नीलमणि को तुमने जैसे ही तोड़ा उसके भीतर जो मेरी सांसे थी वो बिखर गयी । अब मेरा नष्ट होना तय है इक अंतिम सांस मैंने बचाकर रखी थी और अंतिम दुआ और इक प्रेम का अहसास भी जो आज रात इस मणि में रख दिया है ।
अब कभी भी ये मणि निस्तेज नहीं होगी ।
“मैं अपनी अंतिम साँस रख दी है, तुम्हारे माथे पे “
अब तुम पूर्ण रूप से चकमक हो | "
" सुनो ........ रुको , तुम मुझे छोड़ कर नहीं जा सकती " (चक की आखें नम थी )
उसने बढ़कर "मक" को रोकने की कोशिश की , उसे थामना चाहा चक के छूते ही फिर दोनों के बीच वही अद्भुत बिजली चमकी और पल भर में वो रेतीला पत्थर रेत में बदल गया , बिखर गया, मिट गया..... |
1 comments:
बहुत सुन्दर
आप तो गद्य में भी कविता का भाव दे देती हैं
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