मेरा तो , रब खो गया.........

गुरुवार, सितंबर 20 By मनवा



उस दिन पूरे घर में कोहराम मचा हुआ था | दादी परेशान थी , हैरान थी , रुआंसी हो उठी थी | उनके ठाकुर जी की बंसी खो गयी थी | ठाकुर जी को तो कोई चिंता नहीं थी पर दादी बहुत दुखी थी | बहरहाल थोड़ी देर बाद  बंसी मिल ही गयी | दादी इतनी खुश की जैसे ठाकुर जी ने दर्शन दे दिए हों | रोजमर्र्रा के काम और जल्दबाजी में अक्सर किसी न किसी  का कुछ न कुछ खो ही जाता | माँ , अक्सर अपनी अलमारी की चाभी खो जाने पर परेशां हो जाती | पिताजी के प्राण उनकी कलम में बसते | भाई की जान गाडी़ की चाभी में , तो बहन की साँस मोबाईल में ...इन सब चीजों को ये कभी आखों से ओझल नहीं करते , और जो ये इनकी प्रिय वस्तु खो जाये तो ..इनकी दुनिया ही बेकार हो जाये | यानी सबने अपने -अपने रब बना लिए है , अपनी सुविधा , जरुरत और ख़ुशी के लिए अपने -अपने खुदा गढ़ लिए हैं |  अपने खुदा ,जिन्हें पाकर , जिन्हें पास रखकर वो खुश हैं | जैसे  किसी शराबी को बोतल में रब दिखता है , किसी व्यापारी को नोटों की हरियाली में इश्वर दिखता है | किसी सुन्दर महिला को आइना ही खुदा जैसा दिखता है,किसी प्रेमी को अपनी  प्रियतमा में  | किसी दिन इनकी  ये प्रिय चीज खो जाए तो उसे  ढूढ़ने के लिए पागल हो जाए  |
 उस दिन किसी मंदिर के बाहर बहुत भीड़ देखी , सभी का कुछ न कुछ खोया था , किसी का धन , किसी का मन , किसी का तन (स्वास्थ्य ) कोई भाग्य खोज रहा था , कोई शांति , कोई ख़ुशी , कोई हंसी , कोई आनन्द ,कोई शोहरत ,कोई शक्ति , कोई मुक्ति कोई दीवाना  प्रेम खोजता था | सभी अपनी अपनी मन्नत के धागे बांध देने को आतुर थे | मन्दिर की चौखट मुझे देख हंसी , बोली तुम्हारा भी कुछ खोया है क्या ? 
हाँ ..हाँ  मेरा तो रब ही खो गया है | तुमने देखा है क्या ? बोली जाओ भीतर देखो होगा ...मैं बोली भीतर इक छोटे कमरे में इक पत्थर की सुन्दर मूर्ति है | जिसे  चढ़ावा  चढ़ा का लोग खुश कर रहे है | मेरा रब , पत्थर का नहीं होगा , न उसे मेरे किसी  चढ़ावे की जरुरत होगी | वो यहाँ नहीं हो सकता | वो शायद उस मस्जिद में हो किसी न सुझाया .. देखो वहां ...जहाँ जोर -जोर से पुकारते है लोग अपने खुदा को ..नहीं नहीं  मेरे रब को जोर से पुकारने की जरुरत नहीं , वो तो मेरी सांसों की आवाज को सुन कर ही आ जाता था | जब -जब उसे याद किया , वो भीतर ही महसूस हुआ | 
पर वो  अभी तो यही था ,इक पल में ना जाने कहाँ गया |  फिर किसी ने  इशारा किया, वो उस तरफ बहुत से लोग कुछ पढ़ते हैं वहां जाओ ,इक मोटे  ग्रन्थ को बहुत से लोग पढ़ते थे | उस किताब में वो छिपा है शायद ...मुझे उस किताब की कोई भाषा समझ नहीं आई | आखें बंद करो तो दिखे , खोलो तो गायब ..इसीलिए मैं उसकी कोई किताब , कहानी , कविता नहीं पढ़ सकी , वो किसी भी कहानी या गीत में नहीं मिला , उसकी किताब में भी वो कहीं नहीं था | क्या मेरा रब किसी किताब में व्यक्त हो सकता था ? क्या वो इतना  दयनीय था की उसे सूली पर लटका दिया जाता ? अपने सवालों के साथ थक कर जरा बैठी ही थी इक फकीर वहां से गुजरे ..क्या खोजती हो वो मुस्काए ..बाबा  मेरा रब खो गया | कभी देखा था उसे ? कभी मिली हो उसे ? जो उसे इन बाजारों  में खोजने चली आई ....क्या करोगी उससे मिलकर ? 
| रब जब खोता है ना , तो सब खो जाता है | फिर सारी दुनिया बेमानी लगती है | वैसे कुछ खास काम नहीं था उससे | बस चंद सवाल ही करने थे , वो जो मिल जाता तो पूछ ही लेती ...लेकिन उसका कोई पता ठिकाना ही नहीं | जो भी पता वो देता है , छलिया उस पते पर कभी नहीं मिलता | ना मंदिर में दिखा ना मस्जिद में ,,रहता कहीं और है , और पता कहीं और का देता है | जो दिखता नहीं , उसे कोई कैसे खोजे ? जो दिखाई ना दे , सुनाई ना दे ,ऐसे लापता रब को कहाँ -कहाँ खोजूं  ? उसकी  आंच में  जलना , कांच पे चलने जैसा ही कठिन है | 
दो आखें उसे क्यों खोजती है ? जो कभी मिला ही नहीं | क्यों वो जब चाहे जी भर के हंसा जाता है हमें | और वो जो चाहे तो जार -जार रुला जाता है | ऐसे भी कोई किसी को सताता है ?  कभी तो सारी दुनिया कदमों में डाल देता है तो कभी ....सब कुछ ले जाता है अपने साथ ..खाली हाथ उसके पीछे -पीछे  चल देते है हम | वो जब -जब चाहे अपनी मर्जी से हमें तोड़ता है | जहाँ नहीं चाहे हम वो हमें वही जाकर क्यों जोड़ देता है ? जब वो चाहता है खुद में मिला लेता है | जिस पल हम उसे अपना हिस्सा मानने लगते है | जीने लगते , ठीक उसी पल वो छोड़ जाता है हमें | उसके खेल निराले | उसके छल भी अनोखे |कहीं जो मिल जाए तो उससे पूंछू की , कितना आसान है ओट में छिप कर हंस लेना | कितना मुश्किल है जीवन की कठिनाइयों का सामना करना | कितना आसान है ना परदों  में छिप जाना , गुम हो जाना , कितना दुःख भरा है खोजना ....कितना आसान है ना ,कहना  संभल जाओ , लेकिन कितना  कठिन है ना  खुद को सम्भालना  | कितना आसान  है न दायरों में , सीमाओं में , रेखाओं में बंधने की  हिदायतें देना , लेकिन कितना कठिन है ना , सीमाओं के भीतर पल -पल  मर जाना | 
कितना आसान है जीने का हुकुम देना ....कितना कठिन है जीने का स्वांग करना | .जब उसे  लापता होना ही था | गुम होना ही था | तो आना ही क्यों ? ये खेल , ये छल , उसका  चैन नहीं छीनते ? सदियों से तलाश है उसकी .....क्यों नहीं मिलता  ? उसके  लिए मर -मर कर जीते है लोग ...क्या ज़रा भी  इल्म है उसे  ? उसने  देह को दायरों में बाँध दिया , हदें बना दी ....खोजने वालों ने अपनी रूहें  जगा ली ..अब वो क्या करेगा  ? उसकी  खोज में , रूहें जल -जल कर कुंदन बन गयी | आखें सागर ...हो गयी |  इस कदर  दर्द बढ़ा की अँधेरे  रोशनी में बदल गए , आसूं ,,मुस्कान हो गए | वियोग ही योग हो गया ....इतना महसूस किया उसे  की वो हर जगह हो गया ....किसी रोज ऐसा ना हो की लोग   उसे खोजना ही बंद  कर दूँ | फिर क्या करेगा वो ? उसे पुकारना बंद कर दें | महसूस करना भी .या .किसी दिन परेशान होकर  हम  उसे भूल ही बैठे .... फिर किसी दिन घबरा कर वो धरती पर आये | अपने होने के सौ कारण गिनाये | अपनी उपस्थिति का अहसास कराये  और कहे ,  देखो मैं हूँ तुम्हारा खोया रब  .... और हम कहे... .आप .कौन ? मेरा रब , तो खो गया .....

5 comments:

बेनामी ने कहा…

nice

22 सितंबर 2012 को 10:20 pm बजे
sanjay david ने कहा…

kya gahari hai aapki lekhani... ek antaratma ka voh pahalu jo har kisi ko chhuta hai, pareshan karta hai... use aapne aaina me rakh diya.. i really loves ur feelings which u expressed here in this writing ... thnx and congratulations..

28 सितंबर 2012 को 4:42 pm बजे

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