एक्वेरियम

गुरुवार, दिसंबर 18 By मनवा , In

उसे खुद को छिपाने के सौ हुनर आते थे , न वो कभी खुल के हंसता किसी बात पे, न कभी अपनी मन की बात कहता था | बस उसे दूसरों को सुनना , जानना पसंद था | जब वो किसी से बात कर रहा होता तो मैं चुपके से उसका  किताबी चेहरा पढ़ती थी
उसका चेहरा  एक्वेरियम जैसा लगता था मुझे | जिसके पार अनेक मछलियाँ डूबती उतरती दिखती थी मुझे | कभी दर्द की नीली मछली , कभी अवसाद की, अपराधबोध की काली मछली, कभी, उत्साह की सुनहरी मछली तैरती दिखती थी | उसके प्रेम की गोल्डफिश अक्सर कोने में न जाने क्यों छिपी रहती थी
जब -जब भी वो किसी भी बात पे नाराज होता मुझे उसके चेहरे पर पिराना मछली उभरती दिखती थी
और जब वो अपनी झूठी जिद में आकर कोई दुःख देता तो मुझे उसमे झगडालू शार्क नजर आती , मैं अपने इस मछली प्रेम पर मन ही मन मुस्काती | और फिर उसके चेहरे में खो जाती
कभी -कभी मुझे वो पूरा ही एक्वेरियम नजर आता था | भीतर से पानी से भरा -भरा सा लेकिन क्या मजाल है इक बूंद भी पानी बाहर  छलके | बस उसके भीतर उसकी इच्छाएं बहती थी | हम सभी के भीतर बहती है लेकिन जो पारदर्शी कांच के बने होते है न उनके भीतर झांक लेना आसान होता है
मैं तो पत्थर की बनी थी न इसलिए वो कभी झांक नहीं सका ,लेकिन मैंने उसके भीतर समंदर बहता देखा
कभी -कभी उसके भीतर स्नेह का आक्टोपस देखा , जो अपनी आठ भुजाओं से घेर लेता था मुझे तो कभी उसे संकोच से कछुएं की तरह खुद को छिपाते और पत्थर होते भी देखा मैंने
वो कई जन्मो तक कछुआ ही बना रहा , इस बीच मैंने तो उसे मरा हुआ ही मान लिया था | कई बार आवाज देने पर भी जब वो नहीं हिलता तो उसे हौले से छूना पड़ता था | तब कहीं जाकर वो जरा हिलता था
उसके जरा सा हिलने से उसके जिन्दा होने की तसल्ली कर लेती थी
जब वो अपने काम पर जाता और संसार भर के दुखों को अपनी गठरी में भर लाता तो वो मुझे वो सकरफिश सा नजर आता था
जब मैं उसे कहती "हमने देखी है इस चहरे पे तैरती मछली " तो वो झट से अपने चहरे के भाव बदल लेता ....और हैरान होता
उसे कभी समझ नहीं आया उसकी मन की मछलियो की परछाइयों को मैं कैसे देख लेती हूँ | उसे कभी पता नहीं चला मैंने मन पढने की तालीम हासिल की थी कभी ..
हाँ , वो कांच का एक अनमोल एक्वेरियम था जिसे बहुत ही प्यार से संभालने की जरुरत थी
मैं जानती थी ,अगर ये एक्वेरियम टूटा  तो उसकी सारी मछलियाँ बाहर गिरकर मर जायेगीं
मछलियाँ उस एक्वेरियम के भीतर जिन्दा थी पर मैं उन्हें छू नहीं सकती थी | एक कांच की दीवार थी हमारे बीच
और मैं उन सुन्दर मछलियों को पानी से बाहर लाकर हथेली पे रखकर बहुत पास से देखना चाहती थी, लेकिन मुझे वो नर्सरी में पढ़ी कविता आज भी याद थी मछली वाली , बाहर निकालो मर जाती है “ मछली के मर जाने के ख्याल से ही मैं काँप जाती थी | अब मैं उसे चाहते हुए भी कम देखती थी |

हम दो अलग -अलग दुनिया में रहने वाले लोग थे | एक पानी के भीतर जिन्दा और दूसरा पानी के बाहर जीवित | मैं कभी नहीं चाहती थी वो एक्वेरियम टूटे या छूटे इसलिए मैंने उसे एक सुरक्षित स्थान पर उसकी मछलियों के साथ छोड़ दिया था

अफ़सोस

बुधवार, दिसंबर 3 By मनवा , In

वो जब मेले में पहुंचा तो उसकी आखों के सामने हजारों रंग-बिरंगी दुकाने सजी थी |दुनिया भर की जरुरत का सामान उस मेले में बिकने को तैयार था सभी दुकानदार अपनी चीजों के नाम ले-लेकर उनके गुणों को बखान रहे थे अभी उसने आधा मेला भी ठीक से नहीं देखा था और कुछ ख़रीदा भी नहीं था दरअसल वो  चंद सिक्के लेकर ही आया था और वो उन्हें यूँ ही किसी बेकार सी चीज में खर्च करके खतम भी नहीं करना चाहता था सो उसने सोचा उसके पास सिक्कों की कमी है तो क्या हुआवक्त की तो नहीं 
 इसलिए पहले पूरा मेला घूमा जाए और फिर खूब सोच विचार कर इन थोड़े से पैसों को समझदारी से खर्च किया जाये 
ऐसे मौकों पे अक्सर उसके दिल और दिमाग आपस में झगड़ पड़ते थे उसका दिल उसे  अक्सर परेशानी में डालता था और दिमाग उसे हमेशा उन परेशानियों से निकाल लेता था 
आज जब वो मेले में आया तो दिल और दिमाग दोनों को उसने चुप करा दिया था बस आज वो अपनी आखों को खुला रखे हुआ था |
 सभी सजी -धजी दुकानों में रखी  हुई चीजे उसे आकर्षित कर रही थी|  वो मन्त्र -मुग्ध सा उन्हें देखे जाता और मुस्काते हुए आगे बढ़ जाता अभी दो कदम चला ही था कि उसे 
रंगबिरंगी सजी- धजी दुकानों के बीच में सड़क पे एक खिलौने बेचने वाली  स्त्री दिखाई दी जो अपनी बांस की टोकरी में कुछ मिट्टी के खिलौने बेच रही थी 
उन खिलौनो के बीच उसे एक बहुत ही सुन्दर गुड़ियाँ दिखाई दी उसकी बनावट और रंग इतने सुन्दर थे की वो रुक गया बहुत देर तक उस मिट्टी की गुड़ियाँ को निहारते रहा | उस मिट्टी की गुड़ियाँ के होठों पे अजीब सी रहस्यमयी मुस्कान थी और आखों में एक विशेष आकर्षण सा,उसकी आखें बोलती थी  या लब ये समझ नहीं आ रहा था लेकिन उसे न जाने क्यों ऐसा लगा उसे अभी उस गुड़ियाँ ने उसे एक आवाज दी हो | और वो रुक गया था ख़ामोशी से ..|
उसे वहां रुका देख खिलौने वाली मुस्काई और बोली
 “कुछ खरीदना है बाबू ? "
“मैंने अपनी जिन्दगी में ऐसी सुन्दर गुड़ियां कभी नहीं देखी ये मुझे चाहिए ही चाहिए “
 (उसके दिल ने पहली बार उसे सलाह दी हाँ तुम इसे ले लो अभी के अभी ) 

तभी दिमाग ने उसे चेताया सुनो ..”पागल मत बनो”अभी तो मेला शुरू हुआ है ,अभी से पैसे खर्च कर दोगे आगे इससे बेहतर दुकाने होगीं और इससे लाख दर्ज बेहतर खिलौने भी अभी इसे खरीद कर कहाँ बोझ लिए फिरते रहोगे मेले का मजा भी नहीं ले सकोगे न झूलों का न खाने पीने का “...दिमाग ने अपने तर्क दिए ) 
दिल ने आखरी बार बोला “और अगर पूरा मेला घूमने के बाद भी ऐसी गुड़ियाँ नहीं मिली तो और ऐसा भी हो सकता है इसे कोई और खरीद ले जाये " 
उसने दिल-दिमाग दोनों को चुप कराया और उस खिलौने वाली से बोला
हाँ ,  मुझे ये गुड़िया चाहिए उसने उंगली से छूकर उस गुडिया पे अपना हक़ जताया लेकिन मैं अभी इसे नहीं ले जा सकता लौट कर आकर इसे ले जाउंगा मैं पहले मेला घूमना चाहता हूँ” लडके ने अपनी बात स्पष्ट की और वो आगे बढ़ गया लेकिन चार कदम चलकर वो फिर वापस आया और सशंकित होते हुए बोला 
 तुम इसे किसी को मत बेचना मैं वापस आकर इसे ले जाउंगा|  और फिर उस गुड़ियां को निहारने लगा ..अब उस स्त्री ने मुस्कुरा कर कहा “बाबू, इतनी पसंद है तो अभी ले जाओ ,क्या पता वापस आओ तब तक मैं न मिलूं तुम्हे या ये गुड़ियाँ  ...और बहुत से ग्राहक ऐसा बोल कर जाते है फिर आते भी नहीं” (खिलोने वाली ने अपना अनुभव बताया )  .
मैं आउंगा”
 उसने कुछ् ऐसी सच्चाई के साथ कहा की वो खिलौने वाली उसे बड़ी देर तक देखती रही| लड़का चला गया  ..
शाम हो गयीमेला टूटने का समय आ गया बहुत से छोटे दुकानदार अपनी दुकान समेट कर घर चल दिए थे और कई  बड़े दुकानदार अपनी दुकान समेटने की तैयारी करने लगे थे 
वो  खिलौने  वाली के अब तक सभी खिलोने बिक चुके थे |  बस उसने वो गुड़ियां को बचाकर रखा था उस लडके के वास्ते उस लड़के की आखों की सच्चाई उसे मेला छोड़कर जाने नहीं दे रही थी| और उसने कुछ् देर ठहर कर उसका इंतजार करने के सोची |
 उसे लग रहा था वो बाद में आया तो कितना दुखी होगा और मैंने उसकी गुड़ियां किसी अन्य ग्राहक को बेचीं भी नहीं ..लेकिन कब तक इन्तजार करूँ उसकाउसे अब तक आ जाना था मैं भी क्यों उस बे-परवाह लड़के की बात में लग गयी |उसकी  बात का  क्या भूल भी गया होगा वो इस गुड़ियां को, उसने जरुर  झूले में या खाने पीने में या नौटंकी देखने में  पैसे उड़ा दिए होंगे|” (खिलोने वाली खुद से बात किये जा रही थी )
बहुत देर होने पर खिलौने वाली के सब्र का बाँध टूटने लगा था उसने भारी मन से टोकरी उठाई उसकी खाली टोकरी में अब भी वो सुन्दर गुड़ियां मुस्काती थी उसने उस मिट्टी की गुड़ियां से मन ही मन कहा “कैसी अभागी हो तुम ..तुम्हे किसी ने नहीं खरीदा फिर भी मुस्काती हो ?" 
“इससे बेहतर होता मैं तुम्हे किसी और को दे देती चार पैसे भी मिल जाते  (उसने अफ़सोस जताया )
तभी मेले में अचानक से भगदड़ मच गयी और दौड़ती आती भीड़ में से आते एक  व्यक्ति ने उस खिलौने  वाली को ऐसा धक्का मारा कि उसकी टोकरी हाथ से छूट गयी और वो गुड़ियाँ जमीन पे गिरकर टुकड़े -टुकड़े हो गयी 
ओह ...ये क्या हो गया " (वो मन ही मन बडबड़ाई ) 
उसने गुड़ियाँ हाथ में उठाई उसका सर अलग और धड़ अलग हो गए थे  ओह, ..कम्बखत टूटी भी तो कितनी खूबसूरती से कि अब भी मुस्काती है |
  उसे ये मिट्टी  की गुड़ियां आज पहली बार सच में सुन्दर लगी उसे अब कुछ –कुछ समझ आने लगा कि क्यों इतने सारे खिलौने में से उस लड़के की नज़र इस गुड़ियाँ पे ठहर गयी थी| वास्तव में ये गुड़ियाँ बहुत सुन्दर थी लेकिन उस लडके की किस्मत सुन्दर नहीं थी और इस गुड़ियाँ की भी” ( देखो वो अब तक नहीं आया खिलोने वाली गुस्से से भर उठी ) 
आ गया मैं " (अचानक आवाज आई )
 " कहाँ है मेरी गुड़ियां " 
टूट गयी तुम्हारी गुड़ियाँ " 
“मैंने बहुत देर तक तुम्हारार इंतजार किया| कितने बेपरवाह हो तुम, मैंने पहले ही कहा था, तुमने मेरी एक बात नहीं सुनी|   लेकिन अब सुनो मेरी बात ..जिन चीजों पे हम अधिकार समझते हैं उन्हें कभी छोड़कर नहीं जाते | अपनी प्रिय चीजों को कभी दूसरों के भरोसे नहीं छोड़ा जाता और जब दिमाग और दिल एक साथ बोलते हों तो सिर्फ दिल की सुनी जाती है तुमने अपना ही नहीं मेरा भी नुकसान किया है” ...(खिलौने वाली अब गुस्से और दुःख से भरकर आगे बढ़ गयी थी )
लड़का आज बेहद उदास था |
आज पहली बार उसके दिमाग ने उसे दुःख में डाला था| और इस दुःख, इस पीड़ा और  इस अफ़सोस  से उसका दिल उसे निकाल पाने में असमर्थ था |
वो भारी कदमों से चल दिया उसके हाथ में अब भी चंद सिक्के थे जिन्हें उसने चाहते हुए भी मेले में  खर्च नहीं किया था |










भरपाई, तुरपाई

मंगलवार, दिसंबर 2 By मनवा

उस छोटे से गाँव में एक ही खेल का मैदान था | सभी युवा लड़के रोज उस मैदान पे जमा होते और कोई न कोई खेल खेलते | ये मैदान बस्ती से बहुत दूर था | दूर -दूर तक कोई घर नहीं थे, न कोई घना छायादार पेड़ जहाँ बैठकर वो सुस्ता सकें | उस उजाड़ और वीरान जंगल में सुस्तानें या छाँव के लिए कोई जगह थी तो वो अम्मा की झोपड़ी थी और उसका आंगन था |
वे सब जब भी खेल कर थक जाते और पसीने में लथपथ होजाते तो दौड़कर उस झोपड़ी के पास पहुँच जाते | जो मैदान के ठीक सामने बनी थी | जहाँ नीम, पीपल और बरगद के पेड़ एकसाथ लगे थे | एक चबूतरा था और कुछ पौधे लगे थे | ये झोपड़ी एक बुढ़िया की थी जिसे सभी 'अम्मा " कहते थे | कोई नहीं जानता था कि वो इस जंगल में कब से रह रही थी |
बच्चे जब उसके आँगन में सुस्ताते थे तो वो बूढी अम्मा उन्हें मिट्टी के घड़े का ठंडा पानी पिलाती थी |
उस जलते, तपते, चुभते जंगल में दूर -दूर तक कहीं पानी का नामोनिशान नहीं था |अम्मा सुबह जल्दी उठकर दो कोस दूर चलकर जाती थी और कुंएं से पानी भर कर लाती थी |
अम्मा का ये घड़ा बरसों पुराना था | वो ये सुन्दर सुनहरा घड़ा अपने पिता के घर से लायी थी | जिसमे वो रोज पानी भरकर अपने आँगन में रखती थी |
इन प्यासे बच्चों का वो रोज इंतजार करती | कभीकभार वो कुछ खाने की चीजे भी उन्हे देती थी | अम्मा का दुनिया में कोई नहीं था , बस ये बच्चे ही उसकी दुनिया थे | उन बच्चों और अम्मा के बीच ये मीठे पानी का घड़ा एक पुल का काम करता था | वो अपनी प्यास को लेकर उस घड़े तक आते थे और बदले में अम्मा के होठों पे मुस्कान धर जाते थे |
अम्मा का ये स्नेह और घड़े का मीठा और ठंडा पानी उन सभी थके मांदे लड़कों में दौगुनी उर्जा भर देता था | वो पल भर में अपनी थकान भूलकर फिर से ताजा हो जाते और खेलने पहुँच जाते |
अम्मा और उनकी ज्यादा बातचीत नहीं होती थी | कई बरसों से ये सिलसिला चला आ रहा था | अम्मा का दुनिया में कोई नहीं था | सिवाय अपने पिता की यादों के ..अक्सर वो उन्हें याद करती और वो सुनहरे मिट्टी के घड़े को छूकर उनके होने को महसूस करती थी | उस घड़े का पानी बहुत मीठा और शीतल था , हर आने जाने के लिए वो उस उजाड़ जंगल में अमृत जैसा लगता था |
उस वीरान जंगल में और अम्मा की सूनी झोपड़ी में रौनक तब ही आती जब वे सब लड़के प्यास से तड़पते हुए आते और शोर मचाकर आपस में बातें करते | पानी पीते और तृप्त होते | उन बच्चों के लिए रोज बस्ती के कुंए से पानी लाना और घड़े में भरकर उनका इन्तजार करना यही अम्मा का रोजगार था और शायद जीने की वजह भी |
उस दिन , वे सब लड़के क्रिकेट खेल रहे थे , आज उनके बीच बहुत उत्साह था आज उनका फाइनल मेच था | वे सब सुबह से ही खेल में व्यस्त थे | और आज वे बीच में एकबार भी पानी पीने नहीं आये थे | बीच में कई लड़कों ने प्यास लगने पर कप्तान से पानी पीने की आज्ञा मांगी थी लेकिन कप्तान ने सभी को मेच के बाद पानी पीने की हिदायत दी थी | अम्मा सुबह से कई बार आकर देख गयी थी , घड़ा सुबह से चुपचाप घिनौची (स्टेंड ) पे रखा हुआ था | आज सुबह से पानी की एक बूंद भी नहीं छलकी थी | अम्मा के साथ आज घड़ा भी सुबह से उदास था |
वो बार -बार आकर देखती और शोर मचाते , लड़ते उन बच्चों को देख मुस्कुरा देती और मन ही मन कहती " कितनी तेज धूप है कितने प्यासे होंगे सब ....क्यों नहीं आये आज "
अम्मा का मन आज न जाने क्यों सुबह से बहुत व्याकुल था , आखिर परेशान होकर वो जाकर चटाई पे सो गयी |
सभी लडके बहुत उत्साह से खेल रहे थे आखरी ओवर था और आखरी गेंद ,दोनों टीमों के भाग्य का फैसला ये आखरी गेंद पे लिखा था | गेंदबाज ने बहुत ही जोश और उर्जा के साथ आखरी गेंद फेंकी और उसी गेंद पे बल्लेबाज ने एक चौका मार दिया | सभी लड़के जीत की ख़ुशी में चिल्ला उठे लेकिन अगले ही पल "तड़ाक " की आवाज हुई | दरअसल बल्लेबाज ने गेंद इतनी जोर से उछाली कि वो सीधे -सीधे अम्मा के आँगन में रखे घड़े पर लगी |
पलभर में वो सुनहरा मिट्टी का घडा टुकड़े- टुकड़े हो गया | आवाज सुनकर अम्मा बाहर आई |
सभी लडके जीत -हार को भूलकर दौड़े चले आये | सभी अवाक् थे| इस घटना से अम्मा भी स्तब्ध थी | अम्मा के लिए बरसों पुराना घडा टूट जाना किसी भयानक सदमे से कम नहीं था | वहीं दूसरी और उन सभी लड़कों के लिए भी ये घटना किसी दुर्घटना से कम नहीं थी |
वो सब प्यास से अब भी व्याकुल थे आज उन सभी ने अपनी प्यास को सुबह से रोक कर रखा था और प्रण किया था कि खेल के समाप्त होने पर ही अम्मा के घर जायंगे | सुस्तायेंगे और मीठे और ठंडे पानी से अपनी प्यास बुझाएंगे | लेकिन इस घटना ने सभी को भीतर तक हिला दिया था |
अगले ही पल, सभी लड़कों ने उस बल्लेबाज को मारना शुरू कर दिया,लग रहा था वो उसे मार ही डालेंगे गुस्से में | ,वे सब इतने दुःख में थे कि उनके जीवन की कोई बहुत कीमती चीज टूट गयी हो | और वो उसे मारकर अपनी प्यास , अपनी तड़प और चुभन खतम कर देना चाहते थे | अम्मा ने उन लोगो को अलग किया उस लडके को बचाया और झोपड़ी के भीतर चली गयी |
उस दिन उस जंगल में शमशान जैसी शांति छा गयी थी | सभी जानते थे अम्मा के लिए वो घडा उनके पिता की निशानी था | और अम्मा बरसों से उस घड़े को संभालती आई थी |
ये सब इतनी तेजी से और अचानक से हुआ कि किसी को कुछ समझ नहीं आया , थोड़ी देर में वे सब लडके भारी मन से चले गए | अम्मा भी भीतर चली गयी | लेकिन वो लड़का जिसकी गेंद से घडा टूटा था वो मन ही मन बेहद दुखी था और अपराधबोध से भरा हुआ था | उसे मन ही मन अपार दुःख था कि उसकी गलती की वजह से अम्मा का घड़ा टूट गया था | अब वो कभी भी उसे माफ़ नहीं करेगी | अब वो कभी भी मीठा और शीतल जल नहीं पिलाएगी और अब हम कभी भी इन पेड़ों की छाँव में नहीं बैठ सकेंगे | वो मन ही मन दुःख और ग्लानी से भरा हुआ, सोचता हुआ, बोझिल कदमों से बस्ती के और चल दिया |
कई दिनों तक कोई भी लड़के उस मैदान की तरफ नहीं आये , लेकिन वो लड़का बिना नागा किये रोज उस झोपड़ी के पास आता था | वो चाहता था अम्मा उससे बात करे लेकिन अम्मा भीतर ही रहती थी |
कई दिनों तक अम्मा बाहर नहीं आई , अम्मा को समझ नहीं आ रहा था कि एक मिट्टी के घड़े के टूट जाने से उसकी जिन्दगी में इतना खालीपन अचानक से कैसे फ़ैल गया ? वो रोज दो कोस दूर जाना ,गहरे कुंएं से पानी खींचना और फिर घडा भरकर , पथरीले,काँटों भरे रास्तों पे पैदल चलकर  आना रस्ते भर घड़े को जतन से संभालना ये सब रोजगार अब छूट गया था |
जीवन भर अम्मा ने उस मिट्टी के घड़े को बहुत सावधानी से संभाला था | बरसात में , फिसलते रास्तों पे , आंधी तूफान में भी उसने हमेशा ही उसने पिता के दिए उस अनमोल घड़े को बड़ी सावधानी से टूटने से बचाया था |
आज वो घर के आँगन में सुरक्षित स्थान पे रखे हुए, अचानक से यूँ भरा-भराया , टूट जायेगा सोचा न था
आज अम्मा को अपने पिता की बात याद आई “ हर चीज के जाने का एक तयशुदा समय होता है जब उसे जाना होता है वो चली जाती है”
.अम्मा को घड़े के टूटने से ज्यादा इस बात की पीड़ा थी कि अब वो उन प्यासे बच्चों को पानी नहीं पिला सकेगी | तीन दिन से अम्मा ने अपनी झोपड़ी का दरवाजा भी नहीं खोला था | आज जब उसने दरवाजा खोला तो वही लड़का चबूतरे पे बैठा मिला |
अम्मा ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया , एकबार उस लडके को देखकर उसके मन में घड़े की याद बुरी तरह घिर आई थी, लेकिन अम्मा ने खुद को सम्भाल लिया था |
लड़का अपराधबोध से इस कदर घिरा हुआ था कि वो रोज इसी तरह बिना नागा किये आता और अम्मा के आँगन में बैठ जाता |
एक दिन अम्मा से रहा नहीं गया वो पूछ बैठी " क्यों आते हो रोज -रोज यहाँ ? "
"मेरी वजह से वो घड़ा टूट गया आपका नुकसान हुआ है " (लड़का धीमे स्वर में बोला )
" तुम्हारे यहाँ रोज आने से उस नुकसान की भरपाई हो जाएगी क्या ? "
" तुम अपराधबोध से क्यों घिरते हो , मिट्टी की चीज थी उसे एकदिन टूटना ही था ,मुझे तो ख़ुशी है कि मुझे अब दो कोस पैदल चलकर नहीं जाना पड़ेगा | अम्मा जोर सी हंसी उसकी हंसी से वीरान जंगल में संगीत गूंज उठा | फिर अगले पल उदास होकर बोल पड़ी “ सुनो ...तुम जितनी बार आओगे उतनी बार मुझे अपने उस टूटे घड़े की याद आएगी इसलिए आज के बाद यहाँ मत आना” ये कहकर अम्मा ने अपनी झोपड़ी का दरवाजा बंद कर दिया |
उस रात अम्मा को अपने पिता की बहुत याद आई अब उसके पास अपने पिता की कोई निशानी नहीं बची थी|
अम्मा नीमबेहोशी में थी उसे लगा उसके पिता उसके पास आये हैं और मुस्कुराकर कह रहे हैं “ बेटा, याद है तुम्हे जब मेरा कुरता पुराना होकर फट जाता था तो तुम उस पर रफू कर देती थी और किसी को दिखाई भी नहीं देता था | इसीतरह हमें हमारे खुले जख्मों की तुरपाई करना आना चाहिए | बीते रिश्तों की भरपाई करना आना चाहिए|
जख्मों की सिलाई अगर मुंह चिढ़ाएं तो उस पर सुन्दर गोदना बना लेना, रात के बचे खाने से सुबह नया व्यंजन बना लेना, ये हुनर है और मैं जानता हूँ तुम उस टूटे घड़े का भी कोई न कोई उपयोग कर लोगी”
अगली सुबह अम्मा ने उस टूटे घड़े के आधे हिस्से में पानी भरकर उसे चबूतरे पे रख दिया | अब रोज पक्षी आकर वहां जमघट लगाते हैं | पक्षियों की चहचहाहट से अम्मा के होठों पे मुस्कान खिलती है | जिन्दगी यूँ भी चलती है ...

हुदहुद

सोमवार, अक्तूबर 20 By मनवा , In

अब मुझे वापस चले  जाना  चाहिए बहुत थक गयी मैंअब उड़ा भी नहीं जा रहा मुझसे इन घास के  मैदानों को जी भर कर निहार लूँ तो चलूँ ये सोचकर वो धीरे धीरे नीचे उतरने लगी |वो एक नन्ही चिड़ियाँ थी बादाम जैसा उजला रंग और  उसपर काली सफ़ेद सुन्दर रेखाएं थी |उसकी चोंच बहुत नुकीली और घुमावदार थी वो बहुत सुन्दर चिड़ियाँ थी उसके सर पर एक सुन्दर कलगी थी जिसे वो अक्सर बंद रखती थी ऐसा लगता जैसे  कोई पंखा उसने अपनी गर्दन पर बांध रखा हो लेकिन जब वो खुश होकर गीत गाती तो उसका पंखा यानी कलगी खुल जाती ,जितनी बार वो उड़कर आकर  बैठती उसकी कलगी वाला सुन्दर पंखा खुल जाता वो नन्ही चिड़िया जो अक्सर खामोश रहती थी उसे शोर सख्त नापसंद था और जब भी बात करती उसके मुंह से हु ...द...हूद ..हु ..द .की आवाज होती मानो वो कह रही हो,   खुद .. खुद हाँ खुद से ही बात बस खुद से ही बात ...”
अभी भी वो खुद से खुद ही बात कर रही थी | मैं आई ही क्यों आखिर यहाँ उस साधक ने मुझे ही क्यों चुना गलती मेरी ही थी मैं उस साधक के पास गयी ही क्यों 
तमाम सवाल खुद से करते हुए वो नन्हीं चिड़ियाँ यादों में खो गयी उसकी यादों के पन्ने खुलने लगे उसे याद आया, अपना वो पहाड़ जहाँ वो योगी उसे मिला था |

हमेशा की तरह,  उस दिन भी  सुबह- सुबह वो भूख से व्याकुल होकर यहाँ -वहां कीड़े मकोड़े खोज रही थी तभी उसे बहुत से कीड़े इक मिटटी के ढेर की तरफ जाते हुए दिखे चिड़ियाँ उड़कर उस ढेर पर बैठ गयी और अपनी नुकीली चोंच से मिटटी खोदने लगी थोड़ी देर में उस एपता चल गया ये दीमक की ढूह है वो बड़े मजे से कीड़े चुन-चुन कर खाने लगी |
उसने बहुत सावधानी से सुना तो उस ढूहके भीतर से सांसों की आवाज आ रही थी उसने जल्दी -जल्दी उस मिटटी के ढेर से मिटटी हटाना शुरू कर दिया मिटटी हटाते ही उसकी आखें हैरान हो गयी उस ढेर के भीतर तो कोई साधक साधना कर रहा था 
“ओह ,तो ये कोई ध्यानी पुरुष है जिसे इतना भी ध्यान नहीं कि दीमकों ने उस पर डूह बना ली है “ (चिड़िया ने चिंता जताई ) 
उस साधक की पूरी देह पर दीमक रेंग रही थी चिड़ियाँ ने अपनी छोटी चोंच से की सहायता से बड़ी मेहनत से एक -एक दीमक को हटाया और सारी मिटटी भी हटा दी |  अब वो खुश थी उसने देखा उस योगी की देह सूख चुकी और उसके होठों पर दरारें थी 
चिड़ियाँ उड़ कर अपनी चोंच में पानी भर लायी और उस योगी पर छींटे मारे 
तन्द्रा भंग होते ही योगी बोला क्या कर रही हो नन्ही चिड़ियाँ क्यों मेरी साधना भंग कर दी
“आप क्या कर रहे है आपको कुछ होश है आपके ऊपर दीमकों ने घर बनाये थे मैंने बहुत मेहनत से उन्हें हटाया है 
क्या करते है आप यहाँ छिपकर “(चिड़ियाँ ने सवाल के जवाब में सवाल उछाल दिया )
मैं उस परमसत्ता की उपासना कर रहा हूँ अनगिनत बरसों से " (योगी ने स्पष्ट किया ) 
क्या उस अज्ञात से मिलने के लिए छिपकर रहना होता है चिड़िया ने जिज्ञासा दिखाई )
हाँ बिलकुल संसार में बहुत शोर है मुझे एकांत में इश्वर खोजना होगा " (योगी बोला )
इस बात पे चिड़िया बहुत जोर से हंसी और मन ही मन बोली 
मुझे तो हर जगह इश्वर दिखते हैं इन्हें क्यों नहीं दिखते ?" 
क्या बोली तुम " (योगी मुस्काये ) 
"कुछ नहीं यही सोच रही थी कि इश्वर तो कण -कण में व्याप्त है फिर उन्हें ऐसे संसार से दूर रहकर छिपकर खोजने की क्या आवशयकता है मुझे तो वो इन नदियों पेड़ों फूलों और इस मिटटी में भी इश्वर दिखते है " ( चिड़ियाँ एक सांस में सब बोल गयी )

उसकी इस मीठी सी और तर्कपूर्ण बात पे योगी मुस्काये और बोले तुमने कितने परिश्रम से मेरी देह  से मिट्टी और दीमक को हटाया है तुम्हारी इस निस्वार्थ भावना और लगन देखकर मैं तुम्हे कुछ देना चाहता हूँ| मेरे पास एक ऐसा रसायन है जो बंजर धरती को हरा-भरा कर सकता है सूखे ठूंठ को हरिया सकता है मुरझाये फूलों में रंग और हवाओं में सुगंध भर सकता है मैंने इसे एक मोती में छिपाकर रखा है आज मैं तुम्हे ये रसायन देता हूँ तुम हिमालय के निचले इलाकों में जाना और वहां सूखे  जंगलों को खोजना जहाँ -जहाँ भी जंगल सूखते दिखे या वनस्पतियों का नाश होता दिखे तुम वहीं रुक जाना और हाँ याद रहे ये रसायन किसी निस्वार्थी और दयालुं पेड़ के कोटर में ही रखना जो इसे सुरक्षित रख सके | " (योगी ने अपनी बात ख़तम की ) 
देखो, योगी  मैं बहुत ही नन्ही और कमजोर चिड़ियाँ हूँ मैं ये काम नहीं कर सकती मुझे बस घास के मैदान और मिट्टी में लोटना पसंद हैमैं अपने में मस्त रहने वाली चिड़ियाँ हूँ एक जगह ठहरती नहीं हूँ हाँ किसी को दुखी नहीं देख सकती और चाहती हूँ सब खुश रहे ,आपको दीमकों की डूह से मुक्त किया इसमे कोई अहसान नहीं किया ये मैंने अपनी ख़ुशी के लिए किया " चिड़िया मन ही मन बुदबुदाई ) 
योगी उसे देख हंस पड़े और बोले " जब तुम खुद से खुद बाते करती हो और तुम्हारे मुंह से "हुदहुद" की आवाज आती है 
आज से तुम्हारा नाम हुदहुद होगा जाओ ये रसायन ले जाओ " 
“जाओ , वहां तुम्हे तुम्हारे मन की सभी चीजे मिलेगी घास के मैदान और मिट्टीभी " 
“ सच में " (चिड़ियाँ ख़ुशी से चिल्लाई ) 
पर मैं ये रसायन कहाँ रखूंगी 
अपनी चोंच में छिपाकर रखना और रोज सुबह सूरज के उगने से पहले सरे जंगल में इसे छिड़क देना | " 
ध्यान रहे तुम्हारी हर सांस इस रसायन से बंधी हुई है अगर इसका नुकसान हुआ तो तुम भी जीवित नहीं बचोगी इसे संभालना और कहीं सुरक्षित स्थान पर रखना,  |योगिने हिदायत दी ) 
अब जाओ "
चिड़ियाँ खामोश हो गयी और फिर मन ही मन बुदबुदाई " मुझे प्रकृति के लिए मरना पसंद होगा " मेरी सांसे किसी के काम आये किसी को जीवन मिले इससे सुन्दर कोई बात नहीं हो सकती " 
योगी बोले " ऐसा ही हो " ( योगी की आखें इस बार नम थी )


चलो हुदहुद अब चले " उस ये  नाम पसंद आया था उसने अपनी कलगी का पंखा हवा में लहराया और चल दी पहाड़ों की दुनिया से दूर मैदानों की दुनिया में 
हुदहुद ने यादों की जुगाली करते हुए कबसे खोये हुई थी तभी पक्षियों का एक समूह उसके ऊपर से शोर मचाता हुआ निकला और जैसे वो नींद से जागी, एक ठंडी साँस भरी और बोली “कितनी मुश्किल से मैं यहाँ आई और अब खोजना होगा कोई पेड़”   वो भारी मन से उड़ चली |
उसे शोर  पसंद नहीं था और न समूह बनाने का उसे शौक था लेकिन वो व्यवहार कुशल चिड़िया थी अपनी चौंच से वो किसी भी वृक्ष में कोटर बनाकर रहना चाहती थी कई दिनों तक परेशान होकर वो आज थक गयी थी और वापस अपने देश चले जाना चाहती थी उसे अब तक कोई ऐसा पेड़ नहीं मिला था जहाँ वो ये रसायन वाला मोती छिपा सके 
वो सोचने लगी “इतनी थका देने वाली यात्रा  के बाद इतनी भटकन के बाद भी कोई परिणाम नहीं निकला कभी -कभी जीवन कितना व्यर्थ लगने लगता है, अभी वो खुद से बात कर रही रही थी कि

तभी उसकी नजर एक बहुत बड़े और घने बरगद पे पड़ी और उसकी आखें चमक उठी | पूरा जंगल हर तरफ से सूखा पड़ा था | हजारों पेड़ कटे हुए थे , कंटीली झाड़ियाँ थी कहीं कोई घना पेड़ नहीं था | बस एक वो बरगद था जो बहुत घना था , उसकी मजबूत जड़ें चरों तरफ फैली हुई थी |  उसने उस बरगद पर ही अपना कोटर बनाने का निर्णय किया लेकिन जैसे ही वो बरगद के पास पहुंची उसने देखा उस बरगद की सभी शाखाएं जो  यहाँ वहां फैली हुई थी और उन पर अनगिनत पक्षियों ने घौंसले बनाये थे 
अन्य जीव भी उस पर रेंग रहे थे ये पेड़ है या कोई पानी का जहाज है इसने कितने पक्षियों को पनाह दी है उफ़ ..कितना शोर है यहाँ मैं यहाँ नहीं रह सकती ..खुद से बात करते हुए ,हुदहुद बुदबुदाई 

ऐसा नहीं था कि हूदहूद को उस घने जंगल में कोई पेड़ नहीं मिला था कई पेड़ मिले थे लेकिन उसकी नुकीली और मजबूत चौंच का वार कोई पेड़ सह नहीं पाता था या तो उसे बहुत कोमल तने वाले पेड़ मिले थे अबतक या खोखले तने वाले दोनों ही तरह के पेड़ों पर वो कोटर नहीं  बना सकती थी पर योगी ने कहा था कोई निस्वार्थ और भला पेड़ ही खोजना ये बरगद कितना व्यवहार कुशल है इसने कितने पक्षियों को पनाह दी है 


खुद ही खुद बात करती वो चिड़िया अपने सवालों में उलझी जा रही थी | 
फिर मन नहीं माना और वापस उसी बरगद के पास जाकर रुक गयी| और सोचने लगी, आपकी नियति आपको तयशुदा रास्तों पे लिए जाती है , आप न चाहते हुए भी बार –बार वहीं खिंचे चले जाते हैं |

फिर खुद से बातचीत शुरू कर दी उसने क्या हुआ जो मैं इतने शोर के बीच रह लू मुझे क्या करना है उन शोर मचाती भीड़ से मुझे तो एक सुन्दर कोटर मिलजायेगा न 
और अभी तक पूरे जंगल छान चुकी हूँ ऐसा सुन्दर पेड़ भी तो नहीं देखा इस पेड़ पर ही मैं एक सुन्दर और मजबूत कोटर बना सकती हूँ जहाँ मैं अपने उस रसायन भरे मोती को सुरक्षित रख सकूंगी”|
अचानक से उस चिड़ियाँ ने अपनी सुन्दर कलगी फैला कर उसका पंखा बनाया और बरगद पर अपनी चोंच  मार दी 
फिर कहा खुद से " आज चिन्ह बनाकर जाती हूँ कल जब सभी ये शोर मचाती चिड़ियाएँ दाना चुगने जाएगी तब इत्मिनान से यहाँ मैं कोटर बना लूगीं” | 

अभी वो चिन्ह बना ही रही थी कि एक धीर गंभीर सी आवाज आई "कौन हो तुम ? " ये क्या कर रही हो ? "

चिड़ियाँ ने अपनी कलगी  घुमाई और देखा वो बरगद बहुत गंभीर सा दिखता था उसकी आवाज किसी गुफा सी आती प्रतीत होती थी 
“ मेरा नाम हुदहुद है मैं इक पहाड़ी चिड़िया हूँ जो बहुत दूर से आई हूँ कई दिनों की मेहनत  और खोज के बाद तुम मिले हो मैं अब तुम्हारे भीतर अपना कोटर बनाना चाहती हूँ |    इस देश में चौमासा ख़तम  हो गया है इसलिए मैं  हिमालय छोड़ कर निचले इलाकों के जंगलों में आई हूँ  |मुझे  खुले और कम घने जंगल पसंद है धूल भरे रस्ते और घास के मैदानों पर मुझे  दौड़ना खूब पसंद है पर आज मैं  बहुत उदास हूँ   मुझे  इस स्वर्ग जैसी ,मेरे  सपनों जैसी जगह को छोड़ कर नहीं  जाना है |जब से आई हूँ मुझे  एक भी पेड़ ऐसा नहीं मिला जहाँ मैं अपना कोटर बना सके 
बस तुम ही एक ऐसे पेड़ हो जिसके भीतर मैं रह सकती हूँ मुझे कोटर बनाने दो " चिड़िया ने विनती की )
"कभी नहीं " बरगद की आवाज में सख्ती थी 
"क्यों नहीं ? " इतने लोगो को तुमने पनाह दी है कितने जीव तुम पर डेरा जमाये हुए है |कितनी चिड़ियाएँ घोंसला बनाये हुए हैं फिर मुझे क्यों मनाही है " चिड़िया एक साँस में सब बोल गयी 
“ हाँ, मैं कभी किसी पक्षी या जीव को अपने आश्रय में आने से नहीं रोकता मुझे अच्छा लगता है किसी के काम आना 
किसी की सेवा करना या किसी के काम आना हम सभी का धर्म है तुम जहाँ चाहो वहां अपना घौसंला बना सकती हो मुझे तुमसे कोई परेशानी नहीं |लेकिन तुम मेरे सीने पे चोट करो कोटर बनाओ ये मुझे सख्त नापसंद है ऐसी जुर्रत आजतक किसी चिड़िया ने नहीं  की है " समझी तुम?  (बरगद ने समझाइश दी ) 

चिड़िया तो जैसे तय करके आई थी अपना लक्ष्य उसने कहा " आज चिन्ह बनाकर जा रही हूँ कल अलसुबह अपना काम शुरू कर दूंगी | " 

हा हा हा ..बरगद बहुत जोर से हंसा उसके हंसते ही पूरा जंगल काँप गया ..जानती हो मेरी उम्र कितनी है चार सौ साल मेरा तना पहाड़ जैसा कठोर हो चुका है तुम अपनी जान देकर भी मुझमे कोटर नहीं बना सकोगी इसलिए चली जाओ अपनी नन्ही और बहुत ज्यादा बोलने वाली चौंच का उपयोग मरे  हुए कीड़े खाने में किया करो किसी विशाल बरगद के सीने में जगह बनाने में नहीं ,  हा हा हा जाओ " बरगद ने अभिमान से कहा 

चिड़ियाँ की आखों में आसूं आ गए उसने फिर खुद से बात की और बोली " कोटर तो बन के ही रहेगा " कल सुबह  जरुर आउंगी और उड़  गयी उसका पंखा देर तक हवा में लहराता रहा 

उसके जाते ही बरगद को खुद पर बहुत क्रोध आया  क्यों उसे भला बुरा कहा क्या बिसात है उस नन्ही चिड़िया के मेरे आगे पर उसकी हिम्मत तो देखो मेरे भीतर घर बनाएगी ,मूर्ख ,नादान चिड़िया " (बरगद अपने मानसिक अंतर्द्वंदों में उलझ गया था ) 

दूसरे दिन जैसे ही सूरज उगा सभी पक्षी अपने घौसलों से शोर मचाते हुए निकल पड़े सभी को जाने के जल्दी थी 
बरगद भी उन पक्षियों के जाने के बाद सुकून के साँस लेता था इस रोज -रोज के शोर से वो भी तंग आ चुका था ये उसके ध्यान का समय होता था वो अपनी आखें बंद करके शांति को खुद के भीतर महसूस करने लगा पूरे जंगल में शांति फ़ैल गयी थी 
तभी बरगद ने आवाज सुनी ठक-ठक  एक पल को ध्यान भंग होने को था फिर वो ध्यान में खो गया अबकी बार बिना रुके आवाज आने लगी ...आखें खोलने पर वो नन्ही चिड़ियाँ उसे अपनी चोंच से कोटर बनाते हुए दिखी 

 " ओह मेरे मना  करने के बाद भी तुम आ गयी तुम्हारी इस ठक-ठक से मेरा ध्यान भंग होता है बंद करो ये आवाज " बरगद लगभग चीखा 
“  बड़े ध्यानी बनते हो हमारे पहाड़ों पर तो बरसों से कई साधू संत साधना में लीन हैं उनका ध्यान तो कभी किसी शोर से भंग  नहीं होता 
मैंने देखा है ,  ध्यानियों के ऊपर तो दीमक अपनी ढूह बना लेती है और उन्हें खबर नहीं होती तुम किस तरह के ध्यानी हो मेरी आवाज से ध्यान भंग हुआ जाता है (चिड़ियाँ चहकी )
चिड़ियाँ की नन्ही चोंच से ऐसी बाते सुनकर बरगद चुप हो गया और सोचने लगा "ये चिड़िया कितनी अनोखी सी है 
ये मुझसे डरती नहीं मेरी ही छाती को बड़ी आसानी से छलनी किये जाती है और मैं इसे रोक भी नहीं पा रहा हूँ अन्य सभी पक्षी तो मुझसे कितना डरते हैं और आते -जाते पनाह देने का आभार भी व्यक्त करते है लेकिन ये तो बड़ी रहस्यमयी सी चिड़िया है 

इसकी चोंच जितनी नुकीली हैइसकी बातें उससे कहीं ज्यादा मारक हैं ये समझ नहीं आ रहा है की इसकी नुकीली चोंच से मेरे तने पर कोटर बन रहा है या इसकी नुकीली चोंच से या  इसकी मारक बातें मेरे दिल में कोटर बना रही है | " बरगद मन ही मन बुदबुदाया 
अगले दिन बरगद चिड़िया का इंतजार करने लगा आज आई नहीं अभी तक हो सकता है वापस चली गयी हो " हो सकता है उसने इरादा बदल लिया हो हो सकता है वो अब कभी नहीं आये ,क्यों मैंने उसे खरी खोटी सुनाई 
कितनी प्यारी सी थी मीठी बातें करने वाली कितना अकेला हूँ मैं चार सौ सालों से एक भी पक्षी या जीव मेरे स्वभाव की वजह से मेरा मित्र नहीं बन पाया सभी स्वार्थ वश मेरे पास आश्रय लेने आते है मित्रता कोई नहीं करता 
मुझसे बात कोई नहीं करता ये नन्ही चिड़िया मेरे पास रहना चाहती है मेरे भीतर तो मैं इसे क्यों मना कर रहा हूँ ? " मुझे ये भली सी चिड़ियाँ मित्र जैसी क्यों लगी ? जो सहज और सरल हो जो बेझिझक होकर हमे हमारे गुण दोष बताये वो ही तो मित्र होते हैं न “
बरगद अब आशा और निराशा में डूब रहा था |   उसका ध्यान नहीं गया कि चिड़िया कब से आ चुकी है और अपना कोटर बना भी चुकी है बस अब पूरा होने ही वाला है उसका घर 
चिड़िया की जिद लगन और समर्पण देख बरगद को उस पर स्नेह आ गया 
उसने बहुत ही प्यार से कहा ,””पहली बार खुद को कटते छिलते देख कर भी ख़ुशी हो रही है“”
जवाब में चिड़िया मुस्काई .”” दोस्तों को भीतर ही रखा जाता है छिपाकर ..तुम्हारा दिल और तना दोनों बहुत बड़े हैं ‘’
मैं जल्दी ही चली जाउंगी बस कुछ दिनों के लिए पनाह दे दो और मेरे दोस्त बन जाओ(चिड़िया ने दोस्ती का हाथ बढाया )
बरगद ने हामी भरी 
अब दोनों दोस्त बन गए थे समय गुजरता जा रहा था चिड़िया का खुद से बात करना बरगद को बहुत भाता था बरगद उसे हुदहुद नाम से ही पुकारता था 
समय बीत रहा था, नियति कब किसी को चैन से रहने देती है उसे अपना लिखा पूरा जो करना होता है 

उनकी ये दोस्ती उस बरगद पर रहने वाले पक्षियों को फूटी आखं नहीं सुहाती थी पर बरगद और हुदहुद सभी से बेखबर होकर घंटों बाते करते रहते थे बरगद ने हुदहुद को कई जन्मो के किस्से सुनाएँ इतिहास बताये उसके पास जंगल के इतिहास और रहस्य के किस्से थे हुदहुद उसके ज्ञान से और समझ से अभिभूत थी हुदहुद ने बरगद को पहाड़ों की किस्से सुनाये उसने बताया किस तरह आसमान में रंग बातें करते है किस तरह फूलों में खुशबू भरी जाती है किस तरह जीवन को सुन्दर बनाया जाता है किस तरह प्रेम और दोस्ती की जाती है और निभाई जाती है ये जीवन एक रंगशाला है, हम सभी का एक अनोखा रंग होता है जब हम किसी दूजे से मिलते है या जुड़ते है तो उसका रंग हम पर चढ़ जाता है “
उसकी बातों को सुनते हुए बरगद बहुत मुस्काता था और कहता तुम्हारी कलगी पर कितने सुन्दर रंग है और तुम्हारी बातों से खुशबू क्यों आती है 
जवाब में हुदहुद जोर से हंसती और कहती “ ये रहस्य है, जो मेरे कोटर के भीतर छिपा हुआ है | “
उनकी इन बातों से बरगद पे रहने वाले अन्य पक्षियों को परेशानी होने लगी थी अब बरगद हुदहुद से ही बातें करता था वो जानता  था ये मेहमान चिड़ियाँ है इसे चले जाना है इकदिन ..इसलिए वो कोई भी पल गंवाना नहीं चाहता था |

हुदहुद रोज सूरज उगने से पहले पूरे जंगल में जाकर उस मोती को ले जाती और अपनी चोंच से उस रसायन को सभी पेड़ों नदियों फूलों और मिट्टी पर छिड़क देती कई महीनों से ये वो ये कार्य बड़ी सावधानी से कर रही थी लेकिन आज उस दुष्ट चील ने उसे देख लिया था और पूरे जंगल में ये खबर फैला दी की “ये दूसरे देश की चिड़िया हमारे जंगल के पेड़ पौधों नदियों और रास्तो पर कोई जहरीला रसायन छिड़क रही थी ये रोज सुबह छिपकर जाती है मैंने खुद अपनी आखों से इसे ऐसा करते हुए देखा है
और इसी ने उस बूढ़े बरगद पर भी कोई जादू कर दिया हैइसलिए आजकल वो किसी से ठीक से बात नहीं करता” (चील ने जहर उगल दिया था )
 पल भर में पूरा जंगल उस चील के कहे अनुसार हुदहुद के खिलाफ हो गया 
आखिर में बात बरगद तक पहुंची " हुदहुद क्या ये चील सही कहती है ? " (बरगद के स्वर में दुःख और अविश्वास था ) 

"नहीं मित्र " (हुदहुद रोने को हुई ) 
तभी चील कोटर में से जाकर वो अनमोल मोती ले आई " यही है वो जहरीला रसायन इसे   ये रोज सभी  पेड़ों पर डालती है " ये देखो बरगद आज तुम खुद देखो इसके षड्यंत्र (चील लगभग चीखी ) 
बरगद बहुत हैरान और दुखी था उसने हुदहुद से पूछा ये सब क्या है हुदहुद ? " तुम क्यों आई मेरे पास 
फिर तुमने कोटर क्यों बनाया मुझमे और रोज उसमे क्या छिपाती हो और जब दोस्ती की कसमे खाती हो तो फिर मुझसे झूठ क्यों बोला 
क्यों आई तुम यहाँ हमारे जंगल में चली जाओ अभी इसी समय " 

पूरा जंगल एक स्वर में चिल्लाया " चली जाओ और इसका ये मोती तोड़ दो अभी इसी समय " 

और चील ने एक झटके में उस मोती को जमीन पे पटक कर तोड़ दिया उसमे से वो अनमोल और पवित्र रसायन बहकर मिटटी में मिलने लगा 
इधर हुदहुद की सांसे उखड़ने लगी उसने अपनी समस्त शक्ति लगाकर बरगद से कहा " दोस्त मैं कोई जहर लेकर नहीं आई थी मैं तो अपने भीतर प्रेम-रसायन छिपाकर लायी थी जब मैं हिमालय से आई तो सिर्फ यही जंगल मुझे रुखा सूखा और उजाड़ सा दिखा जहाँ कोई फूल नहीं खिलते तह न खुशबू आती थी न कोई मधुर हवा चलती थी ये देखकर मैंने यही रुकना मुनासिब समझा |
तुम सिर्फ अकेले ही इस जंगल में भले पेड़ थेजो सभी को पनाह देते थे, तुम्हारे भीतर परोपकार की भावना मुझे तुम तक ले आई थी | इतनी भीड़ तुम्हारे आसपास थी, इसके बाद भी तुम उदास दिखते थे क्योकिं ये स्वार्थी और एहसान फरामोश पक्षी तुम्हारे दोस्त कभी नहीं बन पाए 
मैंने इसीलिए तुम्हे चुना और अपने रसायन को सुरक्षित रखा |
मैंने तुम्हारे इस बंजर से जंगल को हरियाली से भर दिया है इस जंगल ने मेरी कभी कदर नहीं की और मेरे इस पवित्र रसायन को नष्ट कर दिया इसके साथ ही मेरी सांसे जुडी थी अब मुझे मर जाना होगा मैं जा रही हूँ लेकिन याद रहे मुझे जब भी तुम्हारे अपमान ,तिरस्कार,विश्वासघात याद आएंगे समंदर में हुदहुद नमक तूफ़ान आयेगा जो तबाही मचाएगा, प्रकृति का अपमान करने वालों को प्रकृति कभी क्षमा नहीं करती “ | (हुदहुद में अंतिम सांस लेते हुए अपनी बात खतम की और अपनी अंतिम उड़ान भरी )

हुदहुद उड़कर समंदर में समां गयी उसकी सुन्दर कलगी वाला पंखा भी बंद हो गया था 
बरगद के पास सिर्फ अफ़सोस रह गया था|
एक बरस बड़ा भयंकर तूफान आया और वो चार सौ साल पुराना बरगद उसमे बह गया 

दुनिया तबसे उस तूफान को हुदहुद कहकर पुकारती है 



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