एक्वेरियम

गुरुवार, दिसंबर 18 By मनवा , In

उसे खुद को छिपाने के सौ हुनर आते थे , न वो कभी खुल के हंसता किसी बात पे, न कभी अपनी मन की बात कहता था | बस उसे दूसरों को सुनना , जानना पसंद था | जब वो किसी से बात कर रहा होता तो मैं चुपके से उसका  किताबी चेहरा पढ़ती थी
उसका चेहरा  एक्वेरियम जैसा लगता था मुझे | जिसके पार अनेक मछलियाँ डूबती उतरती दिखती थी मुझे | कभी दर्द की नीली मछली , कभी अवसाद की, अपराधबोध की काली मछली, कभी, उत्साह की सुनहरी मछली तैरती दिखती थी | उसके प्रेम की गोल्डफिश अक्सर कोने में न जाने क्यों छिपी रहती थी
जब -जब भी वो किसी भी बात पे नाराज होता मुझे उसके चेहरे पर पिराना मछली उभरती दिखती थी
और जब वो अपनी झूठी जिद में आकर कोई दुःख देता तो मुझे उसमे झगडालू शार्क नजर आती , मैं अपने इस मछली प्रेम पर मन ही मन मुस्काती | और फिर उसके चेहरे में खो जाती
कभी -कभी मुझे वो पूरा ही एक्वेरियम नजर आता था | भीतर से पानी से भरा -भरा सा लेकिन क्या मजाल है इक बूंद भी पानी बाहर  छलके | बस उसके भीतर उसकी इच्छाएं बहती थी | हम सभी के भीतर बहती है लेकिन जो पारदर्शी कांच के बने होते है न उनके भीतर झांक लेना आसान होता है
मैं तो पत्थर की बनी थी न इसलिए वो कभी झांक नहीं सका ,लेकिन मैंने उसके भीतर समंदर बहता देखा
कभी -कभी उसके भीतर स्नेह का आक्टोपस देखा , जो अपनी आठ भुजाओं से घेर लेता था मुझे तो कभी उसे संकोच से कछुएं की तरह खुद को छिपाते और पत्थर होते भी देखा मैंने
वो कई जन्मो तक कछुआ ही बना रहा , इस बीच मैंने तो उसे मरा हुआ ही मान लिया था | कई बार आवाज देने पर भी जब वो नहीं हिलता तो उसे हौले से छूना पड़ता था | तब कहीं जाकर वो जरा हिलता था
उसके जरा सा हिलने से उसके जिन्दा होने की तसल्ली कर लेती थी
जब वो अपने काम पर जाता और संसार भर के दुखों को अपनी गठरी में भर लाता तो वो मुझे वो सकरफिश सा नजर आता था
जब मैं उसे कहती "हमने देखी है इस चहरे पे तैरती मछली " तो वो झट से अपने चहरे के भाव बदल लेता ....और हैरान होता
उसे कभी समझ नहीं आया उसकी मन की मछलियो की परछाइयों को मैं कैसे देख लेती हूँ | उसे कभी पता नहीं चला मैंने मन पढने की तालीम हासिल की थी कभी ..
हाँ , वो कांच का एक अनमोल एक्वेरियम था जिसे बहुत ही प्यार से संभालने की जरुरत थी
मैं जानती थी ,अगर ये एक्वेरियम टूटा  तो उसकी सारी मछलियाँ बाहर गिरकर मर जायेगीं
मछलियाँ उस एक्वेरियम के भीतर जिन्दा थी पर मैं उन्हें छू नहीं सकती थी | एक कांच की दीवार थी हमारे बीच
और मैं उन सुन्दर मछलियों को पानी से बाहर लाकर हथेली पे रखकर बहुत पास से देखना चाहती थी, लेकिन मुझे वो नर्सरी में पढ़ी कविता आज भी याद थी मछली वाली , बाहर निकालो मर जाती है “ मछली के मर जाने के ख्याल से ही मैं काँप जाती थी | अब मैं उसे चाहते हुए भी कम देखती थी |

हम दो अलग -अलग दुनिया में रहने वाले लोग थे | एक पानी के भीतर जिन्दा और दूसरा पानी के बाहर जीवित | मैं कभी नहीं चाहती थी वो एक्वेरियम टूटे या छूटे इसलिए मैंने उसे एक सुरक्षित स्थान पर उसकी मछलियों के साथ छोड़ दिया था

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