ये जो जिंदगी की किताब है -----------------

मंगलवार, जुलाई 27 By मनवा , In

दोस्तों , हम जिंदगी में ना जाने कितनी किताबें पढ़ते हैं और भूल भी जाते हैं हाँ कुछ किताबें हमें ताउम्र याद रहती हैं दोस्तों जिन सवालों के ज़वाब दुनियां के पास नहीं होते उन सभी सवालों के ज़वाब हमे किताबों में मिल जाते है अक्सर लोग मेरी सवाल पूछने की लत से परेशान हो जाते है लेकिन ये किताबें कभी थकती नहीं और बखूबी हर सवाल का जवाब देती है चलिए आज आपसे इक सवाल " क्या कभी आपने जिंदगी की किताब पढ़ी है ?" हैं ना अटपटा सवाल -हम सभी अपनी जिंदगी जीते है कोई अपने लिए जीता है तो कोई किसी और के लिए गुजार देता है लेकिन कभी हमने इस जिन्दगी की किताब को बाचनेंकी सोची है ? कैसे हमारे जनम से लेकर जीवन संध्या तक रोज हम नए नए पन्नों पर हर पल का हिसाब लिखते चले जाते है कभी गलती से भी इस किताब को उलट कर नहीं देखते की " " यादों के धुंधले दर्पण में बीते हर पल की छाया है हर मोड़ पर हमने जीवन के कुछ खोया है कुछ पाया है -----""तो चलिए आज मेरे साथ कुछ पन्ने उलटते हैं---- हमारी जिंदगी की किताब का पहला पन्ना हमारे जनम से शुरू होता है और फिर हम गढ़ने लगते है रोज नई इबारत बचपन की वो कागज़ की कश्ती बारिश का पानी और गुडियां के ब्याह के रंग में रंगे कुछ पन्ने तो आम के पेड़ से कच्ची कैरियों को चुराने के आनन्द से सराबोर कुछ पृष्ट ---कुछ आगे बढे तो युवावस्था के इन्द्रधनुषी पन्ने जिनमें है प्रेम के सुर्ख गुलाब , तो कहीं है पीले , नारंगी अहसासकही फागुन के रंग तो कहीं सावन की भिगोती फुहार से भीगे भीगे पन्ने होते हैं इस किताब में - कुछ पन्ने गुलाबी और थोड़े सुर्ख होते है जिन पर लिखी होती है प्रेम की इजहार की और मिलन की इबारत ये पन्ने इस किताब के सबसे चमकीले पन्नें होतें है जो पूरी जिन्दगी हमें रोमांचित करते है हम इन्हें बार बार पढ़ना चाहते हैं -लेकिन इस किताब के कुछ पन्ने स्याह क्यों है ? काले नीले और थोड़े बदरंग क्यों है ? राख की ---तरह जरुर ये दर्द दुःखhai और पीड़ा के पन्ने हैं तन्हाइयों के पन्ने हैं इन्तजार के पन्ने है जो आंसुओं से भीग भीग कर गल गए है इन्हें ज़रा आराम से उलटना वरना ये चूर चूर हो जायेगें ये दर्द के पन्ने हम दुबारा कभी भी पढ़ना नहीं चाहते फिर आगे है इस किताब में कुछ सतरंगी पन्ने इनमे दर्ज है किसी की मुस्कुराहटें जो हमने सजाई थी किसी के लबों पर या किसी ने रख दी थी हमारे होठों पर ये हंसी ख़ुशी के सतरंगी पन्ने भी चमक रहे है आगे अरे; ये कुछ पन्ने हमने किताब में मोड़ कर क्यों रखे है ? ये हमारे बिलकुल निजी पन्ने है जिन पर हमने अपने निजी पलों को छुपा रखा है जिंदगी की किताब के ये पन्ने हमें जीने का होसला देते है तन्हाइयों में जब कोई नहीं होता तब ये प्यार की थपकी देते है जब आखों से आंसुओं की धारा बहती है और कोई नहीं पास होता तब ये पन्ने कहते है हम है ना तुम्हारे - ये मुड़े पन्ने जिनमे छिपे है कई निच्छल रिश्ते आत्मिक रिश्ते बिना जरुरत के रिश्ते और उनकी उष्मा इन्हें छूना नहीं हाथ जल सकते है आगे चले तो -अरे इन आखरी पन्नों पर तो कुछ लिखा ही नहीं है बिलकुल कोरे -क्यों ? शायद ये वो पन्ने है उन भावनाओं और संवेदनाओं के नाम हैं उन ख्वाहिशों के नाम हैं जिन्हें कभी व्यक्त ही नहीं किया गया अनकही बातें भला शब्दों में इतनी सामर्थ्य कहाँ की वो भावनाओं को हुबहू व्यक्त कर दें इन पन्नों को पढ़ने की नहीं महसूस करने की जरुरत है इन्हें भी आप छुए नहीं बहुत कोमल हैं ये --और अंत में इस किताब के कुछ पन्ने फटे हुए से दीखते हैं जरुर ये वो पन्ने होगें जो जिन्दगी की किताब से हमेशा के लिए दूर हो गए मगर उनके अलग होने के निशाँ किताब पर बखूबी देखे जा सकते है तो साहब ये है जिंदगी की किताब के पन्ने , हरेक की अपनी किताब है ये हमें तय करना है हम उसे किस तरह से संजोतें हैं पढ़ते है




पिछले दिनों इक मित्र ने इस जिंदगी की किताब पर ये खुबसूरत पंक्तियाँ भेजी जो आपसे शेयर कर रही हूँ


"ये जो जिन्दगी की किताब है


ये किताब भी क्या खिताब है


कहीं इक हसी सा खाब है कहीं जान लेवा अजाब है कहीं आंसू की है दास्ताँ कहीं मुस्कुराहटों का है बयान कई चहरे हैं इसमे छिपे हुए


इक अजीब सा ये नकाब है


कहीं खो दिया , कहीं पा लिया


कहीं रो दिया , कहीं गा लिया


कहीं छीन लेती है हर ख़ुशी


कहीं मेहरबान लाजबाब है

3 comments:

मनवा ने कहा…

mamta ji bahut hi sundar rachnaa or sundar rang hai blog ka --shri nath sharma

27 जुलाई 2010 को 6:42 pm बजे
रौशन जसवाल विक्षिप्त ने कहा…

सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति

27 जुलाई 2010 को 8:36 pm बजे
Nina Sinha ने कहा…

Mamta, loved this article of yours (even if it is one of your older posts), something different & very nostalgic.. आपने ठीक कहा हम सब अपना इतिहास लिखते रहते हैं और सचमुच जब उस इतिहास को कभी फुर्सत में पढने बैठते है तो कैसे nostalgic हो जाते हैं . वक़्त के समंदर में ऐसे कितने ही लम्हें गर्क हो जाते हैं. ज़िन्दगी को किसी भी सूरत से वहां लौटाया नहीं जा सकता, जहाँ वह महज़ कुछ साल पहले थी - महज़ कुछ साल पहले.

सदा ऐश दौरा दिखाता नहीं
गया वक़्त फिर हाथ आता नहीं

25 मार्च 2011 को 10:55 pm बजे

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