हमें हो न हो उन्हें था एतबार --------

बुधवार, जुलाई 6 By मनवा , In

दोस्तों , मनवा में पोस्ट तब ही लिख पाती हूँ |


जब कोई बात मुझे विचलित करती है|
पिछले दिनों फिर दो घटनाओं ने मुझे अन्दर तक हिला दिया|
दोनों ही घटनाओं में वैसे तो कोई मेल नहीं है|
लेकिन बलिदान दोनों में है |
अपने अनमोल जीवन को, अपनी देह को , अपने सर्वस्व को किसीके लिए यूँ ही दे देना |
दूसरों के लिए मर ही जाना -------सबसे पहले ,घटनाएं सुना दूँ फिर बात करती हूँ हमेशा की तरह रिश्तों पर ठीक है ?


दोस्तों , पिछले दिनों जबलपुर मध्यप्रदेश के रेलवे ट्रेक के क्राफ्ट -मैन जिसका नाम दसई था , ने देखा की फिश प्लेट में कुछ समस्या है |
बस वो अपने दो साथियों के साथ प्लेट को दुरुस्त करने में जी जान से जुट गया |
अचानक ट्रेन सामने से आती देख दोनों साथी भाग गए|
लेकिन दसई अपने काम में जुटे रहे|
पूरे विवेक के साथ अपने पूरे होशोहवास के साथ हाथों में औजार लिए|उन पर ट्रेन में सवार हजारों यात्रियों के जीवन की जिम्मेदारी जो थी |
बस ----फिर क्या था ट्रेन आई उन्हें कुचल कर चली गयी |
अब दूसरी घटना सुनिए - ये और भी झकझोरने वाली है |
प. बंगाल के इक गरीब मजदूर की बारह वर्षीय बेटी मम्फी ने सिर्फ इसलिए जहर पी कर ख़ुदकुशी कर ली क्योकिं वो अपनी आखें अपने पिता और किडनी अपने भाई को देना चाहती थी |
उस मासूम ने अपनी ये इच्छा इक कागज पर लिख कर छोड़ी थी
लेकिन अफ़सोस उसके अन्तिम संस्कार के बाद वो कागज मिला |
दोनों ही घटनाए ,मन को हिला देती है |
इक और दसई जिसने इक पल भी नहीं सोचा खुद के बारे में, परिवार के बारे में और दे दिया बलिदान |बचा ली बहुतों की जान|
दसई अब हमारे बीच नहीं |
पर मुझे लगता है की जिन हजारों की जानें बची
उन सभी की आखों में से वो ख़ुशी बन कर झाकं रहे होगे |
यकीनन दसई ने इक पल में हजारों जिन्दगी जी ली |




दूसरी और , उस मासूम की समस्या अलग थी|
उसे हजारों लोगो की जान नहीं बचानी थी|
उसे तो अपने नेत्रहीन पिता के लिए आँखें और बीमार भाई के लिए किडनी का इंतजाम करना था |
वो बेबस क्या करती|
उसके भोले मन में अपने परिवार के लिए तीब्र प्रेम की भावना थी |
वो जिस उम्र की थी|
उस उम्र के बच्चों का दिमाग तो सिर्फ खाने और खेलने के सिवाह कुछ सोच ही नहीं पाता |
फिर कैसे उसके मन में ये त्याग की भावना उठ गयी ? यकीनन इसके लिए वो परिवार भी दोषी है|
जहाँ नित आर्थिक स्थिति को लेकर बात होती होगी |
लाइलाज बीमारी का जिक्र होता होगा |
माँ के आसूं , पिता की लाचारी भाई की पीड़ा और उस पर गरीबी ---और दूर दूर तक रोशनी की ,उम्मीद की किरण नहीं दिखती होगी |
बहुत सोचा होगा उस मासूम ने , जब रात को अपने भाई को पल पल मरते देखती होगी|
तो वो चैन नहीं पाती होगी |
घर की जिम्मेदारी जिस पर है|
वो देख नही सकता था और माँ की आखें मजदूरी के बाद थक कर सो जाती होगी |
वो मासूम रातों को जगती होगी हजारों बार सोचती होगी |
कैसे उस दिन वो घर में सबसे बड़ी बन गयी होगी|
अपने पिता से बड़ी ,, अपनी माँ से बड़ी अपने भाई बहनों से बहुत बड़ी --जब उसने ये फेसला लिया |होगा की मेरी आखें मेरे पिता को और किडनी भाई को मिल जाएगी |
अगर मैं मर जाऊं तो ---उस प्यारी बच्ची { उसे बच्ची कैसे कहूँ उसने तो बच्चों वाला कोई काम नहीं किया उसने तो वो बलिदान दिया जो शायद कोई माँ या पिता या भाई नहीं दे सकता } ने इक कागज पर ये सब लिख भी दिया |
लेकिन किसी ने भी वो कागज नहीं देखा उसके अन्तिम संस्कार के बाद ये राज खुला
मम्फी का बलिदान तो व्यर्थ गया |
ऐसा सब कहते है|
लेकिन ना जाने क्यों मुझे लगता है की प्रेम और बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाते |
वो हमेशा मिसाल बन जाते है |
युगों युगों तक उनकी खुशबू फ़ैलती है|
मम्फी तुम मरी नहीं , कहीं नहीं गयी |
देखो ना तुम अपने पिता की आखों के आसूँ में झिलमिला रही हो
भाई के ह्रदय में आह बन कर रह गयी हो
और और और तमाम उन लोगो के लिए इक संदेश बन गयी हो|जो अपने स्वार्थ के लिए अपनी माता -पिता , बहन भाई का खून करने में ज़रा नहीं हिचकते |
तुमने उन लोगों को शर्मिंदा कर दिया जिन्होंने चंद रुपयों की खातिर अपनी माँ , बहनों और बूढ़े पिता की हत्याए की है |
तुमने उन्हें बता दिया की रिश्ते सिर्फ प्रेम के धागे से बुने होते हैं
किसी को ख़ुशी मिले किसी को चैन मिलजाए|कोई दर्द से निजात पाए| कोई अपना खुश हो जाए |
यही तो प्रेम है ना |
यही तो असल में जीना है ना |




दोस्तों , यूँ तो हम बहुत लम्बी जिन्दगी जीते है |और खुश होने की हजारों वजह खोजते है |
जतन भी खूब करते है |
कभी सोचा है? हमारी वजह से कितने लोग खुश है? हमें हो ना हो मम्फी को एतबार जरुर था की जीना इसी का नाम है |
अब चलते चलते आखरी बात -दसई के बलिदान से हजारों लोगो की जान तो बच गयी |लेकिन किसी भी सामाजिक संस्था ने , मीडिया ने , और सरकार ने उसके और उसके परिवार वालों की कोई खबर नहीं ली |
पत्थरों के घरों में रहते -रहते हम भी पत्थर हो गए हैं |
जीना भूल ही गए |
लेकिन दसई और मम्फी जैसे लोग इक पल में सदियों को जी लेते है |
हजारों जिन्दगी जी जाते हैं |
उन सभी लोगों के नाम ये मेरी पोस्ट है |
उन्हें मेरा सलाम है|
कभी कभी सोचती हूँ ये लोग क्या किसी दूसरी मिट्टी से बनाए जाते है ? ये मर कर भी नहीं मर |पाते और हम जी -जी कर भी जी नहीं पाते |
ये लोग इक पल में सदियाँ जी लेते है |
सोचती हूँ हमें तो हो न हो उन्हें था एतबार --की जीना इसी का नाम है |
इक मित्र है जो बहुत अच्छे शायर है |
सूरज राय सूरज-- उनके शेर से अपनी बात पूरी करती हूँ |
"नज़र में जिसकी , दुनिया भर की आँखों की नमी होगी
जला दे खुद को जो बस इसलिए , कि रोशनी होगी
जहाँ लाखों के जाने से, कमी होती नहीं कोई
वहीँ एक शख्स के जाने से, लाखों की कमी होगी "

6 comments:

बेनामी ने कहा…

बहुत सुंदर समापन के साथ मार्मिक प्रस्तुति

6 जुलाई 2011 को 6:08 pm बजे
Manaswin ने कहा…

मेरी नज़र में यह आपकी पहली पोस्ट है.
जिन धागों को पकड़ने की तरफ़राहट पूर्व के तमाम पोस्ट में देखता आ रहा हूँ, इस पोस्ट के आरम्भ से अंत तक इस तरह गुम्फित हैं जैसे वाक्य नहीं शिराएं हों 'और पूरी धमक से रक्त की मानिंद - वो शाश्वत सत्य जिससे मानव जीवन-समाज की बुनियाद बनी है - उफनती चली आ रही हों जैसे ... पूरी रवानगी में'.
आपने इन पात्रों को उद्धृत करके खुद को दर्शन के एक अत्यंत अलौकिक स्तर से खुद को जोड़ लिया है. ध्यान रहे यह जुड़ाव नाज़ुक होता है बहुत. दुआ करता हूँ कि यह रिश्ता टूटने न पाए... शुभकामनाएं...

6 जुलाई 2011 को 8:00 pm बजे
रौशन जसवाल विक्षिप्त ने कहा…

मार्मिक। आप लिखती ही इतना अच्‍छा है कि लोग आपके शब्‍दों को चुराना चाहते है ?????

6 जुलाई 2011 को 10:09 pm बजे
मंजुला ने कहा…

हमेशा की तरह संवेनशील ही लिखा है तुमने ........वाकई मे रुक कर सोचने की जरुरत है ...
best wishes
manjula

8 जुलाई 2011 को 2:54 pm बजे
babul ने कहा…

आदरणीय ममता जी,
यथायोग्य अभिवादन् ।

उक्त दोनों ही घटनाएं मार्मिक हैं, जी... दसई की खबर पढ़ी थी, लेकिन मम्फी के जिगर से रूबरू नहीं हुआ था? आज के दौर में क्या कहियेगा, एक अपनी जान पटरी पर बिछाकर मौत की चादर इसलिये ओढ़ लेता है कि तमाम जानें मौत के आगोश में जाने से बच जायें? तो दूसरा मौत का वरण इसलिये करता है कि उसका शारीरिक बजूद इस धरा से भले ही खत्म हो जाये, लेकिन भाई को जिन्दगी किडनी के आसरे वह दे सके? और वह ही अपने पिता की कनीमोझी (आंख की पुतली) बन जाये, जिन्हें उसके आंख मूंद लेने के बदले, सब कुछ दिखलायी देने लगे?
वाकई में इन जैसे लोग दुनिया के रहनुमा क्यों नहीं हो जाते? ऐसे लोग इतनी आसानी से सौंपा गया वह सब कुछ क्यूं हमारे द्वारा सम्हाले जाने की भूल कर बैठते हैं, जो सिर्फ काले अक्षर उकेर कर कागज में एक खबर बनकर दफन हो जाते हैं, जिन्हें हम दिल में कभी बसा ही नहीं पाते हैं?
जी... किसी जिस्म (मम्फी जैसा) से, किसी कर्म (दसई जैसा) से ऐसा प्रेम कब, कहां देखा होगा? जिस प्रेम को पाने की ललक और चाह मैंने पाल रखी है, उसका बजूद सिफर हो गया, वाकई आज सफेद संगमरमरी ताजमहल भी शर्र्मिंदा हो गया होगा? काली स्याही में में सफेद कागज पर उकेरे गये उक्त घटना को पढ़ कर?
ममता जी, दुआ कीजिये कि मेरे अन्दर सोये हुये दसई और मम्फी को ईश्वर जगा दे, जिस दिन हम सबके अन्दर सोये हुये दसई और मम्फी जाग गये तो यकीन मानिये हर गली मुहल्ले की हैसियत एक ताजमहल रचने की हो जायेगी?
सच् ममता जी, वह इक पल में सदियां जी गये, और हम खुद के जीने का भ्रम ही पाले रह गये?
बेहतरीन सवाल....., जाबांज दसई और मम्फी को मेरा नमन् और मेरे खुद के वजूद को टटोलने की चुनौती देने के लिये आपका शुक्रिया।

रविकुमार बाबुल
ग्वालियर

10 जुलाई 2011 को 3:40 pm बजे
Nina Sinha ने कहा…

मान गए ममता..कब से सोच रही थी की अपनी टिपण्णी भेजूं पर मौका नहीं मिल रहा था...खैर, आज समय मिल ही गया ...मैं ये सोच कर हैरान हूँ की अखबार पढ़ते हुए लोगों की निगाहें ऐसी कितनी ख़बरों पर जाती है.. पर शायद उन ख़बरों से जुड़ने की हमें फुर्सत नहीं होती ..एक सरसरी निगाह से खबरें पढ़ी और अपने-अपने काम को हो लिए...पर आप खूब समझ पाते हो ऐसे इंसानों की मजबूरियां और उनकी कहानियां...रिश्तों की बारीकियों को समझने के लिए शायद एक मर्मस्पर्शी दिल और आँख (तीसरी आँख) दोनों की ही ज़रुरत होती है, जो आपके पास है ...मम्फी और दसई के बलिदान के पहले के उनके मानसिक द्वन्द को आपने पूरी तरह से समझने की कोशिश की है जो सराहनिए है .

21 जुलाई 2011 को 3:05 am बजे

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