ओ मेरे माझी अबकी बार .....

मंगलवार, जुलाई 31 By मनवा

मेरे शहर में बहुत सी झीले हैं | ऊँचें पहाड़ हैं | गहरी झीलें , हरे पहाड़ ,देखने खूब लोग आते हैं , बाहर से | कितना रिश्ता बना पाते हैं, वो यहाँ की गहराइयों से , ऊँचाइयों से और हरेपन से , ये तो वही जाने | लेकिन मुझे अक्सर वो झील खूब पुकारती है |  लेकिन किनारों पर जुटी भीड़ और शोरशराबे के कारण , अक्सर  मैं उस पुकार को अनसुना कर जाती हूँ | मैं सोचती हूँ, झील को कभी फुर्सत नहीं मिलेगी( भीड़ से ) ना मुझे ही समय..हम दोनों एकदूजे को समझती है | मैं उसे जब अपने घर की छत से  देख कर मुस्काती हूँ, तो वो भी जवाब में अपनी कुछ लहरों को मेरे गाँव तक भेज देती है | हम दोनों गुपचुप इस तरह बतियाते है | 
लेकिन उस दिन यूँ ही उस झील के किनारे जाना हुआ | वो फिर मुस्काई मेरे स्वागत में , उसके किनारों पर बहुत सी नावों का हूजुम था | नाव से ज्यादा मछुआरे दिख रहे थे | भीड़ नावो पर लद कर झील की सुन्दरता देखना चाहती थी | आधी भीड़ मोटरबोट पर चढ़ कर झील का आनन्द लेना चाहती थी | मुझे कभी समझ नहीं आया की झील की सुन्दरता उसे दूर से देखने में हैं या उसके पास जाकर छूने में ...बहरहाल तभी  एक मछुआरे पर मेरी  नजर पड़ी | खुद में गुम वो मछुआरा अपनी नाव में बैठा था , उसे कोई जल्दी नहीं थी, किसी को नाव में बिठाने की | हम सभी , उसकी नाव में बैठ गए | वो किसी जोगी की तरह चप्पू चलाता था | उसे ना झील  की गहराई लुभाती थी ना पहाड़ों की उंचाई | इस झील से उसका पुराना नाता दिखता था | मैंने पूरी झील , उसके चेहरे पर देखी , जरुर वो सुन्दर झील उसकी नसों में बहती होगी | उसके भीतर उतर गयी होगी | हर लहर-लहर उस अनपढ़ मछुआरे के चेहरे पर थी | और झील की गहराइयां उसकी आखों में | 
भीड़ ,मछुआरों  से बहस कर रही थी  और मछुआरे ऐसे नखरे कर रहे थे , मानो दुनियाँ घुमाने वाले हो ,या उसपार ले जाने वाले हों | क्या है ? उसपार ....झील के उसपार मैं सोचने लगी ... क्यों कोई बंदनी गाती थी ,मेरे साजन हैं उसपार , मैं मन मार हूँ इस पार | हमेशा विरहनें , प्रेम में डूब कर क्यों पुकारती है साजन को | जो उस पार है | लेकिन वो उसपार क्यों है ? क्या कभी वो निष्ठुर इसपार नहीं आएगा ? छिपकर ओट में से ही बुलाएगा | 

 उसपार कैसा होगा ? क्या उसपार भी गाँव होंगे ? लोग होंगे ? दिल होंगे , दरिया होंगे , दिल में दरिया होंगे प्रेम के या लोग दरियादिल होगे  ,जिन्दगी के सफ़र में हमने जितने भी रिश्ते बनाये , वो माझी ही तो थे |   हम उनकी नाव में बिठा दिए गए और वो हमें ले गए उनकी मर्जी से | जब चाहा ,जहाँ चाहा , उतार दिया | नाव बदलती गयी | माझी बदलते गए लेकिन यात्रा खतम नहीं हुई | जितना भी चले माझी के भरोसे ही नैया रही | कम्बखत ...रास्ते तय तो हुए लेकिन दूसरों के भरोसे | जो भी माझी (रिश्ते )मिले , जैसे भी मिले कितने भले थे ? कितने बुरे ? अब ये कौन सोचे ..ये क्या कम है की सफ़र कटा तो सही  |  ये बात अलग है की हर माझी ने अपनी कीमत खूब मांगी हमसे | किस -किस किनारे पे  रुके और किस किस घाट पर ,भीड़ में हमारा सामान चोरी हुआ कौन हिसाब रखे | घर से जब आये थे ( इश्वर के घर से ) तो सब कुछ था संदूक में | प्रेम से भरा कलश था | भावनाओं की, अहसासों की गठरी थी | सपनों का बड़ा सा डब्बा था | जिसे मैंने खूब संभाल कर रखा था | इच्छाओं , ख्वाहिशों की पोटलियाँ थी | कोई माझी बचपन ले गया | कोई जवानी मांग बैठा | कोई मन तो कोई तन , कोई मुस्कान छीन ले गया , कोई होश, कोई हंसी ,कोई ख़ुशी , कोई पहचान , कोई अरमान ..अब तो एक भी सामान नहीं बचा | अब कुछ शेष नहीं |शायद अब सफ़र आसन हो | लेकिन जाना कहाँ है ? आवाज  सुनकर मैं हैरान हुई |देखा तो एक  लहर मेरे करीब आई और  बोली कहाँ जाना है तुम्हे ? मैंने कहा , उसपार ....तुम जहाँ से आई हो , मुझे उसपार जाना है | कोई बुलाता है मुझे | किसी की पुकार खींचती है मुझे | कौन है ? उस तरफ ? इस ओट के परे ...जिसकी खुश्बू बुलाती है | जो दिखता नहीं पर है | यकीनन है वो ...उसपार | अब लहर  हँसने लगी और बोली तेरे साजन  है उसपार | तू मन , मार है इसपार ...मैंने कहा ... हाँ शायद हम सभी का साजन , हम सभी का" पिया "वही छिप के बैठा है | और हम उसे किनारे से पुकारते है | डूबने के डर से उसपार जाने से कतराते हैं | भला बिना डूबे साजन कैसे मिले ? उसकी हर पुकार मन को भेदती है | ये लगन है या अगन है ? वो  खुश्बू है या बदन है ? जिसकी खबर हरपल मुझे है ,फिर वो छिपता क्यों है ? ओ झील तू ही बता , क्या कोई ऐसा माझी है , जो मुझे उसपार ले जाये | उसपार ..जहाँ जाकर फिर कोई वापस नहीं आता | सारी यात्राये जहाँ समाप्त हो जाती हो | जहाँ गम भी ना हो | आसूँ भी ना हो | बस प्यार ही प्यार पलता हो | हम कौन है ? कहाँ से आये हैं ? किस ग्रह से आये और कब तक ठहरेगे यहाँ ? इस लम्बी यात्रा में किस माझी को अपना कहे | किससे प्रीत निभाए | जो इस पल अपना लगता है | अगले ही पल वो सपना होता है | सभी कुछ देर के साथी क्यों है ? उसपार तक कोई साथ क्यों नहीं निभाता | उसपार से आवाज आती है स्याह रातों को ....लेकिन कोई कैसे जाए बिन माझी के  ? लहर फिर  धीरे से मुस्काई बोली | जितनी गहरी प्यास , उतनी गहरी तृप्ति  होगी | विरह जितना दुखद , मिलन उतना ही सुखद होगा | तुम पुकारो माझी को, मैं तो चली ....लहर  चली गयी औरफिर एक बार उसपार से तेज हवा का झोंका आया और उसने कहा चलो ना वहां ......मन ने फिर एक बार माझी को पुकारा ..ओ मेरे माझी अबकी बार ...ले चल पार ..मेरे साजन हैं उसपार 

7 comments:

sanjay david ने कहा…

wowwwwwwwww its so nice... bhopal ki jheelon me se nikli ek lahar lekhni ki.... kya bhaav range hai aapne laharon aur maajhi k riston par... khud ko bhi samahit kar hmne apne aapko aapki jagah par khada paya unn kinaron par..... great one...

1 अगस्त 2012 को 1:06 pm बजे
याज्ञवल्क्य ने कहा…

jhil, dariya, lahar aur manjhi ke sahare bahut achchha bimb racha hai. man ka dwand aur mashtishk ka phalsafa prabhavit karta hai. padne ke bad bhavnaon aur vicharon ki lahron me khud ko uljha huaa-sa mahsus kar raha hun.

1 अगस्त 2012 को 1:13 pm बजे
Mahendra Arya's Hindi Poetry ने कहा…

Bachhan ji ki panktiyan yaad aa gayi- "is paar priye tum ho madhu hai, us paar na jaane kya hoga" . Bahut sundar abhivyakti !

Mahendra Arya

1 अगस्त 2012 को 1:23 pm बजे
रौशन जसवाल विक्षिप्‍त ने कहा…

सुन्‍दर । जितनी गहरी प्यास , उतनी गहरी तृप्ति होगी | विरह जितना दुखद , मिलन उतना ही सुखद होगा | तुम पुकारो

1 अगस्त 2012 को 6:40 pm बजे
Unknown ने कहा…

bahut dino baad aaj fir kuch sundar sa padhne ko mila ... thanks... aur krishn janmashtmi ki shubh kamnai.. vo hi tumhare prashno ke uttar de sakte hai..

10 अगस्त 2012 को 6:49 pm बजे
बेनामी ने कहा…

बहुत खूब - जीवन सत्य

20 सितंबर 2012 को 5:29 pm बजे

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