भूल गया सब कुछ , याद नहीं अब कुछ ....

सोमवार, अक्टूबर 13 By मनवा , In


अक्सर जब चार लोग आपस में बैठकर बातें करते हैं या किसी परिवार में कोई उत्सव के समय एकत्रित होते हैं तो खूब बातें खूब गपशप होती है | जूनी -पुरानी यादों को दिमाग के बक्से में से खंगाल खंगाल कर बाहर लाया जाता है और साझा किया जाता है | ये मानवीय स्वभाव है कि हम सभी सुखद अनुभूतियों को सहेज कर रखते है और जिन्दगी भर उन्हें याद कर के खुश होते रहते है | लेकिन अगर कोई दोस्त या परिचित हमें कोई दुखद घटना या पीड़ादायक बात याद दिला देतो हम झट से कह देते है " वो घटना मैं भूल चुका हूँ /चुकी हूँ या वो बात मुझे अब याद नहीं
जब हम हमारी सुखद अनुभूतियों को जीवन भर याद रखते हैं तो क्या दुखद यादें भूल सकते है
नहीं कभी नहीं ,फिर क्या बात है कि लोग दुखद घटनाओं को भुला देना चाहते हैं और कहीं  जाकर छिपा देते हैं उन बुरी यादों को , वो पीड़ादायक बातों को दफ़न कर देते हैं | वो कौनसी काली गुफा है  जहाँ सभी अनुभूतियों और अपूर्ण इच्छाओं को पनाह मिलती है ? कैसे दमन कर देते हैं हम हमारी यादों को  सभी पीडाओं को  ? क्या है भूल जाने या "याद न करने का मनोविज्ञान " चलिए जानते हैं
हम जीवन भर दो दुनिया के बीच युध्द लड़ते रहते हैं एक बाहरी दुनिया जहाँ हमारे रिश्ते-नाते , दोस्त यार और अन्य लोग होते हैं , दूसरी दुनिया हमारी भीतरी दुनिया होती है जहाँ जीवन भर हमारे चेतन , अवचेतन के बीच संघर्ष चलता रहता है | ये भीतरी दुनिया का प्रभाव बाहरी दुनिया पर बहुत पड़ता है व्यक्ति का व्यवहार उसके रिश्ते सभी इस भीतरी दुनिया से संचालित होते हैं
चेतना के स्तर पर तो व्यक्ति सभी संघर्षों से निपट ही लेता है लेकिन जब संघर्ष अचेतन का हो तो  बड़ी मुश्किल होती है
व्यक्ति लाख कोशिश करे लेकिन उसकी अपूर्ण इच्छाएं, उसकी अव्यक्त अनुभूतियाँ  उसे जीने नहीं देती , उसके इगो , सुपर इगो उसे कभी भी उसके मन की नहीं करने देते परिणामस्वरूप इन जिद्दी इच्छाओं का,दुखद अनुभूतियों का दमन करना होता है लेकिन ये वहां अचेतन में भी सक्रीय रहती है| चैन से नहीं बैठती | फिर क्या किया जाये ? क्या कोई ऐसी विधि है जो इन इच्छाओं के प्रेतों से, यादों के भूतों से मुक्ति दिला सके | मनोविज्ञान में कुछ महत्वपूर्ण मनोरचना विधियाँ है जिन्हें Mentel  Mechanisms  कहते है इनके द्वारा समाधान किये जाते हैं  |
सबसे पहले बात एक महत्वपूर्ण मनोरचना विधि जिसका नाम दमन है यानि Repression
दमन एक मनोरचना है ये दूसरी मनोरचनाओं से महत्वपूर्ण और भिन्न है इसमे चेतन का संघर्ष है और समाधान भी निहित है | जबकि अन्य मनोरचनाओं में अचेतन का संघर्ष होता है और उसे दूर करने का प्रयास भी कियाजाता है
इसे सरल भाषा में समझे , जैसे किसी व्यक्ति के मन में हजारों इच्छाएं हैं जिन्हें वो समाज के हिसाब से अनैतिक समझता है , समाज के कारन वो अपनी इच्छाओं को पूरा नहीकर सकता और ये अधूरी अपूर्ण इच्छाएं उसके मन और मस्तिष्क के बीच संघर्ष उत्पन्न कर देती हैं | व्यक्ति मन ही मन परेशान और दुखी रहने लगता है
इस असहनीय पीड़ा और दुःख से बचने के लिए वो उन दुखद इच्छाओं का दमन (repressicn) अचेतन मन में कर देता है और व्यक्ति उन इच्छाओं को भूल जाता है यह क्रिया अचेतन रूप में होती है इसलिए व्यक्ति को स्वयम भी ज्ञान नहीं रहता यानी दमन वह मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा दुखद एवम कष्टकर इच्छाएं या विचार मन के अवचेतन भाग में दमित हो जाते हैं जैसे कोई बीज गहरी मिट्टी में दबा दिया जाए
इसे इस उदाहरण से समझे ..एक व्यक्ति के मन में अपनी भाभी के प्रति कामवासना उत्पन्न हुई परन्तु अनैतिक होने के कारन चेतन ने इसे अस्वीकार  कर दिया और तमाम मानसिक संघर्षों के उपरान्त काम  भाव का दमन अचेतन मन में हो गया और चेतना के स्तर से संघर्ष समाप्त हो गया व्यक्ति इस अवस्था को खुद को आरामदायक फील करता है |
यहाँ ये स्पष्ट कर दूँ कि दमन की क्रिया दलन  या suppression या अवरोधन inhibition कतई नहीं है इन क्रियाओं में व्यक्ति जानबूझकर दुःख और पीड़ा को चेतना से हटा देता है और उसके लिए कठिन मेहनत भी करता है उदहारण से समझे -एक व्यक्ति किसी स्त्री से बहुत प्रेम करता है और उसे प्राप्त करना चाहता है लेकिन सामाजिक मर्यादा के कारन ये असम्भव है तो व्यक्ति उस स्त्री की यादें , बातें और ख्यालों से खुद को दूर रखने के लिए , उस पीड़ा से बचने के लिए रोने धोने की बजाय कोई कामेडी फिल्म देखता है या कोई संगीत सुनता है या कोई किताब पढता है और इस तरह वो जानलेवा यादों से , पीडाओं से खुद को बचा लेता है यानि वो अपने मानसिक संघर्षों का तिरस्कार कर देता है , लेकिन ये दमन नहीं दलन की क्रिया है यहाँ व्यक्ति ने जानबूझकर अपना ध्यान लक्ष्य से हटाकर कहीं दूसरी जगह लगाना चाहा है | लेकिन यही अनुभूति अगर बिना किसी प्रयास के अपने आप बिना किसी प्रयत्न के अचेतन में चली जाये और व्यक्ति को इसका ज्ञान या भान ही न हो तो ये स्थिति दमन कहलाती है
अब बात अवरोधन यानी inhibition की इस क्रिया में व्यक्ति अपनी दुखद अनुभूतियों को या अनैतिक या असामाजिक इच्छाओं को चेतन में ही रोक लेता है उसे सब खबर रहती है लेकिन वो जानबूझकर अनुकूल कार्य नहीं करता है उदाहरन एक व्यक्ति अपनी माँ या प्रेमिका के खत का जवाब जानबूझकर नहीं देता क्योकिं वो उन सवालो या अनुभूतियों से खुद को बचाना चाहता है | वो उन खतों को बार -बार पढता है लेकिन जवाब नहीं देता खतमें भेजे प्यार और स्नेह को वो बार –बार पढ़कर पा लेना चाहता है लेकिन बदले में वो खत का जवाब नहीं देता क्योकिं वो जवाब देने की स्थिति उसके लिए पीड़ा और दुःख का कारन बनती है इसलिए वो जानबूझकर जवाब नहीं देता |
उपरोक्त तीनों मानसिक मनोरचनाये हैं जिनके द्वारा व्यक्ति दुखद चीजों को भुलाने का प्रयास करता है | और अपने मानसिक संघर्षों से खुद को बचा लेता है | इन मनोरचनाओं का हमारे जीवन में गहरा प्रभाव पड़ता है | लेकिन ये दमन,दलन और अवरोधन हमारे लिए अति महत्वपूर्ण है |  व्यक्ति अगर अपनी इच्छाओं , कुंठाओं और अनुभूतियों का दमन नहीं करे तो वो पागल ही हो जाये
इच्छाओं का दमन अवचेतन में होना अनिवार्य है  दिलचस्प बात ये कि अवचेतन में जाकर भी ये इच्छाएं मरती नहीं हैं लेकिन हमारा दिमाग उन्हें अनुशासन में रखता है | व्यक्ति को जीवित रहने के लिए मानसिक संघर्षों से बचना ही होता है उसकी ये दमित इच्छाएं यदि विकृत हो जाये तो व्यक्ति उन्मादी , चिंता से ग्रसित और अवसादी हो जाता है , वो अपनी इच्छाओं की पूर्ती न होने पर सिगरेट , शराब का नशा करता है या नींद की गोलिया खाकर खुद को भुलाये रखता है
लेकिन इसके विपरीत जब एक युवक अपनी इच्छाओं की संतुष्टि नहीं कर पाने पर कविता लिखता है , चित्रकारी करता है , संगीत रचता है तो समाज उसे आदर से देखता है उसका वो मानसिक संघर्ष उदात्तीकरण Sublimation में बदल जाता है और व्यक्ति अपनी इच्छाओं को संतुष्ट कर पाता है

उपरोक्त सभी बातों से स्पष्ट हो गया है कि व्यक्ति दरअसल कुछ भूलता ही नहीं और न कभी इच्छाएं मरती है | वो यदा कदा अचेतन के झरोखों से झांकती रहती है कभी कविता के रूप में कभी कहानी बनकर या कभी सपने सुहाने बनकर
और हम इतने समझदार हो जाते हैं कि  अपनी अपूर्ण इच्छाओं को सपने में पूर्ण होते देखते हैं और नींद खुलते ही कहते हैं " भूल गया सबकुछ याद  नहीं अब कुछ ..." 

                                                                               



मिल जाए तो मिट्टी है , खो जाए तो सोना है ....

मंगलवार, अप्रैल 15 By मनवा , In

हमारा समाज संबंधों का ताना -बाना है | इस ताने बाने पे हम रोज अपने आसपास कई रिश्तें बुनते हैं | ये रिश्तें , ये सम्बन्ध हमारी आवश्यकता है | हम सभी इन रिश्तों के बीच खुद को सहज पाते है | और हमारा सम्पूर्ण जीवन इस ताने -बाने के इर्द -गिर्द ही पूरा हो जाता है | लेकिन क्या बात इतनी सरल है ? क्या रिश्ते बनाना और निभाना इतना सरल है ? जितना ताने बाने पे कपड़ा बुनना
बुनकर तो गिरह , गाँठ  बड़ी चतुराई से छिपा देता है और कपड़ा सुन्दर दिखाई देता है | लेकिन रिश्तों में गठानें पड़ जाए तो रिश्ते  बहुत ही बदसूरत और जटिल हो जाते है | उनमे न  सुकून होता है न शान्ति सिर्फ बचता है तो दर्द और द्वन्द
इस द्वन्द और दर्द से भरे  रिश्तों के बोझ से  जीवन खुद एक  बोझ हो जाता है जिसे ढोना मजबूरी हो जाती है | और अंततःलोग  इकदूजे पे दोष लगाकर रिश्तों को तोड़ देते हैं या उससे खुद को अलग कर लेते हैं | या फिर एक कदम आगे बढ़कर  कोई नया रिश्ता खोजने लगते हैं
रिश्ते खोजना भी हमारी मज़बूरी ही है क्योकिं हम हमेशा अपनो के बीच रहना चाहते हैं उन्हें प्रेम करते है और बदले  हम भी प्रेम ही चाहते हैं | हम ताउम्र दूसरों पे निर्भर रहते हैं ये निर्भरता चाहे शारीरिक हो या मनोवैज्ञानिक , हम जीवन भर ऐसे रिश्ते खोजते हैं जो हमें हमारे होने का बोध करवाए
जब हम उदास हो तो वो हमें हंसा दे , हम जब दुखी हों तो वो झट से गले लगा ले और वो सिर्फ हमें सुने , हमारी हर बात समझे हमारा ख्याल रखे हम रोये तो वो भी हमारे संग रोये और जब हम खिलखिलाएं तो वो हँसे और जब जिस वक्त हमारा मन उससे उब जाए , खिन्न हो जाये , बेजार हो जाए तो वे दूर हो जाये हमसे क्योकिं उस समय हमें उसकी जरुरत नहीं रही
क्या ऐसा कोई  रिश्ता संभव है ? क्या दुनिया में कोई ऐसा भी है जो हमारे लिए अपने सुख दुःख भूल जाये | उसका खुद का कोई अस्तित्व ही नहीं हो हमारे सामने | उसकी कोई भावना या अहसास का उसके खुद के लिए कोई महत्व नहीं हो | वो आपको सहेजे , सहलाये निहारे और खामोश रहे | आप उसे तोड़े तो वो शिकायत भी न करे उलटे आपसे पूछे आपको चोट तो नहीं लगी मुझे तोड़ते वक्त ? यहाँ पर एक बहुत पुरानी कहानी याद आ गयी जिसमे एक व्यक्ति , वेश्या के कहने पर अपनी माँ का कलेजा ही निकाल कर ले जाता है और रस्ते में जब उसे ठोकर लगती है तो कलेजा पूछता है " बेटा चोट ज्यादा तो नहीं लगी ? " ये तो मात्र एक कथा है | हम अपने आसपास ऐसे हजारों उदाहरण देखते हैं जिनमे लोगों ने सच्चे रिश्तों की  कदर ही नहीं जानी | उन्हें जब -तब अपनी मर्जी और सुविधा के हिसाब से तोडा , मोड़ा और छोड़ा भी
 बड़ी ही अजीब बात है , हम जिसके सबसे ज्यादा करीब होते हैं उपेक्षा भी सबसे ज्यादा उसी की ही करते हैं | और जो हमारी उपेक्षा करता है हम जीवन भर उसी के पीछे भागते हैं | कुछ रिश्ते हमारे जीवन में बहुत महत्त्व रखते हैं वे हमेशा हमारे साथ खड़े होते है | चाहे जैसी परिस्थिति हो हमारी, वो कभी हमें छोड़ कर नहीं जाते , ये   माँ  हो सकती है, बड़ी बहन या भाई या पिता या कोई सच्चा दोस्त आपका प्रेमी भी हो सकता है | जो लोग भी आपसे प्रेम करते हैं वो सभी आपको ऐसे ही समर्पण भाव से प्रेम करते हैं निस्वार्थ भाव से |वे आपको सिर्फ खुश देखना चाहते हैं फिर भले ही वो खुद मिट जाये
लेकिन ....., क्या आपने कभी ऐसे रिश्तों कि अहमियत समझी है ? उनकी महत्ता ? या उन्हें टेकन फार ग्रांटेड ही समझ लिया यानी" घर कि मुर्गी दाल बराबर "
एक ऐसी मुर्गी जिसकी कोई अहमियत ही नहीं जिसे जब चाहे आप अपनी सुविधा और इच्छा होने पर उपयोग में ले आये
घर की दाल को भी सहेजना संभालना होता है वरना उसमे भी घुन लग जाते है फिर तो ये रिश्ते हैं
इनके प्रति लापरवाह होना कौनसी समझदारी है
जो लोग हमेशा आपके सुख दुःख में आपके साथ खड़े रहते हैं , जो हमेशा खामोशी से आपके लिए मन्नते मंगाते हैं ., दुआओं में हाथ उठाते है तो आपकी खेरीयत के वास्ते ही | क्या कभी उनकी भावना , उनकी इच्छा उनकी जरुरत (चाहे  वो खुद से न कहे ) के बारे में आपने सोचा है ? उनके पास भी मन है जो संवेदना से भरता होगा , टूटता भी होगा , वो तब किसके पास जाते होंगे ? उन्हें कौन संभालता होगा ? समंदर में समन्दर को सहारा कौन देता होगा उनके अकेलेपन में कौन साथ होता होगा उनके ? याद रखिये जो कभी अपने दर्द किसी को नहीं दिखाते दर्द तो उनको भी उतना ही होता है जितना शोर मचाकर दर्द का बखान करने वाले को होता है | ख़ामोशी से मन ही मन खुद से बातें करने वाले , दर्द सहने वाले रिश्तों को तो सर आखों पे बिठाना चाहिए ना कि उन्हें महत्वहीन समझ कर उपेक्षित कर दिया जाए | उन्हें “मुफ्त में मिली सौगात “ समझने की भूल की जाए |
जब आप किसी रिश्ते को घर कि मुर्गी समझते हैं या किसी व्यक्ति को तो उसकी अहमियत तो आपके सामने खतम हो जाती है |
आप सारी दुनिया को प्रभावित करने में, उन्हें अपने पक्ष में करने में , उनकी तारीफ पाने में जितना समय नष्ट करते हैं क्या उससे आधा वक्त भी आप इन रिश्तों पे खर्च करते हैं ?कभी सोचा है ?  घर की  मुर्गियों के भी जन्मदिन होते हैं , क्या आप उन्हें याद रखते हैं ? इनकी भी छोटी -छोटी खुशियाँ होती हैं क्या आप उनमे शरीक होते हैं ? उनके लिए कभी ख़ुशी की  वजह बनते है या उन्हें " प्रेम कभी प्रतिदान  नहीं मांगता " जैसे दलीले देकर चुप करा देते हैं
क्या आप इन टेकन फॉर ग्रांटेड रिश्तों के खतों के जवाब देते हैं
क्या कभी उनसे पूछा है " बताओ आज तुम्हारे लिए या तुम्हारी ख़ुशी के लिए क्या किया जाये
ये जो रिश्ते हमारे आसपास हैं जो हमारी  परवाह करते हैं,  हम उनके प्रति इतने गैर जिम्मेदार कैसे हो जाते हैं  
ये स्वार्थ नहीं तो क्या है ? क्या कभी देखा की इस घर की दाल में घुन तो नहीं लग गया | घर की दाल को भी संभालना सहेजना पड़ता है फिर तो ये रिश्ते हैं | हम जिन पर निर्भर हैं उनकी ही अनदेखी करने के पीछे क्या तर्क है ? अक्सर लोग इस तरह के दलीलें देते है देखिये -- 
"प्रेम तो भीतर भीतर होता है उसे दिखावे की जरुरत नहीं " 
" माँ को मैं  बहुत प्यार करता हूँ बस दिखलाता नहीं " 
"मेरी  दीदी दुनिया की  सबसे प्यारी दीदी हैं जो कभी नाराज नहीं होती " 
"तुम मेरी सबसे खास दोस्त हो, और सबसे करीब भी और जो मेरे करीब है मैं उनसे सबसे ज्यादा दूर रहता हूँ " 
" मैं तुम्हे सबसे  ज्यादा प्रेम करता हूँ बस तुमसे मिलने का समय नहीं मेरे पास, बात करने का भी , क्योकिं बात करना , प्रेम करना नहीं है " 
" मेरी पत्नी को घर से बहुत मोह है वो कभी कहीं जा हीं नहीं सकती मेरा  घर छोड़ कर "  
" तुम मेरे बचपन के यार हो मेरी हर गलती को माफ़ कर दोगे " 
" मुझे यकीन है वो मुझे छोड़ कर कभी नहीं जायेगा या जाएगी " 
ऐसे हजारों तर्क गढ़ेजाते हैं और जिम्मेदारी से बचा जाता है | क्यों करते है लोग रिश्तों में ऐसा ? क्या कोई इसका मनोवैज्ञानिक कारन भी है

दरअसल ,हमें जो  चीज आसानी से मिलजाती है हम उसके प्रति लापरवाह हो जाते हैं | जैसे मिट्टी, पानी हवा को ही ले लीजिये | मिट्टी अनमोल है लेकिन वो आसपास है इसलिए उसकी कदर नहीं , और सोने को हमने कीमती बना दिया | यानि मिल जाये तो मिट्टी है , खो जाए तो सोना है
इसी प्रकार जो व्यक्ति हमें यूँ ही उपलब्ध हो गया तो हमने उसकी इमेज एक छवि गढ़ ली कि ये तो ऐसा ही है | इसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा , उसे सब चलता है | अरे ..वो तो माँ है न इक मिनिट में मान जाएगी , अरे वो दीदी ..बस यूँ पट जायेगीं या वो  कोई अपना दोस्त , उसे तो चुटकी में मना लेंगे
कहाँ जाएगा /जाएगी हमारे सिवा , और आपकी अदा के भोलेपन पे कोई लुटता रहता है | ताउम्र है न
आपने  उसकी ऐसी ही इमेज बनायीं है अपने मन में , और अब आपको उसकी और देखने की जहमत नहीं उठानी है| आपने सौ तर्क बनाये है खुद को अपराध बोध से बचाने के लिए | लेकिन याद रहे , ये खामोश रहने वाली दीवारे धीरे -धीरे धंसती जाती है और आपको खबर भी नहीं होती
रिश्ते धीरे धीरे दरकते रहते हैं , टूटते रहते हैं और हम कभी भी उनकी दरारों की मरम्मत नहीं करते | नहीं देख पाते दरारों से रिसते जख्म , डबडबाई आखों को और कांपते होठों को
हम सिर्फ शब्दों के और छवियों के गुलाम हो गए हैं | हम शब्दों के जाल फेंकते हैं खुद को भी बहलाते हैं और दूसरों को भी उलझाते हैं


रिश्तों को सम्बन्धों को सहेजना होगा उन्हें लम्बे समय तक बनाये रखने के लिए उन्हें लाकर में पड़े गहनों की  तरह छोड़ देना नहीं होता उन्हें पौधों कि तरह रोज सींचना होता है
आपके जीवन में जो व्यक्ति ( वो कोई भी हो ,माँ पिता , बहन भाई या दोस्त साथी ..) सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है | आपने उसके लिए अभी तक क्या -क्या किया
उस रिश्ते को बचाए रखने के लिए क्या किया
याद रहे , तोड़ तोड़ कर बार बार जोड़ना और टूटने से बचाना  दोनों में गहरा भेद है
जो सहज ही मिल गया उसे मिट्टी समझ लिया और जो वो कभी खो गया तो सोना हो गया है, न ?
याद रहे ,  मिट्टी सहज मिल गयी इसलिए उसमे सहजता की सौंधी महक  है वो आपको तृप्त करती है | और इस मिट्टी को संभालना आपकी जिम्मेदारी है मीठी सी जिम्मेदारी |इससे पहले की वो खो जाये उन्हें संभाल लीजिये | उन्हें टेकन फॉर ग्रांटेड समझ कर छोड़ देना नहीं होता|  इश्वर की  अनमोल सौगात मानकर सहेजना होता है | ये रिश्ते जादू का खिलौना हैं , मिलजाए तो मिट्टी है खो जाये तो सोना है
https://plus.google.com/_/focus/photos/public/AIbEiAIAAABECOOku6PVhPT06QEiC3ZjYXJkX3Bob3RvKihiZjg0NzEyOTIxOTJiN2EyYzZjMjhkMTQ4NGFmYjRhMTAwOTk2NWE3MAHv8q1Ce5x8AcPKT8DrF8i_GaDo8g?sz=24


चकमक पत्थर

शनिवार, अप्रैल 5 By मनवा , In

आसमान में उस रात कोई  बड़ा भारी तूफान सा उठा था । कई ग्रह इधर से उधर हो गए तूफ़ान इतना तेज था की चाँद भी कहीं जाकर छिप गया और तारे -सितारे डर  से सिमट गए शायद कोई खगोलीय घटना घटी थी । तेज आवाज के साथ इक बड़े से पत्थर जैसी चीज धरती पे जबरन धकेली गयी|   नियति के मजबूत हाथों ने उसे फेंक दिया मानो वो उसे शाप दे रही थी । 
धरती तक आते आते वो पत्थर दो टुकड़ो में बँट गया इक टुकड़ा खारे समंदर में जाकर  गिरा,  तो दूजे को जलते रेगिस्तान ने पनाह दी । दोनों ही अपने भाग्य के भरोसे ,अपने आसमानी घर से दूर,  अपने ग्रह से बहुत दूर आकर बहुत दुखी थे । यकबयक हुई  इस दुर्घटनासे और  नियति के इस खेल  वे दोनों हैरान थे |
वे जहाँ गिरे वो अनजान  जगह थी  इस ग्रह(धरती)  के निवासियों की  भाषा उन्हें समझ आती और न ये लोग उनके ग्रह की  भाषा समझते थे ।
 दोनों नन्हें टुकड़े इस तरह  अलग -अलग दिशाओं में अपना -अपना शाप  काटने लगे । 
दोनों दिखने में साधारण पत्थर ही दिखते थे  ऊपर से मटमैले से खुरदुरे से | उनके भीतर भी आवाज है संगीत है खुशबु है इस बात से धरती के सभी लोग अनजान थे । दुर्भाग्य से वो दोनों अलग -अलग स्थाओं  में आ गिरे थे सो ,वो दोनों भी इकदूजे के अस्तित्व से अनजान थे लेकिन उनके भीतर की खुशबु उन्हें अक्सर खींचती थी | लेकिन वे समझ नहीं पाते थे |    उन्हें अब उनकी तरह बोलने समझने वाला ,उनकी सुंगन्धो को पहचानने वाला  कोई ज्ञानी  दूर –दूर तक  नहीं दिखता था |  
इस दुःख से दुखी होकर उन्होंने खुद को बेजुबान कर लिया और धरती पे अफवाह फ़ैल गयी की "पत्थर बेजुबान होते हैं " 
समय गुजरता रहा जो टुकड़ा समन्दर में गिरा था उसने खारे समंदर में समाकर समंदर से कई अनमोल सिद्धियाँ प्राप्त की । समंदर में मिलने  वाली अनेकों नदियों से उसने रवानगी सीखी दूर देश से आने वाली  लहरों ने उसे कई भाषाएँ सिखायी । समंदरी लुटरों ने उसे रूप बदलना सिखाया छल करना सिखाया और मुखोटे लगाना सिखाया । 
नमक के बीच रह -रह कर वो खारा हो चला था ( अथाह जलराशि होने के बाद भी समंदर की इक भी बूंद किसी कि प्यास नहीं बुझा पाती है उसका खारापन कभी किसी प्यास को तृप्त नहीं कर पाता) । 
समंदर जबकभी उदास होता अपनी पीड़ा से घिर जाता तो , ये नन्हा पत्थर उसे गीत सुनाता उसका जी बहलाता समंदर ने उस से गीत संगीत सीखा और इसके एवज में उसे को इक नील मणि भेंट की । वो जादुई नीलमणि (इक इच्छा मणि ही थी )अब वो नन्हा पत्थर नीलमणि का मुकुट लगाकर इतराता था । जब कभी कोई इच्छा होती वो नीलमणि से पूरी करवा लेता | उसने कई सुन्दर गीत रचे | कई जुगनू बनाये | अब वो बहुत खुश था उसे अब अपने ग्रह की स्मृति कभीकभार ही आती । अगर आ भी जाती तो वो मछलियों से बातें करता लहरों को निहारता उनसे मित्रता कर लेता लेकिन अक्सर रातों को कोई आवाज उसे पुकारती लेकिन वो कुछ समझ नहीं पाता। अगले ही पल वो फिर उस आवाज़ को अनसुना कर अपनी धुन में खो जाता कोई गीत गाने लगता या शंख -सीपियों से खेलने लगता । 
"समय ने फिर इक चक्र पूरा कर लिया था।  "

अबकी फिर भयंकर तूफ़ान उठा, लेकिन इस बार अम्बर नहीं,धरती डोली थी । आसमान की तरफ देखकर काँपी थी । धरती की   पुकार पे आसमान रो दिया। धरती के कम्पन और आसमान  के रुदन से ,कई समंदर उफन पड़े और रेगिस्तान जल में समां गए। रेत का हर कण मानो अपनी सदियों से बिछड़ी बूंदो के गले मिल रहा था । उस दिन फिर से इकबार  फिर से नियति ने उस नन्हे पत्थर को समंदर  से उठाकर रेगिस्तान में लाकर पटक दिया। तूफान के थम जाने पर उस नन्हे पत्थर ने महसूस किया उसका समंदर गायब है और उसकी   नीलमणि भीटूट फूट गयी है अब वो चमकती भी नहीं  ।
इस नयी जगह आकर वो बहुत रोया और तय कर लिया की इस नयी जगह नए लोगो से अब वो कोई सम्बन्ध नहीं रखेगा । उसके दिल की बस्ती क्या यूँ ही बार -बार उजाड़ी जायेगी | 
अक्सर वो ऊपर आसमान की तरफ देखकर हमेशा उन शाप देने वाले हाथों को देखता था और उदास हो जाता |
उसने ईश्वर को मानना छोड़ दिया । अब वो ख़ामोशी से इक कोने में पड़ा रहता था ।
इक रात  उसे फिर से किसी कि पुकार सुनाई दी |  अब साफ –साफ वो सुन पा रहा था | जैसे कोई आसपास ही हो |
तभी उसे इक अजीब सी गंध भी महसूस हुई बहुत सोचा बहुत सोचा लेकिन वो जान नहीं पाया कि आखिर ये किसकी गंध है क्या सुगंध है ये जानी पहचानी सी क्यों है परेशान होकर वो मन ही मन खीज उठा और बरसो पहले खोयी हुई आवाज में बोल पड़ा " क्या चीज हैक्या जादू ?  उसी पल इक मीठी हंसी उस रेगिस्तान में गूंजी और जवाब आया ।
हम्म्म,   तो तुम आ गए ? " 
"कितनी सदियां बीती है न ? " (इक हुबहू उसी के रंगरूप का नन्हा पत्थरमुस्काया ,उसके मुस्काने से हर बार रेत गिरती थी चमकती थी ) 
"कौन हो तुम ? " जो मेरी बोली बोलती हो “ मेरी तरह दिखती हो ? मुझे सुन समझ सकती हो बोलो ? “
मैं तुम्हारा ही बिछड़ा हिस्सा हूँ याद है हम कभी उस “ सुगन्धितग्रह” पे रहते थे और महका करते थे |इकदिन किसी गलती की  वजह से हमें उस सुंगंधित ग्रह से यहाँ धरती  पर फेंक दिया गया था | चूँकि हम इक ही मिट्टी के थे इसलिए हम दोनों में से इक जैसी  खुशबु आती है( वो फिर मुस्काई ) 

अब तक उस नन्हे पत्थर की  सुंगंध ने समंदरी पत्थर को परेशान कर दिया था । उसने उस अजनबी पत्थर को परे हटाने कि कोशिश में उसे छुआ | लेकिन उसे छूते ही उन दोनों पत्थरों में से इक " अलौकिक चमक" निकली उस  चमक से वो पूरा द्वीप रोशन होगया |  वो  आतिश , वो  स्पार्क, वो रौशनी  देख कर समंदरी पत्थर हैरान हो गया बोला " अब ये क्या तमाशा है? " 
“ ये तमाशा नहीं,  ये बरसों कि प्रतीक्षा है , साधना है , आराधना है , तुम्हे बहुत पुकारा मैंने “
“ हम्म
" तो तुम मुझे पुकारा करती थी उन दिनों जब मैं समंदर में रहता था ? “
"बिलकुल ..और कौन है यहाँ ?  इस धरती पे मुझ जैसा, तुम जैसा " 
 मैं जानती थी तुम कहीं तो जरुर हो,  तुम -हम साथ ही तो निकाले गए थे आसमान  से ..और इस ग्रह पे गिरे थे हमें मिलना ही था किसी भी तरह कभी भी |
तुम्हे आना ही था एक दिन ..कहकर वो नन्हा पत्थर फिर हंसा ...और बोला
क्या मैं तुम्हे इक कहानी सुनाऊँ ?"
मुझे किस्से कहानियाँ पसंद नहीं उनमे तर्क नहीं होते मुझे जाना है यहाँ से “तुम्हारी बातों में मुझे कोई रूचि नहीं " (फिर वो चला गया )
वो फिर अलग हो गए । 
"जल्दी ही वो वापस आ  गया दोनों फिर मिले ,बार -बार जाना और फिर आ जाना उस समंदरी पत्थर की  फितरत थी | उसने ये हुनर लहरों से सीखा था | 
उन दोनों के  भीतर से उठती खुशबु और चमकती चिंगारी उन्हें बार -बार समीप ला रही थी । 
जल्दी ही वे मित्र बन गए घंटों बातें करते रेतीले पत्थर ने उसे बताया की उसने अकेले रहकर इस रेगिस्तान में प्यासे मर -मर कर पानी का  महत्व  जाना है| प्यास को पहचाना है । जलती रेत के बीच उसने शीतलता की कल्पना बुनी है । उसने बताया मैं नहीं जानती बूंद और समंदर में फर्क क्या है ? पर मुझे इतना पता है इक बूंद ही समंदर जितनी बड़ी है अगर वो आपको तृप्त कर दे “|
 “मैंने कभी हरियाली नहीं देखी इसलिए देह के रेगिस्तान में मन के छोटे मरुद्यान रच लिए । मुझे रेत के हर कण ने सिखाया कि, आसूं जब सूख जाए तो रेत हो जाते हैं।  ये प्रेमका स्थान है,  रेत  का हर कण  प्रेम की पहचान है इसलिए मैं प्रेम से भरी हूँ । 
हमदोनो के बीच जो रसायन काम कर रहा है हम वो अपने उस ग्रह से लेकर आये हैं । ये खुशबू और ये आग भी। समझे तुम ?"
"झूठ सब बकवास "(ये सब बेकार कि बातें है समंदरी पत्थर बोल पड़ा)
तुम्हारे और मेरे मिलने  से हमारे बीच जो स्पार्क या आतिश दीखता है ये  मेरे भीतर की आग है मुझमे दिव्य-शक्तियां हैं इक तूफ़ान में मेरी नीलमणि टूट गयी वरना मैं तुम्हे दिखाता  कितनी चमक है मुझमे"| 
मैं तुम्हारा नीलमणि फिर से जोड़ सकती हूँ "
"क्या ?  असम्भव है ये अब "
“कुछ भी असम्भव नहीं होता ( वो मुस्काई ) “
“कल सुबह हो जायेगा बस तुम ये वादा करो  रोज मुझसे मिलने इसी जगह  आओगे " और हमेशा इस नीलमणि को सम्भाल कर रखोगे इसे कभी टूटने मत देना वरना मैं दोबारा नहीं बना सकुंगी “। 
वादा " (और वो चला गया उसकी तरफ बिना देखे ) 

उस रात उस रेतीले पत्थर ने अपनी चंद साँसे उस नीलमणि के  भीतर रख दी और नीलमणि फिर से चमकने लगी  । समंदरी पत्थर की  ख़ुशी का ठिकाना नहीं था अब वो सभी जगह  जा सकता था अपनी चमक लेकर । अब वो रोज नए गीत रचता , फूल खिलाता , उसके खिलाये फूलों में कमाल की  खुशबु होती थी|  उसके बनाये गीतों में मधुर संगीत और उसके बनाये जुगनू और तारे चम् -चम् चमकते थे | 
उस रेगिस्तान के लोगो ने उन दोनों को "चकमक " पत्थर कह कर पुकारना शुरू कर दिया | 

वे दोनों फिर से  गहरे मित्र बन गए अपने बिछड़े हिस्से से मिलकर दोनों बहुत खुश थे । वे दोनों एकदूजे की भाषा जानते थे । अपने ग्रह के बोली बोलते थे । गीत गाते थे । दुनिया से बेखबर थे | वो भी एकदूजे को चक और मक नाम से पुकारने लगे । अब समंदरी पत्थर का नाम “चक “ और रेगिस्तानी पत्थर का नाम “मक “ हो गया था |
और दोनों खुद को चकमक कहकर खूब हंसते थे | उनके हंसने से उस मरुस्थल  में फूलों की  क्यारियाँ खिलती  थी और ऊपर आसमानों में तारे चमकते थे | वो दोनों अब नियति को धन्यवाद देते थे |
और दुआ मंगाते थे की वे हमेशा साथ रहे |

फिर समय का चक्र घूमा  अब तीसरी बार फिर तूफ़ान आया, न न अबकी न आसमान में आया था न धरती काँपी  थी । अबकी बार उन दोनों के बीच तूफान आया था अपने अहम् का इगो का स्वाभिमान का अभिमान का । 
उसदिन "चकमक " पत्थर आपस में फिर झगड़ पड़े । 
"तुम जानते हो इस धरती पे बस इक तुम ही हो जो मेरी भाषा समझते हो और मुझे भी फिर भी तुम न मेरी कोई बात सुनते हो न अपनी कहते हो " 
"तुम मेरे पास जब ही आते हो जब तुम्हारा नीलमणि अपनी चमक खोने लगता है | है न ? (मक ने शिकायत की ) 
"तुम कोई अहसान नहीं करती मुझपे मेरी मित्र हो क्या इतना भी नहीं करोगी ? " मत भूलों की तुम्हारे भीतर ये सांसे मैं ही भरता हूँ मेरी ही खुशबु से तुम महकती हो | मैं अगर ये क्यारियाँ नहीं सजाता तो कभी ये मरुस्थल , मरूद्यान में नहीं बदलता | (चक ने तर्क दिया ) 
मत भूलो चक हम दोनों के मिलन से ही इस अन्धकार में  रोशनी है । हमारे बीच का प्रेम रसायन ही यहाँ फूलों में खुशबु भरता है"
तुम्हारे ज्ञान से कब इंकार है लेकिन मेरा प्रेम भी इस “चमक में भागीदार है |  (मक की  आखों में आसूं आ गए ) 
हा हा हा.... मुझमे वो ज्ञान है की मैं हजारो चाँद सूरज बना सकता हूँ । " 
हजारों क्यारियां खिला सकता हूँ " उन्हें महका सकता हूँ | " 
और,   सुनो ! ये स्पार्क ये आतिश ये चमक सिर्फ तुम्हारी वजह से नहीं है मैं किसी साधारण पत्थर को भी छू लूँ न तो वो भी "मक " बन जायेगी " हा हा हा "(" चक ने बड़े अभिमान से कहा ) 

तो जाओ न बना लो इक हजार "मक " कोई तेरे वादे पे जीता है कहाँ ? " 
वे दोनों एक बार फिर अलग हो गए (इस बार के तूफ़ान ने प्रेम और ज्ञान को एकदूजे से अलग कर दिया था ।" 
ज्ञान चला गया प्रेम चुपचाप वहीँ रह गया । 
ज्ञानी पत्थर ने अपने ज्ञान मणि से हजारों चाँद सूरज बनाये कई तारे -सितारे बनाये लेकिन वो चमक नहीं आ सकी जो पहले आती थी । 
फिर उसने अपनी दिव्य शक्तियों से कई सुन्दर क्यारियां खिलाई फूलों में सुन्दर रंग भरे लेकिन अफ़सोस उनमे कोई खुशबु नहीं आती थी । 
अब कोई खुशबु नहीं थी उसके पास न कोई चमक । 
दुःख और क्रोध में उसने अपने नीलमणि को उठाकर जमीन पे पटक दिया। ।वो नीलमणि जो उसका गर्व था अभिमान और स्वाभिमान था आज वो नीलमणि उसकी बात क्यों नहीं मान रहा था । 
जमीन पे गिरते ही नीलमणि हजारो टुकड़ो में बंट गया । 
हर टुकड़ा चमकता था और उसमे उस समंदरी पत्थर का रूप दिखता था । हर टुकड़े में अपने अंश को देख कर चक फिर से इकबार गर्व से भर गया । 
उसके चारों  तरफ अब उसकी तरह के बहुत से पत्थर थे । जो हुबहू थे उसकी तरह वो उनसे बात करता उन्हें गीत सुनाता और खूब हँसता ।अपने व्यक्तित्व के हजारो टुकड़े कर लिए थे उसने | बिखर गया था वो |

समय गुजरता रहा। 
उधर "मक " अपने प्रेम को लिए अकेले चुपचाप  रहती रही | अपने प्रेम और आसुंओं से उसने इक नदी बनायीं उसमे  अपने प्रेम को रोज  बहा देती थी| प्रेम कि सुगंध से नदी का  पानी सुंगंधित होने लगा था । वो दूर से "चक " को तकती थी उसके बनाये फूल और तारे देखती , । अपने हिस्से के, अपने चक के विखंडन को देख वो मन ही मन पीड़ा से भर –भर जाती थी | वो जानती थी ‘चक ‘ के बनाये ये सभी अंश मात्र मशीनी हैं उनमे खुशबु नहीं,चमक नहीं है |
चक अब बदल चुका था |अब बिखर चुका था कई रूपों में अब उसका इक नाम नहीं ,इक पहचान नहीं थी अब उसके पास वो रसायन भी नहीं था जो मक के साथ मिलकर इक अद्भुत रौशनी बनाता  था । लेकिन वो अभी भी अपनी ज्ञान की प्रयोग शाला में “क्लोन “ बनाने में व्यस्त था | उन्हें रोज नए नाम देता , नयी आवाज देता , नयी पहचान देता लेकिन प्राण नहीं डाल पाता | रोज नए फूल खिलाता  अपनी शक्तियों से हुनर से सुन्दर –सुन्दर रंग भरता लेकिन खुशबु नहीं ला पाता | अब वो बहुत दूर चला गया था | किसी घने जंगल में शायद इस फ़िक्र में की उसके बनाये तारे सितारे पहले की तरह चमकते क्यों नहीं ? , और उसके बनाये इन सुन्दर फूलों में से खुशबु क्यों नहीं आती ? जल्दी ही उसे इस समस्या का समाधान मिल गया |

एक दिन किसी सिध्द  महापुरुष ने चक को बताया की जलते  रेगिस्तान  के बीच इक शीतल मीठी  नदी बहती है उसका पानी सुंगंधित है, पवित्र है |  तुम उसके जल से इन फूलो में सुगंध पैदा कर सकते हो । 
चक उस नदी की खोज में चल पड़ा और फिर नियति उसे,  उसी नदी किनारे ले आई जहाँ उसे पहली बार वो रेतीला पत्थर “मक “ मिली थी |
तुम तुम अब भी यही रहती हो ? " (चक ने हैरानी से पूछा ) 
" हाँ ................ मुझे कहाँ जाना था ? तुम्हे ही जाना था " (मक ने धीरे से कहा ) 

 " बहुत दिनों बाद दिखे , क्या किया इस बीच ? "
" अरे ...बहुत कुछ , तुम जानती हो ? मैंने इंसानों की  भाषा सीखी , उनके हुनर सीखे , कई बड़े काम किये , पुल बनाना सीखा , नदियों को बांधना सीखा | " ये सब मैंने अपने ज्ञान के बल पे किया | " 
 मैंने कई हजार पेड़ लगाये अपनी शक्तियों से कई तारे बनाये सूरज भी रच डाले 
तुम हमेशा प्रेम के नारे लगाती रही क्या कर पायी तुम अपने  प्रेम के बल पर बताओ ? "
मैंने देखो कितने जुगनू बनाये मेरे ही अंश है सब जिनसे रोशन है कई द्वीप | 
मैंने कई जातियों के फूल खिलाये कई रंगो के दुनिया लोहा मानती है मेरी कला और हुनर का " (चक अभिमान में बोले जा रहा था )
"हम्म्म ………। इस तरफ कैसे आना हुआ ,आज बरसो बाद ? " (मक ने दर्द भरी आवाज में पूछा )
सुना है यहाँ कोई नदी बहती है जिसके पानी में सुगंध है क्या तुम मुझे उस नदी का पता बता सकती हो " वो पानी लेने आया हूँ|
"हम्म....... आज रात जरुर (मक ने ठंडी आह भरी )
‘ ओह! हो समय ही नहीं है बहुत काम है मुझे ठीक है फिर भी,जरा  जल्दी करना" 
" सुनो ...तुम्हारी बहुत याद आई इस बीच लेकिन बहुत व्यस्त रहा मैं " (चक  ने नीलमणि को छूते हुए कहा ) 
"हाँ …तुमने इंसानों की  भाषा सच में सीख ली है (मक ने मुस्काने की असफल कोशिश की ) इस बार इक भी रेत का कण नहीं गिरा | 
 उस रात  फिर इक तूफ़ान आया था लेकिन अबकी बार सिर्फ "मक " के मन में। जिसकी  भनक तक "चक " को नहीं हुई । 
उस अमावस की रात को जब चक की  आँख  लग गयी| मक ने  बहुत ही प्रेम और विश्वास के साथ "चक  " का माथा चूमा और अपनी बची –कुची साँसे उस नील मणि में उड़ेल दी । अब नीलमणि में खुशबु पैदा हो गयी थी । अपनी  सारी दुआएं प्रेम और प्राण सब रसायन अब "चक  " के हिस्से में आ गए थे । 
 क्या कर रही हो मेरे नीलमणि के साथ “ (नींद खुल गयी चक की )
“चुराने का इरादा है तुम जलती हो न शुरू दिन से ही इस मणि से (चक जोर से हंसा ) 
बदले में "मक " मुस्कायी । 
नाराज मत हो मैं तो सिर्फ तुम्हारा माथा चूम रही थी मणि नहीं। और हाँ अब तुम्हे नदी का पानी ले जाने की जरुरत नहीं है अब तुम खुद दुनिया की हर शै में सुगंध भर सकते हो " 
"कैसे "और वो नदी का पानी 
‘ उसकी अब जरुरत नहीं “
वो नदी मैंने ही बनायीं थी,  तुम्हारे बिन तुम्हारे प्रेम का क्या करती मैं ?तुम बिन मेरा मन ही नहीं लगता था | मन समझते हो तुम ? मुझे यहाँ किसी की बोली समझ नहीं आती थी न इन्हें मेरी | मैंने प्रेम को आसुओं में मिलाकर बहाना शुरू कर दिया था। प्रेम में ही सुगंध  होती है  और चमक भी|  इस धरती पे खिलने वाले हर फूल में रसायन है और आसमान में चमकने वाले हर तारे में भी | तुम जब गए तो मुझसे मिले बिना ही चले गए थे और ये रसायन मेरे पास ही रह गया | मेरे प्रेम से तुम चमकते थे “”चक “" 
प्रेम इक व्यक्ति ही करता है , दूजा तो बस उसकी चमक से उसके ताप से उसकी आंच से चमकता है | “तुम और मैं जब मिलते थे तो दोनों का रसायन साथ काम करता था इससे इक अद्भुत रौशनी बनती थी । ये इंसान हमे इसीलिए चकमक पुकारते थे । 
उन दिनों जब हम साथ थे , मैं रोज तुम्हारे नीलमणि में चुपके से प्रेम भर देती थी और कुछ सांसे भी तुम्हारे माथे पे धर आती थी । तुम अनजान थे इस बात से फिर इक दिन तुम्हे गुमान हो गया। तुम चले गए | 
मेरे मना करने के बाद भी तुमने नीलमणि का मान नहीं रखा मेरी बात का भीमेरे प्रेम का भी है न ?और बिन बोले चले गए मेरी सभी सांसे तुम अपने साथ ले गए और सारा प्रेम रसायन मेरे पास छोड़ गए |
नीलमणि को तुमने जैसे ही तोड़ा उसके भीतर जो मेरी सांसे थी वो  बिखर गयी  । अब मेरा नष्ट होना तय है इक अंतिम सांस मैंने बचाकर रखी थी और अंतिम दुआ और इक प्रेम का अहसास भी जो आज रात इस मणि में रख दिया है । 
अब कभी भी ये मणि निस्तेज नहीं होगी । 
मैं अपनी अंतिम साँस रख दी है, तुम्हारे माथे पे “
अब तुम पूर्ण रूप से चकमक हो | " 
" सुनो ........ रुको , तुम मुझे छोड़ कर नहीं जा सकती " (चक की  आखें नम  थी ) 
उसने बढ़कर "मक" को रोकने की  कोशिश की , उसे थामना चाहा चक के छूते ही फिर दोनों के बीच वही अद्भुत बिजली चमकी और पल भर में वो रेतीला पत्थर रेत में बदल गया , बिखर गया, मिट गया..... |